Book Title: Agam Sahitya me Puja Shabda ka Arth
Author(s): Dalsukh Malvania
Publisher: Z_Rajendrasuri_Janma_Sardh_Shatabdi_Granth_012039.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ जं न अंग आ ग म सा हि त्य में पूजा श ब्द का अर्थ - श्री दलसुख मालवणिया वर्तमान समय में जैन समाज में कुछ आचार्य जिनप्रतिमा की तरह अपने ही नव अंगों की पूजा करवाते हैं । इस विषय में समाज में काफी विवाद चल रहा है । अतः हम यहाँ पूजा के सन्दर्भ में कुछ चिन्तन करें, यह आवश्यक है । जैन विश्वभारती, लाडनूंं द्वारा प्रकाशित “आगम शब्द कोष" में जैन अंग आगमों में जो-जो शब्द जहाँ-जहाँ पर प्रयुक्त हुए हैं उनके सन्दर्भ दिये गये हैं । अतः पूजा, पूजार्थी, पूजना जैसे शब्दों का अंग आगमों में कहाँ-कहाँ पर प्रयोग हुआ है, उनकी अन्वेषणा करना सरल हो गया है । एतदर्थं पूर्वोक्त कोश का आश्रय लेकर हम यहाँ पूजादि शब्द एवं उनके अर्थ, जो टीकाओं में यत्र-तत्र दिये गये हैं, उसका सार देने का प्रयत्न कर रहे हैं । टीकाकार पूजा शब्द का जो अर्थ करते हैं उस पर आगम ग्रन्थों में ही पूजा शब्द का जो अर्थ फलित होता है, रहे हैं । हम बाद में चिन्तन करेंगे । सर्वप्रथम मूल स्पष्ट होता है, उसकी हम समीक्षा कर सूत्रकृतांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध के प्रथम अध्ययन में तैथिकों की चर्चा की गई है । उसमें लोकायत या चार्वाक या शरीर को ही आत्मा मानने वाले अनुयायी पूजा किस तरह करते थे, उसका स्पष्ट निर्देश मिलता है । जो इस प्रकार है "तुमं पूजयामि तं जहा - असणेण वा पाणेण वा खाइमेण वा वत्थेण वा पडिग्गहेण वा कंबलेण वा पायपुंछणेण वा "1 स्पष्ट है कि पूज्य को अशनादि, वस्त्र, पात्र, कम्बल, पाँव पौंछने का वस्त्र आदि देना ही पूजा है । अङ्ग आगम में जहाँ-जहाँ पर पूजा शब्द का प्रयोग हुआ है वहाँ पर टीकाकार जो अर्थ करते हैं उसके कुछ दृष्टांत यहाँ द्रष्टव्य हैं । सूत्रकृतांग (१. १४. ११) में प्राप्त पूजा शब्द का अर्थ टीकाकार इस प्रकार करते हैं"अभ्युत्थानविनयादिभिः पूजा विधेयंति" ( - आगमो० पृ० २४५, 1. आगमोदय आवृत्ति पृ० 277 उसकी दिल्ली से प्रकाशित फोटो बाफी पृ० 185 दिल्ली पृ० १६४) www. Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ सूत्रकृताङ्ग (१. १६. ४) में— "एत्थ वि जिग्jत्थे णो पूयासक्कारला भट्ठी" ऐसा पाठ है, उसकी टीका में कहा गया है कि- "नो पूजा सत्कार लाभार्थी किन्तु निर्जरापेक्षी " - आगमो० पृ० २६५; दिल्ली पृ० १७७ स्थानाङ्ग में (आगमो० सूत्र ४९६) छठाणा अणत्तवओ अहिताते असुभाते भवति । तं जहा ------पूतासक्कारे । छठाणा अत्तवत्तो हिताते भवंति । तं० जाव पूतासक्कारे" उसकी टीका में श्री अभयदेव कहते हैं कि - "अनात्मवान् सकषाय इत्यर्थः - पूजास्तवादिरूपा, तत्पूर्वकः सत्कारो वस्त्राभ्यर्चनम्, पूजायां वा आदर पूजा - सत्कार इति" ( - आगमो० पृ० ३५८; दिल्ली पृ० २३९ ) स्थानाङ्ग में छद्मस्थ की पहचान के प्रसंग में कहा गया है कि - "सत्तहि ठाणेहि छउमत्थं जाणेज्जा तं० पाणे अइवाएत्ता भवति पूतासक्कारमणुवुहेत्ता भवति " ( आगमो० सूत्र ५५०) उसकी टीका इस प्रकार है- “ पूजा सत्कारं पुष्पार्चन - वस्त्राद्यर्चनं अनुब हयिता - परेण स्वस्य क्रियमाणस्य तस्य अनुमोदयिता, तद्भावे हर्षकारी इत्यर्थः " - आगमो० पृ० ३८६, दिल्ली पृ० २६० स्थानाङ्ग (सूत्र ७५६) "दसविहे आसंसप्पओगे ....पूयासं सप्पतोगे दस प्रकार से मनुष्य प्रशंसा व्यापार करता है उसमें से एक है - पूजाशंसाप्रयोग । उसकी टीका में श्री अभयदेव लिखते हैं। कि - " तथा पूजा - पुष्पादिपूजनं मे स्थादिति पूजाशंसाप्रयोगः । " - आगमो० पृ० ५१५, दिल्ली पृ० ३४४. इस प्रकार के आशंसा प्रयोग करणीय नहीं है ऐसा श्री अभयदेव का भी अभिप्राय है । इसी सूत्र में सत्कार आशंसा को पृथक् माना है और उसकी टीका में टीकाकार लिखते हैं कि - "सत्कारः प्रवरवस्त्रादिभिः पूजनम्, तन्मे स्यादिति सत्काराशंसा प्रयोग इति ।" इससे यह ज्ञात होता है कि सूत्रकार को पूजा और सत्कार अर्थ इष्ट है, पूजा के द्वारा सत्कार ऐसा अर्थ इष्ट नहीं है । समवायाङ्ग सूत्र में ३६ वें समवाय में उत्तराध्ययन के ३६ अध्ययन गिनाये हैं उसमें ग्यारहवां अध्ययन 'बहुश्रुतपूजा' नामक है । उसमें गा० १५- ३३ में बहुश्रुत की अनेक उपमाओं के द्वारा प्रशंसा की गई है । यही उसकी पूजा है - ऐसा मानना चाहिए । भगवती सू० ५५६ में "पूया सक्कार थिरिकरणट्टयाए" ऐसा पाठ है । किन्तु टीका में मात्र उसकी संस्कृत छाया ही दी गई है । पूजा शब्द का अर्थ नहीं दिया है । पूयण-पूयणा आचारांग (१-१-१) में "इमस्स चेव जीवियस्स जिसकी अनेक बार पुनरावृत्ति की गई है । उसकी टीका कि- " पूजनं पूजा-द्रविण वस्त्रान्नपान सत्कार - प्रणाम सेवा विशेषरूपम् ।" परिवंदण - माणण-पूयणाए" इत्यादि पाठ है में पूजन के विषय में श्री शीलांक लिखते हैं -आगमो० पृ० २६, दिल्ली पृ० १८ आचारांग ( ३. ३. ११९ ) में "दुहओ जीवियस्स परिवंदण माणण पूयणाए जंसि एगे पमायंति' पाठ है। उसकी टीका श्री शीलांक इस प्रकार करते हैं- “तथा पूजनार्थमपि प्रवर्तमानाः कमखवैरात्मानं भावयन्ति मम हि कृतविद्यस्योपचितद्रव्य प्राग्भारस्य परो दान-मान-सत्कार - प्रणाम - सेवाविशेषैः पूजां