Book Title: Adhunik Sandarbh me Jain Darshan ke Punarmulyankan ki Dishaye Author(s): Dayanand Bhargav Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf View full book textPage 2
________________ में होती है या वह सत्य ईश्वर की ओर से किसी विशिष्ट व्यक्ति को प्राप्त होता है या कोई विशिष्ट व्यक्ति उस सत्य को समाधि के क्षणों में प्राप्त करके सर्वज्ञ हो जाता है। अपौरुषेय, ईश्वरीय या सर्वज्ञकथित सत्य पूर्ण अन्तिम तथा अतर्क्य है। जैनधर्म सत्य को सर्वज्ञों की वाणी में निहित मानता है और क्योंकि जैनधर्म का आधार सर्वशों की वाणी है इसलिये जैन ग्रन्थों में सवंश का प्रतिपादन पूर्ण बलपूर्वक किया गया है । ८. आचारांग का प्रथम श्रुतस्कन्ध उपलब्ध जैनागमों का प्राचीनतम अंश माना जाता है। इस ग्रन्थ में महावीर की जीवनी तथा उनके उपदेश संगृहीत हैं। इस ग्रन्थ के अनुशीलन से कहीं भी ऐसा संकेत नहीं मिलता कि महावीर सर्वज्ञ हों न ही कहीं महावीर के अवधिज्ञान या मन:पर्ययज्ञान का उल्लेख है । जीवन के अध्ययन से महावीर कुछ सत्यों का उद्घाटन करते हैं किन्तु इन सत्यों का साक्षात् उन्हें किसी अलौकिक शक्ति से हुआ हो, इसका कोई उल्लेख नहीं । इससे यह सन्देह उत्पन्न होता है कि क्या सर्वज्ञता की बात मूलतः महावीर की वाणी में थी। 'जो एक को जानता है वह सबको जानता है तथा जो सबको जानता है वह एक को जानता है' – ऐसे वाक्य आचारांग में उपलब्ध होते हैं किन्तु उनके आधार पर महावीर तीनों लोकों के समस्त पदार्थों की समस्त पर्यायों को जानते थे—यह निर्णय नहीं लिया जा सकता । प्रोफेसर दनसुखभाई मालवणिया ने एक लेख उज्जैन की अखिल भारतीय प्राच्यविद्या परिषद् में प्रस्तुत किया था जिसमें यह अभिमत व्यक्त किया था कि सर्वज्ञता की अवधारणा परवर्ती है महावीर की नहीं । ६. सभी भारतीय दर्शनों के सामने अपने-अपने आगमों को प्रामाणिक सिद्ध करने का प्रश्न था । नैयायिक ने कहा कि वेद में दृष्ट विषय आयुर्वेदादि सम्बन्धी नियमों की प्रामाणिकता से अदृष्ट ज्योतिष्टोमादि सम्बन्धी नियमों की प्रामाणिकता का अनुमान किया जा सकता है। यही तर्क आचार्य हेमचन्द्र ने प्रमाणमीमांसा में जैनागमों की प्रामाणिकता सिद्ध करने के लिये दिया है कि ज्योतिपादिदृष्ट विषयों के नियमों की सत्यता से जैनागमों की प्रामाणिकता सिद्ध होती है। यह सब प्रयत्न आगमों को अचूक सिद्ध करने का है । १०. इसी दिशा में आधुनिक काल में जैनागमों में उपलब्ध भौतिकी, रसायनशास्त्र तथा गणित सम्बन्धी मान्यताओं का विवरण देकर जैनागमों को प्रतिष्ठित करने का प्रयत्न किया गया है। जैनागमों में भौतिक विज्ञान के सम्बन्ध में कुछ तथ्य मिलते हैं इसमें किसी को मतभेद नहीं है किन्तु यदि हम उन तथ्यों को इस रूप में रखें कि मानो आधुनिक काल के विज्ञान की समस्त उपलब्धि जैनागमों में पहले से ही प्राप्त थी, तो यह विचारणीय बात है। विज्ञान का अपना इतिहास है। उस इतिहास में विज्ञान का निरन्तर विकास हुआ है। जैनागमों में उस समय की अपेक्षा से कुछ वैज्ञानिक तथ्यों का उद्घाटन हुआ यह ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्व का है किन्तु इस तथ्य को आंखों से ओझल नहीं किया जा सकता कि आज हम विज्ञान के क्षेत्र में जैनागमों के काल की अपेक्षा बहुत आगे बढ़ चुके हैं और इस बात में कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए कि जैनागमों की या किसी भी अन्य शास्त्र की कोई बात आज के विज्ञान से मिथ्या सिद्ध हो जाये । किन्तु आगमों में सर्वज्ञ की वाणी का संग्रह मानने वाला व्यक्ति ऐसी सम्भावना स्वीकार नहीं करेगा । ११. 