Book Title: Agam 36 Chhed 03 Vyavahara Sutra Bhashya Author(s): Sanghdas Gani, Kusumpragya Shramani Publisher: Jain Vishva BharatiPage 16
________________ प्रकाशकीय वि. सं. २०१२ का चातुर्मास उज्जैन में हुआ। उससे पूर्व जब गणाधिपति श्री तुलसी यात्रा पर थे तब आगम-संपादन का स्वप्न संजोया। स्वप्न साकार हुआ। आज आगम-संपादन के कार्य को ४० वर्ष हो गए। इस अवधि में बत्तीस आगमों (११ अंग, १२ उपांग, ४ मूल, ४ छेद और एक आवश्यक) का मूल पाठ संपादित होकर प्रकाश में आया। इनका शब्द-इन्डेक्स भी प्रकाशित हो गया तथा अन्यान्य अनेक आगमों का सटिप्पण हिन्दी अनुवाद भी संपन्न हुआ। अभी-अभी भगवती भाष्य तथा आचारांग भाष्य का भी प्रकाशन हुआ और उनका अंग्रेजी रूपान्तरण प्रकाशनाधीन है। इसी बीच चार कोश-(१) एकार्थककोश, (२) निरुक्तकोश, (३) दशीशब्दकोश, (४) जैन आगम वनस्पतिकोश भी प्रकाशित हुए। सांप्रतं श्रीभिक्ष आगम विषय कोश का प्रकाशन संपन्नता पर है। ___ व्यवहार भाष्य के संपादन की वात गुरुदेव ने सोची और इस कार्य का दायित्व समणी कुसुमप्रज्ञाजी को दिया गया। पूर्व प्रकाशित सटीक व्यवहार भाष्य अस्त-व्यस्त तथा त्रुटिपूर्ण लगा। तब समणीजी ने अनेक हस्तप्रतियों से पाठ का अनुसंधान कर, सही पाठ का निर्धारण और तदनुरूप उसकी विमर्शयुक्त स्वीकृति को अंकित किया। हस्तप्रतियों से पाठ का निर्धारण सहज-सरल नहीं था। जितने आदर्श उतने ही पाठ-भेद। ऐसी स्थिति में पौर्वापर्य तथा अन्य छेद ग्रन्थों के आधार पर पाठ का निर्धारण कर व्यवहार भाष्य को अंतिम रूप दिया। भाष्यगाथाएं और नियुक्तिगाथाएं एक साथ होने के कारण उनका पृथक्करण करना बहुत जटिल था। फिर भी उन्होंने अपनी कुछेक कसौटियां बना कर नियुक्ति गाथाओं को अलग कर दिया। यह एक दुरूह कार्य था, परन्तु गुरुकृपा से उन्होंने कार्य इस कार्य को सफलतापूर्वक संपादित कर ही दिया। इस ग्रन्थ में पाठ-संपादन तथा पाठ-विमर्श की विशेषता तो है ही, साथ ही साथ इस ग्रन्थ में संदृब्ध २३ परिशिष्ट इस ग्रन्थ की महत्ता को बताते हुए समणीजी के परिश्रम को उजागर करते हैं। इसकी बृहद्काय भूमिका-'व्यवहार एक अनुशीलन' -भी एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है और पूरे व्यवहार भाष्य का प्रतिबिम्ब प्रस्तुत कर देता है। समणीजी ने अपनी सूक्ष्म संधित्सा के आलोक में ग्रन्थगत अनेक सूक्ष्मताओं को अनावृत किया है। हमें लगा कि अनेक अपेक्षित-अनपेक्षित कारणों से श्रम और समय की दीर्घता ने निराशा के भाव उत्पन्न किए, परंतु समणीजी की अपनी धीरता और कार्यनिष्ठा ने निराशा को क्रियान्वित नहीं होने दिया। शोधकार्य धैर्य-सापेक्ष है। वह तभी निष्ठा तक पहुंचता है जब शोधार्थी चंचल न हो, अधीर न हो। समणीजी में ये दोनों गुण हैं। ग्रन्थ की संपूर्ण समायोजना से उनके कर्तृत्व की यथार्थ झांकी प्राप्त हो जाती है। नारी जाति द्वारा निष्पन्न यह कृति अवश्य ही एक महान् अवदान माना जाएगा। गुरुदेव श्री तुलसी और आचार्य महाप्रज्ञ ने नारी जाति को विद्या के क्षेत्र में अहमहमिकया बढ़ने का जो साहस और बुद्धि-वैभव दिया है वह युगयुगान्त तक याद किया जाता रहेगा। ___ ग्रन्थ की संपूर्ण समायोजना में मुनि श्री दुलहराजजी का अविकल योग रहा है। उनके सतत दिशा-निर्देशन एवं परामर्श के अभाव में इस महान् ग्रन्थ की यह प्रस्तुति कदापि संभव नहीं हो पाती। जैन विश्व भारती के उपमंत्री श्रीयुत् कुशलराजजी समदड़िया की कार्यनिष्ठा और श्रमशीलता इस ग्रन्थ की संपूर्ति में पूर्ण सहायक रही है। तदर्थ उनको साधुवाद । जैन विश्व भारती, लाडनूं विकास महोत्सव सितम्बर १६६६ ताराचन्द रामपुरिया मंत्री जैन विश्व भारती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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