Book Title: Adattadan Virman ki Vartaman Prasangikta
Author(s): Brajnarayan Sharma
Publisher: Z_Kusumvati_Sadhvi_Abhinandan_Granth_012032.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म साधना तथा आचार का भव्य प्रासाद पंच आयामों की पुष्ट आधारशिला पर टिका हुआ है । कहते हैं कि भगवान महावीर 3 के पूर्व जैन धर्म चतुआयामी ही था, उन्होंने इसमें पंचम आयाम 'ब्रह्मचर्य' की जोड़कर जैन धर्म को पंच आयामी धर्म बनाया। पंच आयाम इस प्रकार हैं - (१) अहिंसा, (२) सत्य, (३) अस्तेय, (४) अपरिग्रह एवं (५) ब्रह्मचर्य । प्रस्तुत निबन्ध में तृतीय आयाम 'अस्तेय' की विवेचना करना अभीष्ट है । 'दशवेकालिक सूत्र' में इसकी व्याख्या | करते हुए कहा है चित्तमंतमचितं वा अप्पं वा जइ वा बहु । दंतसोहणमित्तंपि, उग्गहं से अजाइया || तं अप्पणा न गिन्हन्ति, नो वि गिण्हावए परं । अनं वा गिण्हमापि नाणुजाणन्ति संजया || - अध्याय ६ गाथा १४-१५ अर्थात्-पदार्थ सचेतन हो या अचेतन, अल्प हो या बहुत, यहाँ तक कि दाँत कुरेदने वाली सींक जैसी तुच्छ वस्तु ही क्यों न हो, पूर्ण संयमी साधक दूसरों की वस्तु को उनकी अनुमति के बिना न तो स्वयं ग्रहण करते हैं, न दूसरों को ग्रहण करने के लिए प्रेरित करते हैं और ग्रहण करने वालों का अनुमोदन करते हैं। आशय यह है कि जो व्यक्ति दूसरों की तृणमात्र वस्तु भी यदि स्वयं चुराता है या चोरी करने की इच्छा करता है अथवा दूसरों को चुराने हेतु प्रेरित या उनके चुराने का अनुमोदन करता है वह चोर है और जो व्यक्ति इस प्रकार के कृत्यों का सर्वदा और सर्वथा त्याग करता है वह अस्तेय का पालक है । स्तेय का अर्थ है चोरी करना और चोरी न करना अस्तेय कहलाता है । उत्तराध्ययन सूत्र में भी यही बात दोहराई गयी है (अध्याय १६ गाथा २७ ) । 'सूत्रकृतांग' की गाथाएँ और भी स्पष्ट उद्घोषणा करती हैं तिव्वं तसे पाणिणो थावरे य, जे हिंसति आयसूय पडुच्च । जे लूसए होई अवत्तहारी, ण सिक्कई सेय वियस्स किंचि ।। उड़ढं अहे य तिरियं दिसासु, तसा य जे हत्थे हि पाएहिं य संजमित्ता, अदिन्नमन्नेसु थावर जे य पाणा । य नो गहेज्जा ॥ - सू. ५/१/४, १/१०/२ अर्थात् जो मनुष्य अपने सुख के लिए त्रस तथा स्थावर प्राणियों कीरतापूर्वक हिंसा करता है, उन्हें अनेक प्रकार से कष्ट पहुँचाता है एवं दूसरों की चोरी करता है और आदरणीय व्रतों का कुछ भी चतुर्थ खण्ड : जैन संस्कृति के विविध आयाम 88-38888888838983986 ( प्रवाचक, दर्शन विभाग, सागर विश्वविद्यालय, - ब्रजनारायण शर्मा सागर ) साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ अदत्तादान - विरमण की वर्तमान प्रासंगिकता जैन साधना का तृतीय आयाम - 388888888888888 ३१७ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पालन नहीं