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आगम सूत्र २१, उपांगसूत्र- १०, 'पुष्पिका'
अध्ययन / सूत्र
चावलों का अग्नि में हवन किया और चरु तैयार किया तथा नित्य यज्ञ कर्म किया । अतिथिपूजा की और उस के बाद स्वयं आहार ग्रहण किया ।
सूत्र - ७
तत्पश्चात् उन सोमिल ब्रह्मर्षी ने दूसरा षष्ठक्षपण अंगीकार किया। पारणे के दिन भी आतापनाभूमि से नीचे ऊतरे, वल्कल वस्त्र पहने यावत् आहार किया, इतना विशेष है कि इस बार वे दक्षिण दिशा में गए और कहा-'हे दक्षिण दिशा के यम महाराज ! प्रस्थान के लिए प्रवृत्त सोमिल ब्रह्मर्षी की रक्षा करें और यहाँ जो कन्द, मूल आदि हैं, उन्हें लेने की आज्ञा दें, ऐसा कहकर दक्षिण में गमन किया। तदनन्तर उन सोमिल ब्रह्मर्षी ने तृतीय बेला किया। पारणे के दिन भी पूर्वोक्त सब विधि की । किन्तु पश्चिम दिशा की पूजा की ।
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कहा-'हे पश्चिम दिशा के लोकपाल वरुण महाराज ! परलोक-साधना में प्रवृत्त मुझ सोमिल ब्रह्मर्षी रक्षा करें ।' इत्यादि इसके बाद चतुर्थ बेला तप किया। पारणा के दिन पूर्ववत् सारी विधि की । विशेष यह है कि इस बार उत्तर दिशा की पूजा की और इस प्रकार प्रार्थना की- ' हे उत्तर दिशा के लोकपाल वैश्रमण महाराज ! परलोकसाधना में प्रवृत्त मुझ सोमिल ब्रह्मर्षी की रक्षा करें ।' इत्यादि यावत् उत्तर दिशा का अवलोकन किया आदि। इस चारों दिशाओं का वर्णन, आहार किया तक का वृत्तान्त पूर्ववत् जानना ।
इसके बाद किसी समय मध्यरात्रि में अनित्य जागरण करते हुए उन सोमिल ब्रह्मर्षी के मन में इस प्रकार का यह आन्तरिक विचार उत्पन्न हुआ मैं वाराणसी नगरी का रहने वाला, अत्यन्त उच्चकुल में उत्पन्न सोमिल ब्रह्मर्षी हूँ | मैंने गृहस्थाश्रम में रहते हुए व्रत पालन किया है, यावत् यूप-गड़वाए। इसके बाद आम के यावत् फूलों के बगीचे लगवाए । तत्पश्चात् प्रव्रजित हुआ । प्रव्रजित होने पर षष्ठ- षष्ठभक्त तपःकर्म अंगीकार करके दिक् चक्रवाल साधना करता हुआ विचरण कर रहा हूँ। लेकिन अब मुझे उचित है कि कल सूर्योदय होते ही बहुत से दृष्ट -भाषित, पूर्व संगतिक, और पर्यायसंगतिक तापसों से पूछकर और आश्रमसंश्रित अनेक शत जनों को वचन आदि से संतुष्ट कर और उनसे अनुमति लेकर वल्कल वस्त्र पहनकर, कावड़ की छबड़ी में अपने भाण्डोपकरणों को कर तथा काष्ठमुद्रा से मुख को बाँधकर उत्तराभिमुख होकर उत्तर दिशा में महाप्रस्थान करूँ ।
इस प्रकार विचार करने के पश्चात् कल यावत् सूर्य के प्रकाशित होने पर उन्होंने सभी दृष्ट भाषित, पूर्वसंगतिक और तापस पर्याय के साथियों आदि से पूछकर तथा आश्रमस्थ अनेक शत-प्राणियों को संतुष्ट कर अंत में काष्ठमुद्रा से मुख को बाँधा । इस प्रकार का अभिग्रह लिया- चाहे वह जल हो या स्थल हो अथवा नीचा प्रदेश, पर्वत अथवा विषम भूमि, गड्ढा हो या गुफा, इन सब में से जहाँ कहीं भी प्रस्खलित होऊं या गिर जाऊं वहाँ से मुझे उठना नहीं कल्पता है ।
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तत्पश्चात् उत्तराभिमुख होकर महाप्रस्थान के लिए प्रस्थित वह सोमिल ब्रह्मर्षी उत्तर दिशा की ओर गमन करते हुए अपराह्न काल में जहाँ सुन्दर अशोक वृक्ष था, वहाँ आए। अपना कावड़ रखा। अनन्तर वेदिका साफ की, उसे लीप-पोत कर स्वच्छ किया, फिर डाभ सहित कलश को हाथ में लेकर जहाँ गंगा महानदी थी, वहाँ आए और शिवराजर्षि के समान उस गंगा महानदी में स्नान आदि कृत्य कर वहाँ से बाहर आए। फिर शर और अरणि बनाई, अग्नि पैदा की इत्यादि । अग्नियज्ञ करके काष्ठमुद्रा से मुख को बाँधकर मौन होकर बैठ गये ।
तदनन्तर मध्यरात्रि के समय सोमिल ब्रह्मर्षी के समक्ष एक देव प्रकट हुआ। उस देव ने सोमिल ब्रह्मर्षी से कहा-'प्रव्रजित सोमिल ब्राह्मण ! तेरी यह प्रव्रज्या दुष्प्रव्रज्या है ।' उस देव ने दूसरी और तीसरी बार भी ऐसा ही कहा । किन्तु सोमिल ब्राह्मण ने उस देव की बात का आदर नहीं किया- यावत् मौन ही रहे। इसके बाद उस सम ब्रह्मर्षि द्वारा अनादृत वह देव वापिस लौट गया । तत्पश्चात् कल यावत् सूर्य के प्रकाशित होने पर वल्कल वस्त्रधारी सोमिल ने कावड़, भाण्डोपकरण आदि लेकर काष्ठमुद्रा से मुख को बाँधा । बाँधकर उत्तराभिमुख हो उत्तर दिशा की ओर प्रस्थान कर दिया ।
इसके बाद दूसरे अपराह्न काल के अंतिम प्रहर में सोमिल ब्रह्मर्षी जहाँ सप्तपर्ण वृक्ष था, वहाँ आये ।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (पुष्पिका)" आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद"
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