Book Title: Agam 21 Pushpika Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 11
________________ आगम सूत्र २१,उपांगसूत्र-१०, 'पुष्पिका' अध्ययन/सूत्रकावड़ को रखा वेदिका-को साफ किया, इत्यादि पूर्ववत् । तब मध्यरात्रि में सोमिल ब्रह्मर्षी के समक्ष पुनः देव प्रकट हुआ और आकाश में स्थित होकर पूर्ववत् कहा परन्तु सोमिल ने उस देव की बात पर कुछ ध्यान नहीं दिया । यावत् वह देव पुनः वापिस लौट गया । इसके बाद वल्कल वस्त्रधारी सोमिल ने सूर्य के प्रकाशित होने पर अपने कावड़ उपकरण आदि लिए । काष्ठमुद्रा से मुख को बाँधा और मुख बाँधकर उत्तर की ओर मुख करके उत्तर दिशा में चल दिये । तदनन्तर वह सोमिल ब्रह्मर्षी तीसरे दिन अपराह्न काल में जहाँ उत्तम अशोक वृक्ष था, वहाँ आए । कावड़ रखी । बैठने के लिए वेदी बनाई और दर्भयुक्त कलश को लेकर गंगा महानदी में अवगाहन किया । अग्निहवन आदि किया फिर काष्ठमुद्रा से मुख को बाँधकर मौन बैठ गए। तत्पश्चात् मध्यरात्रि में सोमिल के समक्ष पुनः एक देव प्रकट हुआ और उसने उसी प्रकार कहा-'हे प्रव्रजित सोमिल ! तेरी यह प्रव्रज्या दुष्प्रव्रज्या है । यावत् वह देव वापिस लौट गया । इसके बाद सूर्योदय होने पर वह वल्कल वस्त्रधारी सोमिल कावड़ और पात्रोपकरण लेकर यावत् काष्ठमुद्रा से मुख को बाँधकर उत्तराभिमुख होकर उत्तर दिशा की ओर चल दिया। तदनन्तर चलते-चलते सोमिल ब्रह्मर्षी चौथे दिवस के अपराह्न काल में जहाँ वट वृक्ष था, वहाँ आए । नीचे कावड़ रखी । इत्यादि पूर्ववत् । मध्यरात्रि के समय पुनः सोमिल के समक्ष वह देव प्रकट हुआ और उसने कहा'सोमिल ! तुम्हारी प्रव्रज्या दुष्प्रव्रज्या है । ऐसा कहकर वह अन्तर्धान हो गया । रात्रि के बीतने के बाद और जाज्वल्यमान तेजयुक्त सूर्य के प्रकाशित होने पर वह वल्कल वस्त्रधारी वह यावत् उत्तर दिशा में चल दिए। तत्पश्चात् वह सोमिल ब्रह्मर्षी पाँचवे दिन के चौथे प्रहर में जहाँ उदुम्बर का वृक्ष था, वहाँ आए । कावड़ रखी । यावत् मौन होकर बैठ गए । मध्यरात्रि में पुनः सोमिल ब्राह्मण के समीप एक देव प्रकट हुआ और कहा-'हे सोमिल! तुम्हारी यह प्रव्रज्या दुष्प्रव्रज्या है । इसके बाद देव ने दूसरी और तीसरी बार भी इसी प्रकार कहा-तब सोमिल ने देव से पूछा-'देवानुप्रिय ! मेरी प्रव्रज्या दुष्प्रव्रज्या क्यों है ?' देव ने कहा-तुमने पहले पुरुषादानीय पार्श्व अर्हत् से पंच अणुव्रत और सात शिक्षाव्रत रूप बारह प्रकार का श्रावकधर्म अंगीकार किया था । किन्तु इसके बाद सुसाधुओं के दर्शन उपदेश आदि का संयोग न मिलने और मिथ्यात्व पर्यायों के बढ़ने से अंगीकृत श्रावकधर्म को त्याग दिया । यावत् तुमने दिशाप्रोक्षिक प्रव्रज्या धारण की। यावत् जहाँ अशोक वृक्ष था, वहाँ आए और कावड़ रख वेदी आदि बनाई । यावत् मध्यरात्रि के समय मैं तुम्हारे समीप आया और तुम्हें प्रतिबोधित किया-'हे सोमिल ! तुम्हारी यह प्रव्रज्या दुष्प्रव्रज्या है। किन्तु तुमने उस पर ध्यान नहीं दिया और मौन ही रहे । इस प्रकार चार दिन तक समझाया, आज पाँचवे दिवस चौथे प्रहर में इस उदुम्बर वृक्ष के नीचे आकर तुमने अपन कावड़ रखा । यावत् तुम मौन होकर बैठ गए । इस प्रकार से हे देवानुप्रिय! तुम्हारी यह प्रव्रज्या दुष्प्रव्रज्या है। ___ यह सब सूनकर सोमिल ने देव से कहा-'अब आप ही बताइए कि मैं कैसे सुप्रव्रजित बनें ?' देव ने सोमिल ब्राह्मण से कहा-'देवानुप्रिय ! यदि तुम पूर्व में ग्रहण किए हुए पाँच अणुव्रत और सात शिक्षाव्रत रूप श्रावकधर्म को स्वयमेव स्वीकार करके विचरण करो तो तुम्हारी यह प्रव्रज्या सुप्रव्रज्या होगी । इसके बाद देव ने सोमिल ब्राह्मण को वन्दन-नमस्कार किया और अन्तर्धान हो गया । पश्चात् सोमिल ब्रह्मर्षी देव के कथनानुसार पूर्व में स्वीकृत पंच अणुव्रतों को अंगीकार करके विचरण करने लगे। तत्पश्चात् सोमिल ने बहुत से चतुर्थभक्त, षष्ठभक्त, अष्टमभक्त, यावत् अर्धमासक्षपण, मासक्षपण रूप विचित्र तपःकर्म से अपनी आत्मा को भावित करते हुए श्रमणोपासक पर्याय का पालन किया । अंत में अर्धमासिक संलेखना द्वारा आत्मा की आराधना कर और तीस भोजनों का अनशन द्वारा त्याग कर किन्तु पूर्वकृत उस पापस्थान की आलोचना और प्रतिक्रमण न करके सम्यक्त्व की विराधना के कारण कालमास में काल किया । शुक्रावतंसक विमान की उपपातसभा में स्थित देवशैया पर यावत् अंगुल के असंख्यातवें भाग की जघन्य अवगाहना से शुक्रमहाग्रह देव के रूप में जन्म लिया । वह शुक्रमहाग्रह देव यावत् पाँचों पर्याप्तियों से पर्याप्त भाव मुनि दीपरत्नसागर कृत् “ (पुष्पिका) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 11

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