करता वह भयंकर क्लेश और विषाद वैदिक परम्परा में भी अस्तेय पर पर्याप्त उठाता है । अतः संयमी साधक को ऊँची-नीची तथा विचार-विमर्श हुआ है। मनुस्मृतिकार यमों की तिरछी दिशाओं में जहाँ कहीं भी त्रस और स्थावर महत्ता बतलाते हुए कहते हैंप्राणी रहते हों-विचरते हों उन्हें संयम से रहकर यमान सेवेत सततं न नियमान केवलान बुधः। अपने हाथों से, पैरों से या किसी भी अंग से पीड़ा यमान पतत्य कुर्वाणो नियमान केवलान भजन ॥ नहीं पहुँचानी चाहिए। दूसरों की बिना दी हुई। अर्थात् बुद्धिमान व्यक्तियों को सतत यमों का वस्तु भी चोरी से ग्रहण नहीं करना चाहिए। सेवन (पालन) करना चाहिए, केवल नियमों का परवस्तहरण चौर्य कर्म है और इस कूटेव का नहीं क्योंकि नियमों का पालन करने वाला यमों पर सर्वथा परित्याग अचौर्य या अस्तेय है। अचौर्य या के पालन के अभाव में गिर जाता है। महर्षि पतंजलि अस्तेय का अर्थ चोरी न करना तो है ही परन्तु यह ने अपने 'योगसूत्र' के साधनपाद के सूत्र ३० में ! पद निषेधपरक ही नहीं है। इसकी विधिपरक अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह एवं ब्रह्माचर्य को व्याख्या भी की जा सकती है। ईमानदारी, अधि- यम कहा है। यहां भी अस्तेय के ऊपर दो और कार और कर्तव्य के प्रति जागरूक रहकर उनका नीचे दो यम रखे गये हैं अर्थात् अस्तेय तृतीय स्थान सम्यक् उपभोग करना भी अचौर्य वृत्ति में सम्मि- पर ही रखा गया है। यम-नियम के पालन के बिना लित है। कोई भी साधनारत अभ्यासी योगी नहीं बन ____ अधिकारों का अपहरण, शोषण करना, सकता। योगाभ्यासी या अधिकारी ही नहीं वरन् दूसरों को अपना गुलाम (दास) बनाना, लोगों के इनका पालन सभी आश्रमवासियों के लिए आवस्वत्व छीनकर उन्हें अपने आदेश मनवाने हेतु बाध्य श्यक है। यमों का सम्बन्ध सम्पूर्ण मानव समाज करना आदि गर्हित कार्य स्तेय वृत्ति के ही उपजीवी पालन में सभी परहैं। किसी भी अवस्था में जीवनोपयोगी आवश्यक तन्त्र हैं। ये मानव के परम कर्तव्य हैं। इसीलिए मूल्यों का अपहरण न करना ही अस्तेय है। अगले इकत्तीसवें सूत्र में महर्षि पतंजलि ने इन यमों श्रमण परम्परा के दूसरे स्तम्भ बौद्ध धर्म में भी को जाति, देश, काल तथा समय (अवस्था विशेष पंचशील के अन्तर्गत अस्तेय की गणना की गयी है। या विशेष नियम) की सीमा से परे बतलाया है। अष्टांगिक आर्य मार्ग के पंचम सोपान की चर्चा इन्हें सार्वभौम महाव्रतों की संज्ञा दी गयी है। करते हुए बौद्ध धर्म में भी कहा गया है कि जीवन- आशय यह, कि यमों का पालन किसी जाति विशेष, यापन तथा जीवन-रक्षण हेतु मानव मात्र को किसी देश विशेष, काल विशेष या अवस्था विशेष के मानव | न किसी जीविका को अपनाना आवश्यक है किन्तु ममदाय के लिए नहीं वरन भ-मण्डल पर रहने वाले जीविका सम्यक होनी चाहिए। इससे न तो किसी