Book Title: Acharya Kundkunda Ek Parichay
Author(s): Bhanvarlal Polyaka
Publisher: Jain Vidyasansthan Rajasthan

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Page 14
________________ वक्रग्रीव नाम के सम्बन्ध में भी दो जनश्रुतियां प्रचलित हैं १. सीमंधरस्वामी का समवसरण इतना ऊंचा था कि उनका दिव्य उपदेश सुनने के लिए उनको अपनी गर्दन ऊंची रखनी पड़ी जिससे अकड़कर उनकी गर्दन टेढ़ी हो गई। २. वे सदा शास्त्र-लेखन/पठन में दत्तचित्त रहते थे, अतः सदा झुकी रहने से ही उनकी गर्दन (ग्रीवा) टेढ़ी हो गई। कहा जाता है बाद में प्राचार्यश्री ने अपने योगबल से अपनी गर्दन का बांकपन ठीक कर लिया था। कुछ भी सही, इससे इतना तो स्पष्ट है कि वे सदा ही ज्ञान, ध्यान और तप में लीन रहनेवाले सच्चे दिगम्बर साधु थे। ___ आचार्य कुन्दकुन्द ने इस भारतभू को अपने जन्म से उस समय पवित्र किया जब जनसंघ दो भागों में विभक्त हो चुका था। मानव का स्वभाव है कि वह कुमार्ग की ओर सरलता से आकृष्ट होता है, झुकता है, बहते पानी की तरह बिना प्रयत्न ही पतन की ओर चल पड़ता है। जैनसंघ की उस पतन की ओर उन्मुख प्रवृत्ति की प्राचार्यश्री ने तीव्र शब्दों में भत्स्ना की और उसे रोकने का भरसक प्रयास किया। इसके लिए उन्होंने शिथिलाचारियों को तो 'ज्ञान' के अधिकार का अपात्र माना ही साथ ही उन शिथिलाचारियों को नमस्कार करनेवालों, उनका आदर करनेवालों को भी अपात्र बताया। उन्होंने दर्शन पाहुड़ में कहा है जे सणेसु भट्ठा पाए पाडंति दंसरणधराणं । ते होंति लल्लमूना बोही परण दुल्लहा तेसि ॥१२॥ जे वि पडंति च तेसिं जाणंता लज्जागारवभयेण । तेसि पि पत्थि बोही पावं अणुमोयमारणारणं ॥१३॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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