Book Title: Adattadan Virman ki Vartaman Prasangikta Author(s): Brajnarayan Sharma Publisher: Z_Kusumvati_Sadhvi_Abhinandan_Granth_012032.pdf View full book textPage 3
________________ १६] पूर्वक है। किसी की आज्ञा के बिना किसी अन्य अशक्तता के कारण दीनता दिखलाना या कठोर व्यक्ति के द्रव्यों का अपहरण करना स्तेय है। उसका संयम का पालन न करने के कारण भाग उठना प्रतिषेध ही नहीं प्रत्यूत मन में अन्य व्यक्ति के द्रव्य महावीर शिक्षा नहीं है। क्योंकि महाव्रतों के पालन को ग्रहण करने की इच्छा का अभाव ही अस्तेय तथा अन्यत्र भी वे “णो हीणे, णो अतिरित्ते (आचाकहा जाता है। रांग सूत्र ७५) किसी को हीन या महान मानने के पक्ष में नहीं जान पड़ते। उनके मत में संयम की पातंजल योग में विवेचित यम को सार्वभौम भट्टी में उग्र तप किये बिना कोई भी व्यक्ति जिन महाव्रत कहा गया है। जैन और बौद्ध श्रमण पर नहीं बन सकता। क्योंकि जीव दया, इन्द्रिय संयम, म्परा में वैदिक वर्णाश्रम व्यवस्था को अमान्य ठह सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, सन्तोष, सम्यक्ज्ञानदर्शन, राते हुए सभी वर्गों के लिए धर्म के द्वार खोल दिये तप ये सभी शील के ही परिवार हैं। [शीलपाहुड गये हैं । ब्राह्मणों और पुरोहितों के सर्वश्रेष्ठ होने की मान्यता को भी धराशायी कर दिया गय इसी प्रकार आश्रम व्यवस्था में भी इन्हें दो ही महर्षि पतंजलि और भगवान महावीर की अपआश्रम गृहस्थ और संन्यास रुचिकर लगे और तद- वादविहीन महाव्रत पालन करने की क्षमता धीरेनुरूप इन्हें अपने-अपने संघों के चार विभाग-साधु धीरे क्षीण होती गई और कालान्तर में जैन गृहस्थ और साध्वी (मुनि-आर्यिका) अथवा भिक्षु और श्रावक-श्राविका समाज ने भी बड़ी कुशलता तथा भिक्षुणी तथा श्रावक और श्राविका इष्ट हैं। अधि- प्रावीण्य के साथ अपने लिए कंसेशनों-सुविधाओं की कारी की दृष्टि से जैन और बौद्ध दोनों परम्पराओं ढील जोड़ ली और गलियाँ ढूँढ़ लीं । कठोर संयम, में साधु और साध्वियों के लिए इन व्रतों का अप- उग्र तप-व्रतों का अपवादरहित पालन मुनि-आर्यिवादरहित कठोरता से पालन करने का उपक्रम काओं के जिम्मे छोड वह बरी हो गया। परिग्रह रचा गया। इसलिए इनके लिए ये महाव्रत समझे तथा स्तेय के नित नये हथकण्डे अपनाने लगा। गये । गृहस्थ श्रावक और श्राविकाओं के लिए यथा- जैन समाज ही इसका शिकार नहीं है अपितु सम्पूर्ण । 7 शक्ति और क्षमता के अनुरूप इनके पालन का भारतीय या विश्व-मानव समाज इन बुराइयों से विधान किया गया। इसलिए इनके लिए ये व्रत कहाँ बच पाया है। अणुव्रत माने गये। इस तरह जैन और बौद्ध धर्मों में मानव संघ को दो आश्रमों और दो वर्गों में जब तक व्यक्ति केवल अपने तक ही सीमित विभाजित किया है। एकाकी रहता है तब तक उसके सामने महत्वा कांक्षा और उसकी पूर्ति हेतु परिग्रह या संग्रह जहाँ तक मुझे विदित है मेरे अल्प अध्ययन के अयवा चोरी, संग्रह के लिए शोषण-अपहरण, इस आधार पर मैं कह सकता हूँ कि भगवान महावीर विधा को सुचारु अग्रसर करने के लिए बौद्धिक ने व्रतों के पालन में कभी कोई ढील दी हो अथवा कौशल और शारीरिक शक्ति का विकास एवं किसी व्यक्ति विशेष को समय-काल-परिस्थिति के बौद्धिक-शारीरिक बल के लिए विद्या का दुरुपयोग, आधार पर इनके पालन में कोई सुविधा (कंसेशन) दुरभिसंधि, स्पर्धा आदि समस्याएँ उत्पन्न नहीं दी हो मझे ज्ञात नहीं है । तप और संयम के प्रसंग होती। किन्तु अपनी महत्वाकांक्षा की पूर्ति हेतु में वे सर्वदा असमझौतावादी ही बने रहे हैं। अपने व्यक्ति ज्योंही समाज में प्रवेश करता है त्योंही वह | व्रत पर अडिग रहना ही उनकी विशेषता है। न अपनी दुर्बलता का प्रतिकार करने के लिए और दैन्यं, न पलायनम्' अर्थात् शारीरिक कमजोरी या महत्वाकांक्षा की पूर्ति हेतु स्पर्धा और शक्ति संचय चतुर्थ खण्ड : जैन संस्कृति के विविध आयाम ___ ३१६ 00690 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Jailuucation Internation Bor Private & Personal Use Only www.jansurerary.orgPage Navigation
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