Book Title: Agam 09 Anuttaropapatik Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र ९, अंगसूत्र-९, 'अनुत्तरोपपातिकदशा'
वर्ग/अध्ययन/ सूत्रांक गए। अंगुलियाँ भी सूख कर कलाय, मूंग अथवा माष की मुरझाई हुई फलियाँ समान उनकी अंगुलियाँ भी माँस और रुधिर के अभाव से मुरझा कर सूख गई थीं । ग्रीवा माँस और रुधिर के अभाव से सूख कर सुराई, कण्डिका और किसी ऊंचे मुख वाले पात्र समान दिखाई देती थी । उनका चिबुक भी इसी प्रकार सूख गया था और तुम्बे या हकुब के फल अथवा आम की गुठली जैसा हो गया था । ओठों भी सूख कर सुखी हुई जोंक होती अथवा श्लेष्म या मेंहदी की गुटिका जैसे हो गए । जिह्वा में भी बिलकुल रक्त का अभाव हो गया था, वह वटवृक्ष अथवा पलाश के पत्ते या सूखे हुए शाक के समान हो गए थे।
धन्य अनगार की नासिका तप के कारण सूख कर एक आम, आम्रातक या मातुलुंग फल की कोमल फांक काट कर धूप में सुखाई हो ऐसी हो गई । धन्य अनगार की आँखें वीणा के छिद्र अथवा प्रभातकाल का टिमटिमाता हुआ तारा समान भीतर धंस गईं थीं । कान मूली का छिल्का अथवा चिर्भटी की छाल या करेले का छिल्का समान सूखकर मुरझा गये थे। शिड़ सुखे हुए कोमल तुम्बक, कोमल आलू और सेफालक समान सूख गया था, रूखा हो गया था और उसमें केवल अस्थि, चर्म और नासा-जाल ही दिखाई देता था किन्तु माँस और रुधिर नामात्र के लिए भी नहीं रह गया था । इसी प्रकार सब अङ्गों के विषय में जानना चाहिए । विशेषता केवल इतनी है कि उदरभाजन, कान, जिह्वा और ओंठ इनके विषय में अस्थि' नहीं कहना चाहिए।
धन्य अनगार माँस आदि के अभाव से सूखे हुए और भूख के कारण रूखे पैर, जङ्घ और उरु से, भयङ्कर रूप से प्रान्त भागों में उन्नत हुए कटि-कटाह से, पीठ के साथ मिले हुए उदर-भाजन से, पृथक् पृथक् दिखाई देती हुई पसलियों से, रुद्राक्ष-माला के समान स्पष्ट गिनी जाने वाली पृष्ट-करण्डक की सन्धियों से, गङ्गा की तरंगों के समान उदर-कटक के प्रान्त भागों से, सूखे हुए साँप के समान भुजाओं से, घोड़े की ढीली लगाम के समान चलते हुए हाथों से, कम्पनवायु रोग वाले पुरुष के शरीर के समान काँपती हुई शीर्ष-घटी से, मुरझाए हुए मुखकमल से क्षीण-ओष्ठ होने के कारण घड़े के मुख के समान विकराल मुख से और आँखों के भीतर धंस जाने के कारण इतना कृश हो गया था कि उसमें शारीरिक बल बिलकुल भी बाकी नहीं रह गया था । वह केवल जीव के बल से ही चलता, फिरता और खड़ा होता था । थोड़ा सा कहने के लिए भी वह स्वयं खेद मानता था । जिस प्रकार एक कोयलों की गाड़ी जलते हुए शब्द करती है, इसी प्रकार उसकी अस्थियाँ भी चलते हुए शब्द करती थीं । वह स्कन्दक के समान हो गया था । भस्म से ढकी हुई आग के समान वह भीतर से दीप्त हो रहा था । वह तेज से, तप से और तप-तेज की शोभा से शोभायमान होता हआ विचरता था। सूत्र-११
उस काल और उस समय में राजगृह नगर था । गुणशैलक चैत्य था । श्रेणिक राजा था । उसी काल और उसी समय में श्री श्रमण भगवान महावीर स्वामी उक्त चैत्य में बिराजमान हुए । यह सूनकर पर्षदा नीकली, भगवान की सेवा में उपस्थित हुई, श्रेणिक राजा भी उपस्थित हुआ। भगवान ने धर्म-कथा सुनाई और लोग वापिस चले गए। श्रेणिक राजा ने इस कथा को सूनकर भगवान को वन्दना और नमस्कार कर के कहा-'हे भगवन् ! इन्द्रभूति-प्रमुख चौदह हजार श्रमणों में कौन सा श्रमण अत्यन्त कठोर तप का अनुष्ठान करने वाला और सबसे बड़ा कर्मों की निर्जरा करने वाला है ?" "हे श्रेणिक ! धन्य अनगार अत्यन्त कठोर तप का अनुष्ठान करने वाला और सबसे बड़ा कर्मों की निर्जरा करने वाला है।'' 'हे भगवन् ! किस कारण से आप कहते हैं ?'' ''हे श्रेणिक ! उस काल और उस समय में काकन्दी नगरी थी। उसके बाहर सहस्राम्रवन नाम का उद्यान था। इसी समय कभी पूर्वानुपूर्वी से विचरता हुआ, एक ग्राम से दूसरे ग्राम में विहार करता हुआ मैं जहाँ काकन्दी नगरी सहस्राम्रवन उद्यान था वहीं पहँच गया और यथा प्रतिरूप अवग्रह लेकर संयम और तप के द्वारा अपनी आत्मा की भावना करते हुए वहीं पर विचरने लगा । नगरी की जनता यह सूनकर वहाँ आई और मैंने धर्म-कथा सुनाई । धन्य के ऊपर इसका विशेष प्रभाव पड़ा और वह तत्काल ही गृहस्थ को छोड़कर साधु-धर्म में दीक्षित हो गया।
उसने तभी से कठोर-व्रत धारण कर लिया और केवल आचम्ल से पारणा करने लगा । वह जब आहार
मुनि दीपरत्नसागर कृत्' (अनुत्तरोपपातिकदशा)- आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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