Book Title: Acharya Tulsi Ek Sahityik Mulyankan Author(s): Bhanvar Surana Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf View full book textPage 1
________________ .. .. ... ............ .. .. ...... ............................ ............... आचार्य तुलसी : एक साहित्यिक मूल्यांकन 0 डॉ० भंवर सुराणा विशेष संवाददाता, हिन्दुस्तान जयपुर, (राजस्थान) धर्म संघ का संगठन, गण और गणाधिपति की मर्यादा, साधु का आचार, विचार, विहार और व्यवहार निभाते हुए आचार्य तुलसी ने भगवान महावीर की उग्र जनकल्याणकारी भावनाओं को अपनाकर बुद्ध की इस शिक्षा को जीवन में उतारा है "चरत भिक्खवे चारिकां बहुजन हिताय बहुजन सुखाय" तेईसवें जैन तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ और चौबीसवें जैन तीर्थंकर भगवान महावीर के जीवन से, उपदेशों से प्रेरणा लेकर आचार्य तुलसी ने समस्त भारत को अणुव्रत का पावन सन्देश सुनाया, नैतिक जीवन के प्रति निष्ठा जगाई और जीवन में श्रद्धा को उचित स्थान दिलाने का प्रयत्न किया। आचार्य तुलसी ने भारत के सुदूर प्रान्तों में विचरण करते हुए निर्बाध गति से अपने साहित्य सृजन के कार्य को भी निरन्तर जारी रखा है। उनके द्वारा किये गये साहित्य सृजन को तीन खण्डों में वर्गीकृत किया जा सकता है। जैन शास्त्रों का संपादन, धर्म के प्रतिपादन तथा अपनी परम्परा से प्राप्त गण इतिहास से सम्बन्धित साहित्य तथा जीवन दर्शन व अन्य साहित्य, ये तीन वर्ग हैं । आचार्य तुलसी ने अपने गुरु आचार्य कालगणि के पास दीक्षित होने के बाद न केवल व्याकरण, तर्कशास्त्र, आगम सिद्धान्त, दर्शन तथा साहित्य का ही सांगोपांग अध्ययन किया अपितु उसी साधनाप्रवाह में संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी तथा राजस्थानी भाषा व साहित्य का भी गहन अध्ययन किया। आचार्य तुलसी ने संस्कृत में जैन तत्त्वज्ञान, जैन न्याय, जैन साधना पद्धति, संघ व्यवस्था सम्बन्धी जैनसिद्धान्त दीपिका, भिक्ष न्यायकणिका, मनोनुशासनम्, पंचसूत्रम् आदि ग्रन्थों की रचना की है। जैन सिद्धान्त दीपिका में उन्होंने जैन परम्परा के अनुसार द्रव्य, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश, लोक, जीव, पुद्गल, संयोग, अलोक, परमाणु, स्कन्ध रचना, कालभेद, अनन्त प्रदेश, धर्म, अधर्म, पर्याय, तत्व, उपभोग, ज्ञान, धारणा, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मतिज्ञान, मनपर्याय ज्ञान, केवलज्ञान, अज्ञान, दर्शन, इन्द्रिय, मन, भाव, कर्म की परिभाषा एवं भेद पर विस्तार से प्रकाश डाला है । बन्ध, पुण्य, पाप, आश्रव, मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय, योग, लेश्या, संवर, सम्यक्त्व, करण, अप्रमाद, अकषाय, अयोग, निर्जरा, तपस्या, मोक्ष, सिद्ध, मुक्त, आत्मा, सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चरित्र की परिभाषा तथा प्रकार का परिचय प्रस्तुत करते हुए आचार्य तुलसी ने पंच-महाव्रतों का महत्त्व एवं उनकी पालना का विवेचन करते हुए विस्तार से वर्णन किया है । अणुव्रत, शिक्षाव्रत, श्रावक के मनोरथ, देव, गुरु, धर्म परिचय, लोक धर्म व धर्म की समानता व भिन्नता का उल्लेख करते हुए उन्होंने विशेष व्याख्यात्मक टिप्पणी व पारिभाषिक शब्द कोष भी जिज्ञासु-पाठकों के निमित्त दिया है। - --- -- 0 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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