Book Title: Agam 32 Chulika 01 Anuyogdwar Sutra Stahanakvasi
Author(s): Aryarakshit, Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 12
________________ है, संकलन है। आगम शब्द बहुत ही पवित्र और व्यापक अर्थगरिमा को अपने-आप में समेटे हुए हैं। स्थूल दृष्टि से भले ही आगम और ग्रन्थ पर्यायवाची शब्द रहे हों पर दोनों में गहरा अन्तर है। आगम 'सत्यं शिवं सुन्दरं' की साक्षात् अनुभूति की अभिव्यक्ति है। वह अनन्त सत्य के द्रष्टा, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, वीतराग तीर्थंकरों की विमल वाणी का संकलन-आकलन है। जबकि ग्रन्थों व पुस्तकों के लिए यह निश्चित नियम नहीं है। वह राग-द्वेष के दलदल में फंसे हुए विषय-कषाय की आग में झुलसते हुए, विकार और वासनाओं से संत्रस्त व्यक्ति के विचारों का संग्रह भी हो सकता है। उसमें कमनीय कल्पना की ऊँची उड़ान भी हो सकती है पर वह केवल वाणी का विलास है, शब्दों का आडम्बर है, किन्तु उसमें अन्तरंग की गहराई नहीं है। जैन आगम में सत्य का साक्षात् दर्शन है, जो अखण्ड है, सम्पूर्ण व समग्र मानवचेतना को संस्पर्श करता है। सत्य के साथ शिव का मधुर सम्बन्ध होने से वह सुन्दर ही नहीं, अतिसुन्दर है। वह आर्षवाणी तीर्थंकर या ऋषियों की वाणी है। यास्क ने ऋषि की परिभाषा करते हुए लिखा है—'जो सत्य का साक्षात् द्रष्टा है, वह ऋषि है'। प्रत्येक साधक ऋषि नहीं बन सकता, ऋषि वह है जिसने तीक्ष्ण प्रज्ञा, तर्कशुद्ध ज्ञान से सत्य की स्पष्ट अनुभूति की है। यही कारण है कि वेदों में ऋषि को मंत्रद्रष्टा कहा है। मंत्रद्रष्टा का अर्थ है—साक्षात् सत्यानुभूति पर आधृत शिवत्व का प्रतिपादन करने वाला सर्वथा मौलिक ज्ञान। वह आत्मा पर आई हुई विभाव परिणतियों के कालुष्य को दूर कर केवलज्ञान और केवलदर्शन से स्व-स्वरूप को आलोकित करता है। जो यथार्थ सत्य का परिज्ञान करा सकता है, आत्मा का पूर्णतया परिबोध करा सके, जिससे आत्मा पर अनुशासन किया जा सके, वह आगम है। उसे दूसरे शब्दों में शास्त्र और सूत्र भी कह सकते हैं। जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने विशेषावश्यकभाष्य में लिखा है जिसके द्वारा यथार्थ सत्य रूप ज्ञेय का, आत्मा का परिबोध हो एवं आत्मा का अनुशासन किया जा सके, वह शास्त्र है। शास्त्र शब्द शास् धातु से निर्मित हुआ है, जिसका अर्थ है—शासन, शिक्षण और उद्बोधन । जिस तत्त्वज्ञान से आत्मा अनुशासित हो, उबुद्ध हो, वह शास्त्र है। जिससे आत्मा जागृत होकर तप, क्षमा एवं अहिंसा की साधना में प्रवृत्त होती है, वह शास्त्र है और जो केवल गणधर, प्रत्येकबुद्ध, श्रुतकेवली और अभिन्न दशपूर्वी के द्वारा कहा गया है, वह सूत्र है। दूसरे शब्दों में जो ग्रन्थ प्रमाण से अल्प, अर्थ की अपेक्षा महान्, बत्तीस दोषों से रहित, लक्षण तथा आठ गुणों से सम्पन्न होता हुआ सारवान् अनुयोगों से सहित, व्याकरणविहित, निपातों से रहित, अनिंद्य और सर्वज्ञ कथित है, वह सूत्र है। ४. ऋषिदर्शनात्। —निरुक्त २/११ साक्षात्कृतधर्माणो ऋषयो बभूवुः । —निरुक्त १/२० 'सासिज्जए तेण तहिं वा नेयमावावतो सत्थं' टीका-शासु अनुशिष्टौ शास्यते ज्ञेयमात्मा वाऽनेनास्मादस्मिन्निति वा शास्त्रम्। —विशेषावश्यकभाष्य, गाथा १३८४ सुत्तं गणधरकधिदं तहेव पत्तेयबुद्धकधिदं च । सुदकेवलिणा कधिदं अभिण्णदसपुव्वि कधिदं च ॥ —मूलाचार, ५/८० अप्पग्गंथ महत्थं बत्तीसा दोसविरहियं जं च । लक्खणजुत्तं सुत्तं अटेहि गुणेहि उववेयं ॥ अप्पक्खरमसंदिद्धं च सारवं विस्सओ मुहं । अत्थोभमणवजं च सुत्तं सव्वण्णुभासियं ॥ —आव. नियुक्ति, ८८०, ८८६ [९]

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