समस्त मानव समाज के लिए इनका पालन करना प्राणी को किसी प्रकार का क्लेश पहुँचना चाहिए उपाय और अपरिहार्य है । यम का अर्थ ही शासन और न उनकी हिंसा। इसीलिए 'लक्खण सुत्त'- और व्यवस्था बनाये रखने वाले नियमों से है ! ३ में भगवान बुद्ध ने निम्नांकित जीविकाओं को अभाव सर्वदा भाव निरूपण के अधीन रहता है। गर्हणीय और हेय बतलाया है-तराजू की ठगी, इसीलिए सूत्र ३० की व्याख्या में भाष्यकार व्यास कंस की ठगी, मान की ठगी, रिश्वत लेना, वंचना, जी ने लिखा है, "अशास्त्रपूर्वकं द्रव्याणां परतः ) कृतघ्नता, डाका-लूटपाट आदि। इस धर्म में भी स्वीकरणं स्तेयम् । तत्प्रतिषेधः पुनरस्पृहारूपमस्तेयअस्तेय को पंचशीलों में तृतीय शील ही बतलाया मिति ।" स्तेय को परिभाषित करते हुए उसके प्रतिषेध को अस्तेय कहा है। स्तेय वृत्ति अशास्त्र३१८ चतुर्थ खण्ड : जैन संस्कृति के विविध आयाम गया है। 0 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ SN Private & Personal Use Only www.jainerairal y.org Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६] पूर्वक है। किसी की आज्ञा के बिना किसी अन्य अशक्तता के कारण दीनता दिखलाना या कठोर व्यक्ति के द्रव्यों का अपहरण करना स्तेय है। उसका संयम का पालन न करने के कारण भाग उठना प्रतिषेध ही नहीं प्रत्यूत मन में अन्य व्यक्ति के द्रव्य महावीर शिक्षा नहीं है। क्योंकि महाव्रतों के पालन को ग्रहण करने की इच्छा का अभाव ही अस्तेय तथा अन्यत्र भी वे “णो हीणे, णो अतिरित्ते (आचाकहा जाता है। रांग सूत्र ७५) किसी को हीन या महान मानने के पक्ष में नहीं जान पड़ते। उनके मत में संयम की पातंजल योग में विवेचित यम को सार्वभौम भट्टी में उग्र तप किये बिना कोई भी व्यक्ति जिन महाव्रत कहा गया है। जैन और बौद्ध श्रमण पर नहीं बन सकता। क्योंकि जीव दया, इन्द्रिय संयम, म्परा में वैदिक वर्णाश्रम व्यवस्था को अमान्य ठह सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, सन्तोष, सम्यक्ज्ञानदर्शन, राते हुए सभी वर्गों के लिए धर्म के द्वार खोल दिये तप ये सभी शील के ही परिवार हैं। [शीलपाहुड गये हैं । ब्राह्मणों और पुरोहितों के सर्वश्रेष्ठ होने की मान्यता को भी धराशायी कर दिया गय इसी प्रकार आश्रम व्यवस्था में भी इन्हें दो ही महर्षि पतंजलि और भगवान महावीर की अपआश्रम गृहस्थ और संन्यास रुचिकर लगे और तद- वादविहीन महाव्रत पालन करने की क्षमता धीरेनुरूप इन्हें अपने-अपने संघों के चार विभाग-साधु धीरे क्षीण होती गई और कालान्तर में जैन गृहस्थ और साध्वी (मुनि-आर्यिका) अथवा भिक्षु और श्रावक-श्राविका समाज ने भी बड़ी कुशलता तथा भिक्षुणी तथा श्रावक और श्राविका इष्ट हैं। अधि- प्रावीण्य के साथ अपने लिए कंसेशनों-सुविधाओं की कारी की दृष्टि से