Book Title: Acharya Kundkunda Ek Parichay Author(s): Bhanvarlal Polyaka Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan View full book textPage 9
________________ ये ससंघ दक्षिण में चले गये । उस अकाल में शेष रहे त्यागी -मुनियों के आचरण में शिथिलता आ गई और तभी भगवान् महावीर के उपासक दिगम्बर और श्वेताम्बर इन दो परम्पराओं में विभक्त हो गये । काल-प्रवाह के साथ-साथ लोगों की धीरे-धीरे क्षीण होती जा रहीं स्मरणशक्ति से ग्यारह अंगों का ज्ञान तो लुप्तप्रायः ही हो गया । बारहवें अंग 'दृष्टिवाद' के पांच भेदों - १. परिकर्म, २. सूत्र, ३. प्रथमानुयोग, ४. पूर्वगत और ५. चूलिका में से केवल चौथे भेद 'पूर्वगत' के कुछ अंशों के ज्ञाता ही शेष रहे । पूर्वगत के चौदह भेद हैं उनमें से पांचवें पूर्व के एक अंश का ज्ञान आचार्य कुन्दकुन्द को अपनी गुरु-परम्परा से प्राप्त हुआ । श्राचार्य कुन्दकुन्द की रचनाओं का सम्बन्ध द्रव्यानुयोग एवं चरणानुयोग से है । ग्रात्मा और तत्त्व का विभिन्न दृष्टिकोणों से १. उत्पाद, २. अग्रायणी, ३. वीर्यप्रवाद, ४. अस्तिनास्तिप्रवाद, ५. ज्ञानप्रवाद, ६ सत्यप्रवाद, ७. श्रात्मप्रवाद, ८. कर्मप्रवाद ६. प्रत्याख्यानप्रवाद १०. विद्यानुवाद, ११. कल्याण, १२. प्रारणावाय १३. क्रियाविशाल और १४. लोकबिन्दुसार । २ जैन धार्मिक साहित्य की चार विधाएं हैं १. प्रथमानुयोग = जैन इतिहास । इसमें उन महापुरुषों की चरितकथाएं होती हैं जिन्होंने ग्रात्मशोधन कर मुक्ति को प्राप्त कर लिया है या प्राप्त करनेवाले हैं । २. करणानुयोग = जैन भूगोल । इसमें पृथ्वी, लोक- अलोक आदि का वर्णन होता है । ३. चरणानयोग = जैन नीतिशास्त्र या श्राचारशास्त्र । इसमें मानव के कर्तव्य कर्त्तव्य का निरूपण होता है । -श्र ४. द्रव्यानुयोग = जैन तत्त्वविज्ञान । इसमें लोक में विद्यमान द्रव्य, तत्त्व पदार्थ व उनकी व्यवस्था का वर्णन है । ४ ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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