Book Title: Agam Sagar Kosh Part 03
Author(s): Deepratnasagar, Dipratnasagar
Publisher: Deepratnasagar

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Page 159
________________ [Type text] आगम-सागर-कोषः (भागः-३) [Type text] ४४१ चेत्यर्थः। व्यव० ९१ आ। पचंकम्मणगं- प्रचङ्क्रमणं-भ्रमणम्। ज्ञाता०४११ पगासणा- प्रकाशना-प्रभासना, निर्मलीकरणम। उत्त० पच्चंग- प्रत्यङ्ग-कुचकक्षादि। उत्त० ४२८१ ૬રરા. पच्चंगिर- परपोषस्यात्मनो लगनम्। बृह. २२३ अ। पगासभोई- प्रकाशभोजी-दिवसभोजी। आव०६४७ पच्चंगिरदोसो- अपरितोषः। निशी. १६८ अ। पगासमुह- प्रकाशमुखः-विपुलमुखः। ओघ० १८२। पच्चंगिरा- प्रत्यङ्गिरः-अपकारः। बृह. १६८ आ। पगासवादी- प्रकाशवादी-सर्वसमक्षं गुदोषभाषी। बृह. पच्चंत-प्रत्यन्तं-सीमग्रामः। उत्त. १७९। प्रत्यन्तं२१४ । प्रत्यर्थिन्। आव० ५०६। प्रत्यन्तः। उत्त० २२५, ३९५१ पगिज्झिय-प्रगृह्य। औप० ९९। प्रगृह्य-उत्क्षिप्य। आचा० प्रत्यन्तं-सीमा। आव०६७३। प्रत्यन्तः। आव०६९३| ૨૮રા. प्रत्ययन्तकः-नीचकः। आव०५५७। प्रत्यन्तः। आव० पगिज्झियपगिज्झिय- प्रगृह्य प्रगृह्य- पौनःपुन्येन ८१५। प्रत्यन्तः-सीमासन्धिवर्ती। व्यव० १७० आ। प्रसार्य। आचा० ३४११ पच्चंतगाम- प्रत्यन्तग्रामः। आव० ३५१ पग्गह- प्रग्रहः-रश्मी। भग०४५९। पग्रहः-उपादेयवाक्यः। पच्चंतणगर- प्रत्यन्तनगरं, शिक्षायोगदृष्टान्ते उत्त०६१९। प्रग्रहः-प्रकर्षणगृह्यते वचो प्रग्रहः-ग्राह्य- जितशत्रुराज-धानी। आव०६७८। वाक्योनायकः। आचा०८९। प्रगृह्यते-उपादीयते आदेय- | पच्चंतणयर- प्रत्यन्तनगर-नीचनगरम्। आव०७१९। वचनत्वाद्यः स प्रग्रहः ग्राह्यवाक्यो-नायकः। स्था० ३। | पच्चंतराया- प्रत्यन्तराजः। आव० १७३। प्रकर्षण गुह्णाती प्रग्रहः। ओघ० २०७। प्रग्रहः। उपा० । पच्चंता- प्रत्यन्तः, म्लेच्छाद्युपद्रवोपेतः। बृह. २३१ अ। प्रत्यन्ताः-सीमावर्तिनः। व्यव०। पग्गहठाण- प्रग्रहस्थानं-यद्यस्यायुधस्य ग्रहणस्थानम्। पच्चंति- प्रत्यन्तदेशः-म्लेच्छादयुपद्रवोपेतः। ओघ०६३। उत्त०४२२ पच्यन्ते । दशवै. ८७ निशी. ९ अ। पग्गहित- प्रगृहीतं आदरप्रतिपन्नत्वात्। स्था० २४७। पच्चंतिय- प्रत्यन्तः। आव० ३५८१ पग्गहिय- प्रगृहीतं-भोजनार्थमत्पाटितम्, प्रकर्षण पंच्चंतियविसए-देसविसेसो। निशी० २०८ आ। गृहीत्वादौ-धिकम्। औप० ३७। प्रगृहीतः पच्चंतियसुणओ- प्रत्यन्तिकश्वा। आव० ७११। बहुमानप्रकर्षादाश्रितः। भग० १२५। प्रगृहीतः- पच्चइग- प्रत्ययितः। आव० ६९४। बहुमानप्रकर्षाद् गृहीतः। ज्ञाता० ७६| पच्चइय- प्रत्ययः-कारणम्। आव० २७। प्रत्ययः-कारणं पग्गहियतर- प्रगृहीततरम्। आचा० ३७४। शपथः ज्ञानं हेतुः विश्वासः निश्चयश्च। नन्दी० ७६। पग्गहियतरगं- प्रगृहीततरकं-प्रकर्षण गृहीततरं पच्चए- प्रत्ययः-प्रतीतिरविसंवादिवचनम्। ज्ञाता० २२॥ प्रगृहीततरं तदेव प्रगृहीततरकम्। आच० २९२। पच्चओ- प्रत्ययः-कारणम्। प्रज्ञा० ५३९। प्रत्ययः। उत्त. पग्गहिया- प्रगृहीता नाम भजनवेलायां दातुमभ्युद्यते १०३ करादिना प्रगृहीतं यद्भोजनजातं भोक्तं वा स्वहस्तादिना | पच्चक्खं- इन्द्रियार्थसंनिकर्षोत्पन्नं तद् गृण्हतः। षष्ठी पिण्डैषणा। स्था० ३८७। जं ज्ञानमव्यपदेश्यमव्यभिचारि व्यवसायात्मकं असणादिगं भोत्तुकामेण कंसादिभायणे गहियं यत्रात्मार्थग्रहणं प्रति साक्षाद् व्याप्रियते तदेव प्रत्यक्षम्। भंजामित्ति असंसट्ठिए चेव साधु आगतो तं चेव देति सूत्र. २२५। प्रत्यक्ष-साक्षात्। आचा० ३० अश्नातिएस पग्गहिया। निशी० १२अ। प्रगृहीता अश्नते-व्याप्नोति अर्थानिति अक्षः-आत्मा तं प्रति प्रकर्षणाभ्युपगता। अनुत्त० ३॥ यद्वर्तते ज्ञानं तत् प्रत्यक्ष पग्गहीय- प्रगृहीतं-भोजनार्थम्त्पाटितमिति। स्था० ४६५। निश्चयतोऽवधिमनःपर्यायकेवलानि, अक्षाणि पघंसणं-पुणो पुणो पघंसणं। निशी० ११९अ। वेन्द्रियाणि प्रति यत्तत्प्रत्यक्षव्यवहारतः चक्षुरादिप्रपककाण्ड- रत्नप्रभायां दवितीयकाण्डम्। सम०८८1 भवम्। स्था० २६३। श्नुते-ज्ञानात्मना अर्थान्-व्याप्नो मुनि दीपरत्नसागरजी रचित [159] "आगम-सागर-कोषः" [३]

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