Book Title: Adhunik Sandarbh me Jain Darshan ke Punarmulyankan ki Dishaye
Author(s): Dayanand Bhargav
Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 4
________________ कर पाया---यह प्रत्यक्ष है। तब क्या इस विषमता को समाप्त करने का एक मात्र उपाय हिंसा ही शेष है ? क्या इस प्रकार की हिंसा विरोधीहिंसा के समान गृहस्थ के लिए अनुमत होगी? क्या कर्म सिद्धान्त आर्थिक विषमता का पोषक है ? इत्यादि समसामयिक प्रश्नों पर विस्तार से विचार की आवश्यकता है। किन्तु अहिंसा, अपरिग्रहादि सिद्धान्तों की चर्चा के समय इन प्रश्नों को न छूकर केवल इनके सिद्धान्त पक्ष की प्रशंसात्मक शब्दों में चर्चा कर दी जाती है। अहिंसा और अपरिग्रह पर बल देने वाला दर्शन आर्थिक शोषण तथा विषमता के विरुद्ध एक सबल आन्दोलन बनता है या कि यथास्थितिवाद का समर्थक-यह एक ज्वलन्त प्रश्न है। 20. मैं मानता हूं कि जैन दर्शन में एक गतिशील दर्शन होने के बीज उपस्थित हैं। उनमें सत्य के नित्य नवीन स्वरूप को उद्घाटित करने का पूर्णावकाश है। उसे मानवीय तथा ताकिक धरातल पर प्रतिष्ठित करने की आवश्यकता है। पौराणिक अति लौकिकता उसका अनिवार्य अंग नहीं है / आगमप्रामाण्यवादी होने पर भी जैन दर्शन सत्य को आगम से बंधा हुआ नहीं मानता। महावीर जैन परम्परा में उत्पन्न हुए किन्तु उन्होंने सत्य को किसी गुरु या आगम से नहीं, अपने अनुभव से जाना / यह व्यक्तिस्वातन्त्र्य का ज्वलन्त प्रमाण है। जैनधर्म का मूल है समता / इसके आधार पर जैन दर्शन ने कभी जन्मना श्रेष्ठता के सिद्धान्त का विरोध करते हुए वर्ण व्यवस्था के विरुद्ध जाकर हरिकेशी जैसे चाण्डाल कुलोत्पन्न व्यक्ति के लिए अध्यात्म के द्वार खोले थे। आज वही दर्शन आर्थिक विषमता के विरोध में आवाज उठा कर सर्वहारा वर्ग के लिए सम्मानपूर्ण जीवन के द्वार खोल सकता है अन्यथा जब यही कार्य हिंसक क्रान्ति द्वारा होता है तो धर्म, दर्शन, संस्कृति तथा व्यक्ति-गरिमा की लाश पर भौतिक वैभव प्रतिष्ठित होता है- जो मानव जाति के लिए श्रेयस्कर नहीं है क्योंकि उसमें एक ओर सहस्रों वर्षों का शोषण समाप्त होता है किन्तु दूसरी ओर सहस्रों वर्षों की मानव जाति की उपलब्धि भी उसके साथ ही समाप्त हो जाती है। समीचीन धर्म कोई भी धर्म चाहे वह प्राचीन हो या अर्वाचीन, यदि समीचीन है तो ग्राह्य है, अन्यथा ग्राह्य नहीं है / और इसलिए प्राचीन अर्वाचीन से समीचीन का महत्त्व अधिक है, वह प्रतिपाद्य धर्म का असाधारण विशेषण है। उसकी मौजूदगी में ही अन्य दो विशेषण अपना कार्य भली प्रकार करने में समर्थ हो सकते हैं / अर्थात् धर्म के समीचीन (यथार्थ) होने पर ही उसके द्वारा कर्मों का नाश और जीवात्मा को संसार के दुःखों से निकालकर उत्तम सुख में धारण करना बन सकता है, अन्यथा नहीं / दूसरे, धर्म के नाम पर लोक में बहुत सी मिथ्या बातें भी प्रचलित हो रही हैं उन सबका विवेक कर यथार्थ धर्मदेशना की सूचना देना भी समीचीन विशेषण का प्रयोजन है। इसके सिवाय, प्रत्येक वस्तु की समीचीनता (यथार्थता) उसके अपने द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव पर अवलम्बित रहती है, दूसरे के द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव पर नहीं। द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव में से किसी के भी बदल जाने पर वह अपने उस रूप में स्थिर भी नहीं रहती और यदि द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की प्रत्रिया विपरीत हो जाती है तो वस्तु भी अवस्तु हो जाती है अर्थात् जो ग्राह्य वस्तु है वह त्याज्य और जो त्याज्य है वह ग्राह्य बन जाती है / ऐसी स्थिति में धर्म का जो रूप समीचीन है वह सबके लिए समीचीन ही है और सब अवस्थाओं में समीचीन है—ऐसा नहीं कहा जा सकता; वह किसी के लिए किसी अवस्था में असमीचीन भी हो सकता है। उदाहरण के रूप में एक गृहस्थ तथा मुनि को लीजिए / गृहस्थ के लिए स्वदार-सन्तोष, परिग्रह परिमाण अथवा स्थूल रूप से हिंसादि के त्याग रूप व्रत समीचीन धर्म के रूप में ग्राह्य हैं जबकि मुनि के लिए उस रूप में ग्राह्य नही हैं। एक मुनि महाव्रत धारण कर यदि स्वदार गमन करता है, धन-धान्यादि बाह्य परिग्रहों को परिमाण के साथ रखता है और मात्र संकल्पी हिंसा के त्याग का ध्यान रखकर शेष आरम्भी तथा विरोधी हिंसाओं के करने में प्रवृत होता है तो वह अपराधी है। क्योंकि गृहस्थोचित समीचीन धर्म उसके लिए समीचीन नहीं है। -आचार्य रत्न श्री देशभूषण, भगवान् महावीर और उनका तत्त्वदर्शन, दिल्ली, 1673, पृ० 3 से उद्धृत जैन तत्त्व चिन्तन : आधुनिक संदर्भ 36 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 2 3 4