जैन और बौद्ध दोनों परम्पराओं ढील जोड़ ली और गलियाँ ढूँढ़ लीं । कठोर संयम, में साधु और साध्वियों के लिए इन व्रतों का अप- उग्र तप-व्रतों का अपवादरहित पालन मुनि-आर्यिवादरहित कठोरता से पालन करने का उपक्रम काओं के जिम्मे छोड वह बरी हो गया। परिग्रह रचा गया। इसलिए इनके लिए ये महाव्रत समझे तथा स्तेय के नित नये हथकण्डे अपनाने लगा। गये । गृहस्थ श्रावक और श्राविकाओं के लिए यथा- जैन समाज ही इसका शिकार नहीं है अपितु सम्पूर्ण । 7 शक्ति और क्षमता के अनुरूप इनके पालन का भारतीय या विश्व-मानव समाज इन बुराइयों से विधान किया गया। इसलिए इनके लिए ये व्रत कहाँ बच पाया है। अणुव्रत माने गये। इस तरह जैन और बौद्ध धर्मों में मानव संघ को दो आश्रमों और दो वर्गों में जब तक व्यक्ति केवल अपने तक ही सीमित विभाजित किया है। एकाकी रहता है तब तक उसके सामने महत्वा कांक्षा और उसकी पूर्ति हेतु परिग्रह या संग्रह जहाँ तक मुझे विदित है मेरे अल्प अध्ययन के अयवा चोरी, संग्रह के लिए शोषण-अपहरण, इस आधार पर मैं कह सकता हूँ कि भगवान महावीर विधा को सुचारु अग्रसर करने के लिए बौद्धिक ने व्रतों के पालन में कभी कोई ढील दी हो अथवा कौशल और शारीरिक शक्ति का विकास एवं किसी व्यक्ति विशेष को समय-काल-परिस्थिति के बौद्धिक-शारीरिक बल के लिए विद्या का दुरुपयोग, आधार पर इनके पालन में कोई सुविधा (कंसेशन) दुरभिसंधि, स्पर्धा आदि समस्याएँ उत्पन्न नहीं दी हो मझे ज्ञात नहीं है । तप और संयम के प्रसंग होती। किन्तु अपनी महत्वाकांक्षा की पूर्ति हेतु में वे सर्वदा असमझौतावादी ही बने रहे हैं। अपने व्यक्ति ज्योंही समाज में प्रवेश करता है त्योंही वह | व्रत पर अडिग रहना ही उनकी विशेषता है। न अपनी दुर्बलता का प्रतिकार करने के लिए और दैन्यं, न पलायनम्' अर्थात् शारीरिक कमजोरी या महत्वाकांक्षा की पूर्ति हेतु स्पर्धा और शक्ति संचय चतुर्थ खण्ड : जैन संस्कृति के विविध आयाम ___ ३१६ 00690 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Jailuucation Internation Bor Private & Personal Use Only www.jansurerary.org Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की अंधी दौड़ में लग जाता है । यह दौड़ उसे शोषण करना सिखाती है । शोषण से अव्यवस्था, अशांति, क्लेश, तनाव उत्पन्न होते हैं । उपद्रव, विद्रोह, विप्लव, युद्ध तथा संघर्ष आरम्भ हो जाते हैं। समाज का ढाँचा चरमराने लग जाता है। तब उसकी पुनर्व्यवस्था हेतु दण्डनीति, अनुशासन एवं न्याय व्यवस्था जन्म लेती है । मर्यादाहीनता को मिटाने के लिए धर्म संहिता तथा दण्ड संहिताओं का निर्माण किया जाता है । समाज की महत्वपूर्ण घटक इकाई होने के कारण व्यक्ति अपने आचार-विचार तथा प्रवृत्तियों द्वारा समाज के अन्य घटकों को भी