Book Title: Acharya Tulsi Ek Sahityik Mulyankan Author(s): Bhanvar Surana Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf View full book textPage 2
________________ आचार्य तुलसी : एक साहित्यिक मूल्यांकन ६०७ .................................................... .............. ...... जैन साहित्य में भक्तामर-स्तोत्र का बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है। शिक्षा षण्णवति में संस्कृत के मात्र नौ श्लोकों में गुरु, धर्म, अहिंसा, सत्य, अचौर्य, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य, देव, विरक्ति, आसक्ति, ज्ञान, श्रद्धा, संयम, तप, रत्नत्रय, मोक्षमार्ग, सद्गुण व स्याद्वाद् का आचार्य श्री ने परिचय देकर गागर में सागर भर दिया है। कर्त्तव्य त्रिशिका में उन्होंने साधु के कर्तव्य का विवेचन किया है। मनोनुशासन में मन को प्रबल बनाने की साधना के मार्ग का विवेचन करते हुए आचार्य श्री ने इस लघु ग्रन्थ में इन्द्रिय तथा मन को प्रबल बनाने की साधना को केन्द्र-बिन्दु मानकर वर्णन किया है। भिक्ष न्यायकणिका में जनदर्शन के, जैन न्यायशास्त्र के सिद्धान्तों का आचार्य श्री ने सरल संस्कृत में सहज निरूपण किया है। सूत्र और वृत्ति में संक्षिप्त सरल सम्यक् परिचय देकर आचार्यश्री ने इस ग्रन्थ के द्वारा नैयायिक वाङ्मय की शाश्वत शृखला में एक महत्त्वपूर्ण कड़ी जोड़ी है। अर्हत् वन्दना में जैन धर्मावलम्बियों के परम्परागत नमस्कार मंत्र, मोक्ष सूत्र, अहिंसा सूत्र, सत्त सूत्र, अप्रमाद मूत्र, साम्य सूत्र, आत्मविजय सूत्र, मैत्रीसूत्र, मंगल सूत्र मूल प्राकृत के साथ ही साथ आचार्यश्री ने हिन्दी, अनुवाद भी प्रस्तुत किया है। भगवान महावीर का समग्र धर्मदर्शन और जीवन दर्शन आगम-साहित्य में संकलित है। आचार्यश्री और उनके विद्वान् दार्शनिक मुनिजनों ने उन आगमों के सुसम्पादन तथा अनुवाद में अपना महत्वपूर्ण योग दिया है। आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग, व्याख्याप्रज्ञप्ति, ज्ञाताधर्मकथा, उपासकदशा, अंतकृतदशा, अनुरोपपातिकदशा, प्रश्नव्याकरण व विपाकश्रुत को पाठशुद्धि के पश्चात् प्रस्तुत करने का अतिमानवीय कार्य आचार्यश्रा तथा उनके शिष्य मुनि नथमलजी के हाथों पूरा होने जा रहा है। साथ ही प्राकृत भाषा बृहद्कोष, संस्कृत छायानुवाद, शब्दों के उत्कर्ष का इतिहास, शेष टिप्पणियों का संयोजन, आगमों का कालनिर्णय, समीक्षा, अन्य दर्शनों से तुलना का कार्य भी अनथक परिश्रम से आचार्यश्री ने सम्पूर्ण किया है। हिन्दी में 'धर्म एक कसोटी : एक रेखा' में आचार्यश्री ने अध्यात्म के परिप्रेक्ष्य में जैन धर्म तथा विविधा तीन खण्डों में अपना विभिन्न विषयों पर चिन्तन, मनन, अध्ययन से अनुभूत अभिमत का निरूपण किया है। इस ग्रन्थ में विभिन्न राजनेताओं, साहित्यकारों, कवियों, दार्शनिकों, विचारकों की जिज्ञासा, चेतना को सम्पर्क के माध्यम से उन्होंने चित्रित किया है। दक्षिण भारत के जैन आचार्य, वर्तमान के सन्दर्भ में शास्त्रों का मूल्यांकन, डा. राजेन्द्रप्रसाद, प. नेहरू, लालबहादुर शास्त्री, डॉ. जाकिर हुसैन आदि के सम्बन्ध में भी आचार्यश्री ने अपना मूल्यांकन इस ग्रन्थ में दिया है। आचार्यश्री ने 'मेरा धर्म-केन्द्र और परिधि' में विस्तार से सर्वधर्मसमभाव, स्याद्वाद, धर्म का तेजस्वी रूप, धार्मिक समस्यायें, एशिया में जनतन्त्र का भविष्य, लोकतन्त्र का आधार विश्वशान्ति एवं अणुबम, युद्ध और सन्तुलन, समय के विभिन्न पहल, व्यक्ति और समाज निर्माण, राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं के सन्दर्भ में अणुव्रत, अनशन, मर्यादा, तेरापंथ महावीर के शासन सूत्रों का विवेचन किया है। आचार्य रघुनाथजी के समय भिक्षुगणि के अन्तर्द्वन्द्व, तेरापंथ का उद्भव व विकास का परिचय भी उनकी लेखनी में इस ग्रन्थ में प्रस्तुत हुआ है। स्वविसजन, धर्म तथा व्यक्ति स्वातन्त्र्य, जीवन और धर्म, युद्ध और अहिंसा, अणुव्रत आन्दोलन आदि विषयों पर आचायश्री का विचारोत्तेजक विवेचन, 'क्या धर्म बुद्धिगम्य है ?' ग्रन्थ में प्राप्त होता है। जैन दर्शन का संक्षिप्त निरूपण करते हुए आचार्यश्री ने तत्व क्या है, तत्वचर्चा के बाद तीन सन्देश में आदर्श राज्य की अपनी परिकल्पना दी है। साथ ही साथ धर्म के सन्देश व धर्म के रहस्य को भी सहज सरल भाषा में आचार्यश्री ने बहजन हिताय. बहुजनमुखाय प्रस्तुत किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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