करिष्यतीत्यादि पूजनं, तदेवमर्थ कर्मोपचिनोति । " २४ | चतुर्थ खण्ड : जैन दर्शन, इतिहास और साहित्य -- आगमो० पृ० १६६, दिल्ली पृ० ११३ www.jainellb Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साध्वारत्न पुष्पवता आभनन्दन ग्रन्थ प्रश्नव्याकरण सूत्र में - "न वि वंदणाते, न वि माणणाते न वि पूयणाते भिक्खं गवेसियव्वं' पाठ है। जैन विश्व भारती प्रकाशित ६.६. उसकी टीका में आचार्य अभयदेव ने लिखा है- "नापि पूजनया - तीर्थनिर्माल्यदान-मस्तकगन्ध-क्षेप-मुखवस्त्रिका - नमस्कारमालिका - दानादि लक्षणया" -आगमो० ५०१०६ सूत्रकृतांग (१.२.२. ११) में पाठ है " जाविय वंदण - पूयणा इहं" उसकी टीका में आचार्य शीलांक लिखते हैं- " राजादिभिः कायादिभिः वंदना, वस्त्रपात्रादिभिश्च पूजना " - आगमो० पृ० ६४, दिल्ली पृ० ४३ सूत्रकृतांग (१. ३. ४. १७) में पाठ है - जेहिं नारीण संजोगा पूयणा पिट्ठतो कता" उसकी टीका में आ० शीलांक लिखते हैं कि - " तथा तत्संगार्थमेव वस्त्रालंकारमाल्यादिभिः आत्मनः 'पूजना' कामविभूषा पृष्ठतः कृत " - आगमो० पृ० १००, दिल्ली पृ० ६७ । सूत्रकृतांग (१. २. २.१६) में - "नोऽवि य पूयणपत्थए सिया" पाठ है उसकी टीका आ० शीलांक इस प्रकार करते हैं - " न च उपसर्गसहन द्वारेण पूजाप्रार्थकः प्रकर्षाभिलाषी स्यात् भवेत्” -आगमो० पृ० ६५, दिल्ली पृ० ४४ सूत्रकृतांग (१. २. ३. १२) में "निव्विंदेज्ज सिलोग-पूयणं” पाठ है उसकी टीका में आ० शीलांक ने लिखा है कि-“निर्विन्द्येत - जुगुप्सयेत् परिहरेत् आत्मश्लाघां स्तुतिरूपां तथा पूजनं वस्त्रादिलाभरूपं परिहरेतु" -आगमो० पृ०७३, दिल्ली पृ० ૪૨ सूत्रकृतांग (१. ६. २२) में "जा य वंदण पूयणा" पाठ है उसकी टीका आ० शीलांक ने इस प्रकार की है " तथा याच सुरासुराधिपति चक्रवति वलदेव वासुदेवादिभिः वंदना, तथा सत्कार पूर्विका वस्त्रादिना पूजना " - आगमो० पृ० १६ - १-२ दिल्ली पृ० २२१-२ सूत्रकृतांग (१५-११) में " वसुमं पूयणासु (स) ते अणासए" कहा है उसकी टीका में आ० शीलांक ने इस प्रकार कहा है- "किं भूतोऽसौ अनुशासक इत्याह- वसु द्रव्यं स च मोक्षं प्रति प्रवृत्तस्य संयमः, तद्विद्यते यस्यासौ वसुमान् । पूजनं देवादिकृतमशोकादिकमास्वादयति उपभुङक्त इति पूजनास्वादकः । ननु चाधाकर्मणो देवादिकृतस्य समवसरणादेरूपभोगात् कथमसौ सत्संयमवान् इत्याशंक्याह न विद्यते आशयः पूजाभिप्रायो यस्य असौ अनाशयः, यदि वा द्रव्यतो विद्यमानेऽपि समवसरणादिके भावतोऽ नास्वादकोऽसौ तदुत गार्ध्याभावात् । " - आगमो० पृ० २५७, दिल्ली पृ० १२७. पुर्याट्ठ समवायांग सूत्र (समवाय ३०) में तीस महामोहनीय स्थान के वर्णन के प्रसङ्ग में ३४वीं गाथा निम्नोक्त / है उसमें तीसवाँ स्थान है अपस्समाणो पस्सामि देवे जक्खे य गुज्झगे । अण्णाणी जिणपूयट्ठी महामोहं पकुव्वइ ॥ ३४ ॥ उसकी टीका आचार्य अभयदेव इस प्रकार करते हैं- "अपश्यन्नपि यो ब्रूते पश्यामि देवानित्यादिस्वरूपेण अज्ञानी जिनस्येव पूजां अर्थयते यः स जिनपूजार्थी गोशालकवत् । स महामोहं प्रकरोतीति ।" - आगमो० पृ० ५५, दिल्ली पृ० ३७ जैन अंग आगम साहित्य में पूजा शब्द का अर्थ : पं० दलसुख मालवणिया | २५. www.ja Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साध्वीरत्न पुष्पवती अभिनन्दन ग्रन्थ पूयण कामसूत्रकृतांग (1-4-1-26) में गाथा है कि बालस्स मंदयं बीयं जं कडं अवजाणइ भुज्जो / दुगुणं करेइ से पावं पूयणकामो विसन्नेसी / / 26 // प्रस्तुत गाथा की टाका में आ० शीलांक लिखते हैं कि-"किमर्थमपलपति इत्याह-पूजन-सत्कार पुरस्कारस्तत्कामः तदभिलाषी मा मे लोके अवर्णवादः स्यादित्यकार्यं प्रच्छादयति / -आगमो० पृ० 114, दिल्ली पृ० 5-76 पूयणट्ठिसूत्रकृतांग (1-10-13) में गाथा है कि सुद्ध सिया जाए न दूसएज्जा अमुच्छिए ण य अज्झोववन्ने / __धितिमं विमुक्के ण य पूयणट्ठी, न सिलोगगामी य परिव्वएज्जा // 23 // उक्त गाथा की टीका में आ० शीलांक लिखते हैं कि-"तथा संयमे धृतिर्यस्यासौ धृतिमान्, तथा स बाह्याभ्यन्तरेण ग्रन्थेन विमुक्तः, तथा पूजनं वस्त्र-पात्रादिना, तेनार्थः पूजनार्थः स विद्यते यस्यासौ पूजनार्थी, तदेवंभूतो न भवेत्, तथा श्लोक : "श्लाघा कीर्तिस्तद्गामी न तदभिलाषुकः परिब्रजेतदिति / कीर्त्यर्थी न काञ्चनक्रियां कुर्यादित्यर्थः // " -आगमो० पृ० 165, दिल्ली पृ० 130 स्पष्ट है कि अंग आगमों में पूजा शब्द का मुख्य अर्थ पूज्य के अंगों की पूजा ऐसा नहीं है किन्तु पूज्य को आवश्यक वस्तुओं का समर्पण है / अतः पूजा एवं दान में क्या भेद है ? वह भी यहाँ विचारणीय है / पूज्य के पास जाकर वस्तुओं का अर्पण पूजा है जबकि पूज्य स्वयं दाता के पास जाकर जो ग्रहण करता है, वह दान है / इस प्रकार पूजा एवं दान में भेद किया जा सकता है / पूजा शब्द के स्थान पर अर्चा शब्द का प्रयोग ज्ञाताधर्मकथा में द्रौपदी की कथा में किया गया है। समग्र अंग आगमों में यह एक ही उल्लेख जिन प्रतिमा का अर्चा के विषय में किया गया है यह भी उल्लेखनीय है। पाठ है "जिणपडिमणं अच्चणं करेइ"-नाया० 1-16-751 (जैन विश्व भारती लाडनूं की आवृत्ति)। आगमोदय समिति की नायाधम्मकहा मूल में पाठ अधिक है किन्तु टीका में कहा गया है कि उपरोक्त पाठ के अनुसार संक्षिप्त पाठ भी मिलता है। 26 | चतुर्थ खण्ड : जैन दर्शन, इतिहास और साहित्य www.jaine