प्रभाबित करता रहता है । इसीलिए व्यक्ति की उच्छृंख लता-उद्दण्डता-स्वार्थ लोलुपता को रूपान्तरित करने के लिए महापुरुष समाज में व्रत विधान की एक ओर व्यवस्था संजोता है और दूसरी ओर भीषण यातनाओं सहित राजकीय दण्ड नीति द्वारा उस पर अंकुश भी लगाता है । यदि हर व्यक्ति नैतिक सदाचरण करे, ईमानदारी के साथ कर्तव्यपरायण हो ये तो समाज में सुख-शान्ति और समृद्धि लायी जा सकती है | अतः समाज को सुसंगठित सुसंस्कृत, एवं सबल बनाने के लिए धर्माचरण के मूलमंत्र व्रतों को अपनाना अनिवार्य है । वैदिक तथा श्रमण परं पराओं में इसीलिए अपने-अपने ढंग से व्रतों को यम अथवा शील का अनिवार्य अंग बनाया गया है। केवल छिपकर किसी की वस्तु को अथवा धन को चुराना ही अस्तेय नहीं है परन्तु किसी चोर को स्वयं या दूसरे द्वारा चोरी करने के लिये प्रेरित करना या कराना या अनुमोदन अथवा प्रशंसा करना तथा चोरी करने के लिए उपकरण प्रदान करना, चोरी के माल को बेचना या बिकवाना भी चोरी है । वर्तमान संदर्भ में अस्तेय पालन की परम आवश्यकता है। कई दिन भूख से तंग आकर कोई भूखा व्यक्ति यदि किसी हलवाई की दुकान से कुछ खाने की वस्तु चुरा लेता है तो वह इतना गुनाहगार नहीं है जितने कि निम्नलिखित श्रेणी वाले लोग । नव ३२० श्रेणियों में इनको मुख्यतया बाँटा जा सकता है । इन श्रेणियों के लोग भिन्न-भिन्न प्रकार की चोरियों में अहर्निश लगे हुए हैं। अधिकांश लोग अस्तेय रोग से ग्रस्त हैं । अपनी ही अधिकार मर्यादा में सन्तुष्ट रहने वाले ईमानदार और कर्तव्यपरायण व्यक्ति' आज अंगुली पर गिनने लायक ही होंगे । वस्तुतः चोरी करना गुलाब की सेज नहीं है वरन् यह साहस का कार्य है । प्रायः लोग चोरी करने की सोचते तो हैं पर वे मानसिक रूप से हिम्मत नहीं जुटा पाते । ऐसे लोग मौका लगते ही हाथ साफ करने में नहीं ! चूकते। अतः ये भी चोर्य कर्म के भागी हैं। मोटे तौर पर इन नव श्वेत हस्तियों के कारनामों का विवरण इस प्रकार अंकित किया जा सकता है १. अधिकारजीवी सवर्ण - संकुचित विचार- १ धारा वाले संकीर्ण हृदय सवर्ण ऊंची जाति के कहलाने वाले समृद्ध तथा असमृद्ध अपने आपको धर्म का ठेकेदार मानने वाले लोग इस श्र ेणी में समाविष्ट होंगे । ये तथाकथित ऊँची जाति वाले गरीब दीन-हीन पिछड़ी या नीची जाति के लोगों को अस्पृश्य समझने वाले लोग हैं जो उनके धार्मिक, सामाजिक, नागरिक अधिकारों को हड़पकर इठलाते हैं । ये लोग उनके जीवनोपयोगी अधिकारों का दिनरात हरण करने में तल्लीन रहते हैं । जैन परम्परा ही नहीं वरन् सभी भारतीय दार्शनिक सम्प्रदायों ने जीवात्मा को ऊर्ध्वगमनशील मान्य किया है । अधिकार है। यही नहीं, मानव देह पाकर अपने आत्मोन्नति करना प्रत्येक मनुष्य का जन्मसिद्ध स्वरूप में प्रतिष्ठित होने का प्रयास करना मानव का परम