Book Title: Agam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Atmagyan Pith

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Page 20
________________ अध्ययन १. विनय श्रुत २. परीषह प्रविभक्ति ३. चतुरंगीय ४. असंस्कृत ५. अकाममरणीय ६. शुल्लक निर्ग्रन्थीय ७. उरप्रीय ८. कापिलीय ९. नमिप्रव्रज्या १०. द्रुमपत्रक ११. बहुश्रुत १२. हरिकेशीय १३. चित्त सम्भूतीय १४. इपुकारीय १५. सभिक्षुक १६. ब्रह्मचर्य समाधि स्थान १७. पाप श्रमणीय १८. संजतीय १९. मृगापुत्रीय २०. महानिर्ग्रन्धीय २१. समुद्रपालीय २२. रथनेमीय २३. केशि- गौतमीय २४. प्रवचन-माता २५. यज्ञीय २६. सामाचारी २७. खलुकीय २८. मोक्षमार्ग- गति २९. सम्यक्त्व- पराक्रम ३०. तपोमार्ग-गति ३१. चरण विधि ३२. अप्रमाद स्थान ३३. कर्म प्रकृति ३४. लेश्याध्ययन ३५. अनगार-मार्ग- गति ३६. जीवाजीव-विभक्ति Jain Education International (14) अनुक्रम विषय विनय का स्वरूप प्राप्त कष्ट सहने की प्रेरणा चार दुर्लभ अंगों का प्रतिपादन प्रमाद और अप्रमाद का प्रतिपादन अकाम और सकाम मरण का विवेक अविद्या से दुःख, विद्या से मुक्ति रस- गृद्धि का परित्याग लोभ - विजय का उपदेश संयम में निष्कम्प आत्म एकत्वभाव जीवन-जागृति का सन्देश बहुश्रुत - पूजा : ज्ञान की महिमा तप का अद्भुत ऐश्वर्य निदान भोग संकल्प के कटुफल भोग विरक्ति : त्याग का कण्टक पथ पिक्षु के गुण ब्रह्मचर्य की गुप्तियाँ पंचाचार में पाप वर्जन हिंसा त्याग : अभय का मार्ग देहाध्यास का परित्याग मृगचर्या सनाथ अनाथ का विवेक कृत कर्म का फल संयम में स्थिरीकरण धर्म की कसौटी - प्रज्ञा-विवेक प्रवचन - माता ( समिति - गुप्ति) आत्मयज्ञ: सच्चा ब्राह्मण सामाचारी (कर्तव्य-दिदेक) : विनय अनुशासन सरलता मोक्ष-मार्ग का सम्यक् स्वरूप सम्यक् पथ पर अप्रमत्त पराक्रम तप का सर्वांग स्वरूप चारित्र के विविध अंगोपांग प्रमाद - आसक्ति : अनासक्ति - वीतरागता कर्म-प्रकृति लेश्या का स्वरूप भिक्षु के गुण जीव-अजीव का परिबोध For Private & Personal Use Only गाथाक्रम १-४८ ४९-९६ ९७-११६ ११७-१२९ १३०-१६१ १६२-१७८ १७९ २०८ २०९-२२८ २२९-२९० २९१-३२७ ३२८-३५९ ३६०-४०६ ४०७-४४१ ४४२-४९४ ४९५-५१० ५११-५२९ ५३० ५५० ५५१-६०४ ६०५-७०३ ७०४-७६३ ७६४-७८७ ७८८-८३६ ८३६-९२५ ९२६-९५२ ९५३-९९५ ९९६ १०४७ १०४८-१०६४ १०६५-११०० पृष्ठ ३ १८ ३४ ४१ ४७ ५७ ६३ ७६ ८५ १०१ १११ १२१ १४० १५७ १७३ १८१ १९६ २०४ २१९ २४२ २५९ २६७ २८२ ३०२ ३१० ३२२ ३३७ ३४३ ३५५ ३८९ ४०४ ११०१-११७६ ११७७-१२१३ १२१४-१२३४ १२३५-१३४५ ४१८ १३४६-१३७० ४४७ १३७१-१४३१ ४५७ १४३२-१४५२ ४७५ १४५३-१७२० ४८३ www.jainelibrary.org

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