Book Title: Acharya ka Swarup evam Mahima Author(s): Prakashchand Jain Publisher: Z_Jinvani_Guru_Garima_evam_Shraman_Jivan_Visheshank_003844.pdf View full book textPage 1
________________ 10 जनवरी 2011 जिनवाणी 360 आचार्य का स्वरूप एवं महिमा श्री प्रकाशचन्द जैन प्रस्तुत आलेख में श्रमण के एक प्रकार 'आचार्य' के स्वरूप एवं महत्त्व का प्रतिपादन आगमिक आधारों के साथ किया गया है। आचार्य सम्प्रति तीर्थंकर के प्रतिनिधि श्रमण के रूप में धर्मतीर्थ के नायक होते हैं। -सम्पादक नवकार मंत्र के तीसरे पद में जिन्हें नमस्कार किया गया है, वर्तमान में जो तीर्थंकर का प्रतिनिधित्व करते हुए धर्मसंघ का संचालन करते हैं तथा स्वयं पंचाचार का पालन करते हुए अपने शिष्य समुदाय से भी शुद्ध पालना करवाते हैं, ऐसे आचार्य भगवन्त 36 गुणों के धारक, आठ सम्पदा के स्वामी तथा संघ के नायक हैं। आचार्य का स्वरूप 1. आचर्य्यते असावाचार्य्यः सूत्रार्थावगमार्थं मुमुक्षुभिरासेव्यते इत्यर्थः (आवश्यकसूत्र की टीका) अर्थात् जो सूत्र और अर्थ के ज्ञान के लिए मुमुक्षुओं द्वारा सेवा किये जाते हैं, वे आचार्य कहलाते हैं। 2. आयरियाणं - आ-मर्यादया तद्विषयविनयरूपया चर्य्यन्ते - सेव्यन्ते जिनशासनार्थोपदेशकतया तदाकांक्षिभिरित्याचार्याः । उक्तं च तत्थविऊ लक्खण-जुत्तो, गच्छस्स मेढि भूओ य । गणतत्तिविप्पमुक्को, अत्थं वाएइ आयरिओ ।। अर्थात् आकांक्षियों के द्वारा जो मर्यादापूर्वक जिनप्रवचन के अर्थ का उपदेश देने के कारण सेवन किये जाते हैं वे आचार्य कहे जाते हैं। 3. आयारो - ज्ञानाचारादि पंचधा, आ-मर्यादया वा आचारो-विहारः । आचारस्तत्र साध्य: स्वयं करणात्प्रभाषणात्प्रदर्शनाच्चेत्याचार्याः । आहच-पंचविहं आयारं, आयरमाणा तहा पयासंता । आयारं दंसतां, आयरिया तेण वुच्चति ॥ आवश्यक नियुक्ति 994 अर्थात् ज्ञानादि पांच प्रकार का आचार एवं मर्यादा पूर्वक विहार आचरणीय है। जो साधु स्वयं पंचाचार का पालन करते हैं, दूसरों से करवाते हैं और आचार को दिखाते हैं वे आचार्य कहलाते हैं । 4. अवरससीलंगसहस्साहिद्वियं तणू छत्तीसइविहयायारं जहद्वियं मे गिलाए महत्ति साणुसमयं आयरंति त्ति वत्तयंति त्ति आयरिया । परमप्पणो य हियमायरंति आयरिया | Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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