उद्देश्य या पुरुषार्थ भी है । सर्वोदय की रट लगाने वाले ये मदान्ध सवर्ण हरिजनों और निम्न जाति के निरीह - निर्दोष दीन-हीन जनों के झोंपड़ों में आग लगाकर, उन्हें धधकती ज्वाला में अपने प्राणों की आहूति देने के लिए बाध्य कर देते हैं । इस प्रकार उनके जीवित रहने के अधिकार को हड़प कर जाते हैं और जब वे लोग त्राण पाने के लिए धर्मान्तरण कर लेते हैं तो उन पर मगरमच्छी अश्रुपात करते हैं । चतुर्थ खण्ड : जैन संस्कृति के विविध आयाम ८. साध्वीरत्न ग्रन्थ Jain Cation International Private & Personal Use Only wwww.jairtellitery.org Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ATMAINTAI २. धनजीवी, उद्योगपति, व्यापारी और साहू- वाटर का इंजेक्शन लगा अपनी फोस वसूल करने कार-इस वर्ग में वे सब श्रावक-श्राविका तथा में डॉक्टर अपने आपको कृतकृत्य समझ अन्य धनाढ्य श्रेणी के लोग समाविष्ट हैं जिनका आज बिना पैसे दिये मजाल है कोई मरीज ऑपरेतीर्थकर, तथागत, भगवान्, अल्लाह या गॉड लाभ शन थियेटर में पहुँच जाये अथवा उचित औषधि ) है । अनुचित लाभ कमाने की होड़ में ये कम अस्पताल से पा जाये । दवायें चोरी से बेचना या तोलते हैं, चोरी का माल औने-पौने दामों में खरी- मुह देखकर बड़ों को तिलक लगाने के फलस्वरूप दते हैं, चोरी करवाते हैं, वनस्पति में गाय की उन्हें महंगी दवायें मुफ्त देकर अपने लिए अन्य चर्बी, हल्दी में पीली मिट्री, धनिये में भूसा आदि सविधायें जटाना डॉक्टरी का पवित्र व्यवसाय बन मिलाते हैं। यही नहीं नकली दवा निर्माण और गया है। अस्पताल में जिम्मेदारी डयूटी से न कर उनमें मिलावट कर ये जन-जीवन से खिलवाड़ घर पर क्लीनिक चला, दोनों हाथों से धन बटोरना करते हैं। दूसरों को येन-केन-प्रकारेण ठगना इनका मुख्य व्यवसाय बन गया है। वकील दोनों इनका व्यापारिक कौशल बन गया है। ब्याज की पक्षों से मिलकर जजों को यथायोग्य दक्षिणा देकर ऊंची दर ऐंठकर महाराज साहब या मुनि या साधु निर्णय अपने पक्ष में करवाने में माहिर होते जा रहे कि की शरण में जा शांति खोजने का नाटक रचते हैं। है। न्यायालयों में फैसले कानून के अनुसार नहीं टैक्स चोरी इनका प्रिय खेल है और बेईमानी वरन् कितनी रकम कौन दे सकता है और जज को । शगल । क्रय कर सकता है उस पर प्रायः निर्भर होते जा रहे । ३. रिश्वतजीवी राजकीय अराजकीय कर्मचारी हैं । बाबुओं को भूर-सी बँटवाने में भी वकीलों का और अधिकारी-आज के समाज में ऐसा कोई हाथ रहता है ताकि वे उनकी जायज-नाजायज विभाग शायद ही बचा हो जो किसी न किसी इच्छाओं की पूर्ति कर सकें । इंजीनियर और ठेकेभ्रष्ट आचरण से अछता हो। शासकीय और दारा की साठ-गाँठ रेत से ढहने वाले बाँधों-पलोंअशासकीय संस्थान भ्रष्टाचार के ज्वलंत अड्डे मका के मकानों में कहर ढा रही