'वस्तु अनन्तधर्मात्मक है'-- यह अनेकान्त की मौलिक घोषणा है। अनन्तकर्मों के सागर को सान्त आगमों की गागर में बन्द करने का आग्रह कहां तक उचित है ? स्वयं आगम भी यह मानते हैं कि जितना सत्य भगवान् को ज्ञात है उसका बहुत थोड़ा भाग आगमों में कहा गया है। ऐसी स्थिति में यदि कोई ऐसी बात कही जाती है जो युक्तियुक्त है किन्तु आगमों में उपलब्ध नहीं है तो उसके मानने में आपत्ति नहीं होनी चाहिये। यदि सत्य को देखने की अनन्त दृष्टियां स्वीकार की जाती हैं, तो सत्य के किसी अनुद्घाटित पक्ष के उद्घाटन की सम्भावना सदा बनी रहेगी । अनेकान्त को विरोधियों द्वारा निरन्तर सन्देहवाद के रूप में रखा गया है। जैनाचार्यों ने बलपूर्वक इस आरोप का खण्डन किया । किन्तु इस शास्त्रार्थ में हम यह भूल जाते हैं कि ज्ञान के विकास का मूल भी सन्देह ही है। पृथ्वी को केन्द्र में मानकर सभी ग्रहों को इसके चारों ओर चक्कर लगाने का जिओसेन्ट्रिक (goocentric) सिद्धान्त था उसमें सन्देह ने इस हट्रिक (heleocentric) सिद्धान्त को जन्म दिया कि सूर्य केन्द्र में है तथा पृथ्वी समेत सभी ग्रह उसका चक्कर लगाते हैं। विज्ञान का इतिहास इस प्रकार के उदाहरणों से भरा पड़ा है। किसी ज्ञान को अन्तिम मानने पर इस प्रकार के विकास की सम्भावना ही समाप्त हो जाती है। उपनिषद् के जिन ऋषियों ने यज्ञ की सार्थकता पर प्रश्नवाचक चिह्न लगाया वे ही ब्रह्मवाद की स्थापना कर सके । वस्तुतः सन्देह वहीं हेय है जहां वह हमें निष्क्रिय मेरी बना दे, किन्तु जहां स्थापित मान्यता में सन्देह नवीन स्थापना की ओर ले जाये वहां सन्देह का स्वागत ही करना चाहिये । अनेकान्त, दृष्टि में, सत्य को एक स्थिर जड़ तथ्य न मानकर सापेक्ष तरल गतिशील वस्तु मानता है। ज्ञान के क्रमिक विकास के लिये यही एक मात्र गतिशील मार्ग है। १२. जो दर्शन सत्य को एकान्तिक मानते हैं तथा यह मानते हैं कि वस्तु में परस्पर विरोधी-धर्म नहीं रह सकते, उनके लिए न तो शास्त्रोक्त कथन के अतिरिक्त कोई कथन किया जा सकता है न शास्त्रोक्त कथन के विरोधी कथन के सत्य होने की सम्भावना है। किन्तु यदि अनेकान्तवादी भी यही माने तो ज्ञान के प्रति दृष्टिकोण में एकान्तवादी और अनेकान्तवादी के बीच का अन्तर ही नहीं रह जायेगा। शास्त्र के प्रति यदिहास्ति तदन्यत्र यन्नेहास्ति न तत् क्वचित् वाला दृष्टिकोण अनेकान्तवाद की मूल दृष्टि से मेल नहीं खाता। यदि जैन मनीषी इसे हृदयङ्गम कर सकें तो जैन धर्मदर्शन का गतिरोध समाप्त हो सकता है तथा दर्शन एक जीवित विद्या बन सकती है । जैन तत्व चिन्तन : आधुनिक संदर्भ Jain Education International For Private & Personal Use Only ३७ www.jainelibrary.orgPage Navigation
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