Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Churni
Author(s): Jindasgani Mahattar
Publisher: Jindas Mahattar

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Page 348
________________ I मानप्रत्ययं श्रीसूत्रकताङ्गचूर्णिः ॥३४५॥ तासु तासु उच्चनियतासु गतिसु, उपपद्यत इत्यनर्थान्तरं, रंगनट इव, सो चेव राया भवति, सो चेव राया भवित्ता सोचेव दासः, सो चेव इत्थीवि, को वा तस्स माणो ?, एवं जीवोवि एगता खत्तिओ, अथवा यत्र परवशता तत्र को मानः, सर्वः कर्मवशेन, | एवं गम्भाओ गम्भं गम्भाओ अगम्भं अगम्भाओ गम्भं अगम्भाओ अगभं, मणुस्सपंचेंदियाणं गम्भो सेसाण अगम्भो, जम्माओ जम्मं एवं एकभंगो, णरगाओ णरगं चतुभंगो, यावत्खकर्मवशादेव सुखी भवति दुःसीवा, मृतथ कर्मभिरेव शोभनामशोभनां गतिं नीयते. उक्तं हि-'आकडणं कर्मा, कर्मणं विफड़ती'ति, एतद्भावे उत्कर्षापकों को नाम?, जो पुण मानी तस्स अवमानितस्स रोसो भवति तेनोच्यते-चंडे थद्धे चंडे कोधीत्यर्थः, जात्यादिधर्मः स्तब्धः, अवमाणितो णिसमा रुस्सति, रुद्वोऽपि माणंपि. I का गतिः तेन ?, क्रोधमानयोनित्यमन्योऽन्यस्य विद्यते, चवले नाम० अगंभीरे, मुहुत्तेण अवमाणितो रुस्सति थरथरेति अकोसति जात्यादिमिरात्मानं, प्रशंसति मानी यावि भवति, चशब्दः पूरणे अपिः संभावने, माणी अत्रमाणितो चंडोचवलो च भवति, एवं तस्स माणदोसा सावजंति, णवमे किरियाट्ठाणे ९॥ अहावरे दसमे मित्तदोसवत्तिएत्ति आहिए (सूत्रं २७) से जहाणामए केइ पुरिसे मातीहिं वा पितीहिं वा जाव सुहाहि वा संवसमाणे तेसिं अण्णतरे निवाइए वा अवराधवइए ताव अक्कोसो. वा काएण हत्थेण वा संघट्टे वा उवकरणे वा कम्हियि भिण्णे वा एवमादि लहुमओ-अल्प इत्यर्थः, सीतोदगे चा. कायं उबल्लेत्ता. भवति, हेमंतरातीसु, उसिणोदवियडेण वा कार्य उस्सिचित्ता भवति, वियडग्रहणा उसिणतेल्लेण वा उसिणकंजिएण वा अगणिका-1 | एण वा उम्मुएण वा तत्तलोहेण वा कायं उडहित्ता भवति, कडएण वा वेढेतुं पलीवेति, सो चेव कडग्गित्ति बुचति, आह-हिंसाश्रवाः केशव! माययावा, विपेण गोविन्द ! दिवाग्निना वा' छिजति से सओ कसओ, सेसं कंठयं, उद्दालेत्ति चम्माई लंबावेति, दंडोत्ति ॥३४५॥

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