है। बड़े-बड़े खेतों के बनते जा रहे हैं । रिश्वत आज के युग में शिष्टा स्वामी जमींदार स्वयं तो हल की मूठ नहीं पकड़ते चार बन गयी है। जितनी बड़ी सीट उतना बड़ा पर खेतिहर मजदूरों को बन्धुआ बनाकर बेगार में 70 दाम । बिना पैसे दिये मजाल है कि फाइल एक जोत गुलछरें उड़ाते हैं । सब चोर हैं । चोरी करने | इंच भी आगे खिसक जाये । समय पर काम नहीं के ढग अलग-अलग हैं। करना इनका जन्मसिद्ध अधिकार है। ठीक भी है, ५. चन्दाजीवी नेतागण-विभिन्न बहाने लेकर यदि समय पर आसानी से जनता का कार्य निपट । नेताजी चन्दा बटोरने में दिन-रात ल जाये तो उन्हें क्या पागल कुत्ते ने काटा है जो मन्त्री, विधायक तथा सांसद भी इस कार्य में पीछे 8 इनको रिश्वत चुपड़ी रोटी डालें। कामचोरी देश नहीं हैं । अपना सर्वस्व जनता के लिए न्यौछावर | को रसातल में ढकेल रही है । पर परवाह किसे है ? कर उसकी सेवा करने के दिन लद गये । आज सेठों । छोटे कर्मचारी से अपना-अपना शेयर वसूल कर और पूजीपतियों के हाथों कठपुतली-सा नाच न बड़े-बड़े अधिकारी सीधे भी व्यापारी और उद्योग नाचने वाले तथा उच्च अधिकारियों के माध्यम से पतियों से बहुत बड़ा अंशदान वसूलने में अहर्निश अपनी चौथ वसूलने वाले ये नेतागण रातोंरात (छ लगे हुए हैं। ___लखपति और यदि चुन लिए गए तो अपने कार्यकाल I ___४. अवैध आयजीवी, डाक्टर, वकील, इन्जी- में सात पीढ़ियों तक चलने वाला धन बटोर लेते र नियर, ठेकेदार व जमींदार-मुर्दे को डिस्टिल हैं। चोर दरवाजा इनका साहूकारी का प्रमाण है। ३२१ चतुर्थ खण्ड : जैन संस्कृति के विविध आयाम 38 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ 60 alleducation Internationar Yor Private & Personal Use Only www.jalicitorary.org Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6. विद्याजीवी, शिक्षाविद्, पत्रकार-सम्पादक- 6. परधनोपजीवी साधु-संन्यासी-मठाधीशप्रकाशक एवं लेखक-आज शिक्षाविद् अपनी उच्च पण्डित एवं धर्म प्रचारक-प्रातः स्मरणीय पूजनीय शिक्षा के बलबूते पर नये-नये हथकंडे खोजने में रत जैन साधु-मुनिगण वास्तव में स्तुत्य हैं क्योंकि वे रहते हैं ताकि उनके पास भी नम्बर दो की आय अन्य मठाधीशों की भाँति किसी प्रकार का कोई का की वर्षा होने लगे और वे भी लखपति बन कारों- परिग्रह नहीं पालते / अस्तेय का पालन कैसा होता बंगलों-कोठियों में ऐश करें। मां शारदा का पुजारी है इनसे सीखा जाना चाहिए। ये जनता को अस्तेय भी लक्ष्मी की शरण में जाकर अपना पवित्र व्यव- की ओर प्रेरित करते हैं। अन्य मतों में भी नागा साय बिसरा-सा रहा है। प्रकाशक-सम्पादकगण परमहंस उच्च कोटि के हैं जो समाज को देते लेखकों का शोषण करना अपना फर्ज-सा मान बैठे ही देते हैं बदले में तृण की इच्छा भी नहीं | हैं / लेखकगण भी परिश्रम न कर इधर-उधर की रखते / किन्तु इनकी संख्या नगण्य मात्र है। शेष र दो-चार किताबों से सामग्री चुराकर अपना नाम सभी मठाधीश कभी किसी यज्ञ, कभी किसी अनु- ( रोशन करने में लगे हुए हैं। पीत पत्रकारिता पत्र- ष्ठान, कभी किसी मन्दिर का निर्माण आयोजित 6 कारों का दूसरे रास्ते से पैसा ऐंठने का व्यवसाय कर धर्म की आड़ में अपनी रोटियाँ सेकते हैं। बनता जा रहा है। समाज के पैसे पर इनमें कई सुरा और सुन्दरी की 7. श्रमजीवी कृषक और मजदूर-'पैसा पूरा मौज में ऐश कर रहे हैं। न कोई काम, न कोई किन्तु काम नहीं' आज के श्रमिक का नारा है। चिन्ता। पूरी मजदूरी पाकर भी कृषक, खेतिहर मजदूर तथा यद्यपि जितने चोर हैं उतने ही उनके चोरी के अन्य श्रमिकगण काम पूरा करना अपनी जिम्मेदारी ढंग हैं / 'चोर अनन्त चोरी अनन्त' फिर भी सुविधा नहीं समझता। बीड़ी पीना, सुस्ताना, धीमी गति की दृष्टि से समस्त चोर कर्मों को उक्त नवकोटियों पर से कार्य करना इनका शगल बन गया है। श्रम पर में रखा जा सकता है। अस्तेय पलकर भी ये श्रम का मूल्य नहीं आँकते। उचित प्रकार की कोई छूट नहीं है। चार प्रकार की मजदूरी न पाने पर उसके प्रति विद्रोही स्वर उठाने हिंसाओं में से जीवन संरक्षण हेतु कुछ हिंसा तो का साहस इनमें नहीं होता। इसीलिए श्रमिक नेता करनी ही पड़ेगी / 'जीवो जीवस्य भोजनम्'-जीव इनके कन्धे पर बन्दूक रखकर अपनी स्वार्थ-सिद्धि ही जीव का भोजन है। इस सिद्धान्त के अनुसार की गोली आये दिन दागते रहते हैं। ईमानदार संसार में रहकर मानव ही नहीं प्राणीमात्र पूर्ण तथा हितैषी मालिक, जो आजकल बिरले ही हैं, अहिंसक नहीं बन सकता। जीवन जब दाव पर उनके विरोध में भी ये हडताल का अस्त्र अपना कर लगा हो तो वहाँ असत्य भाषण भी क्षम्य बतलाया B उस उद्योग और उद्योगपति को धराशायी करने का गया है / जीवन-यापन करने के लिए कुछ न कुछ है प्रयास करते हैं। परिग्रह तो पालना ही होगा तथा संतानोत्पत्ति और . लटजीवी, चोर-उच्चक्के, तस्कर एवं संसार चलाने हेतु ब्रह्मचर्य की भी छूट सभी डाकू-इन श्रेणियों के लोग तो घोषित चोर हैं ही। आचार शास्त्रों में दी गयी है। वाल ब्रह्मचारी रह इनमें भी ऊँचे दर्जे के तस्कर और सबाज दिन कर इस कमी को संन्यासीगण पूरा करने का प्रयास के उजाले में भले मानुष तथा रात्रि के अन्धकार करते हैं किन्तु चैल या अचैल (वस्त्रधारी या दिगमें काले कारनामे करते हैं / दिन दूना और रात म्बर) साधुगण भी स्तेय को किसी भी अवस्था में 2 चौगुना धन बटोर कर भी उनकी धनलिप्सा और नहीं अपना सकते / इसी प्रकार गृहस्थगण भी चौर्य हबस नहीं मिटती / (शेष पृष्ठ 327 पर) 322 GooG चतुर्थ खण्ड : जैन संस्कृति के विविध आयाम साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Oost Por private & Personal Use Only