Book Title: Acharya Hastimalji ki Agam Sahitya ko Den Author(s): Udaychandra Jain Publisher: Z_Jinvani_Acharya_Hastimalji_Vyaktitva_evam_Krutitva_Visheshank_003843.pdf View full book textPage 3
________________ ● प्राचार्य श्री हस्तीमलजी म. सा. तत्त्वों को उजागर करने वाला 'उत्तराध्ययन सूत्र' महावीर की अन्तिम देशना 'सत्यं शिवम् सुन्दरम्' का रूप देने में अवश्य ही सम्माननीय एवं शिरोमणि बना । 'उत्तराध्ययन' के ३६ अध्ययन के विवेचन को सरल राष्ट्रभाषा में तीन खण्डों में विभक्त करके विद्वानों एवं स्वाध्यायी जनों के सम्मुख रखा गया, उससे भौतिक वैभव में आसक्त जनों के लिए अवश्य ही मार्ग-निर्देश प्राप्त होगा । स्वाध्याय-सामायिक के प्रेरक मनीषी चिन्तक परम आराध्य आचार्यश्री ने आगम की दूरदर्शिता को ध्यान में रखकर जो कार्य किया, उससे ऐसा लगता है कि वे धर्मनीति, तत्त्व- चिन्तन, सम्यक् श्रद्धा, तत्त्व बोध को जीवन से जोड़ देना चाहते हैं । इसलिए 'उत्तराध्ययन' में उन्होंने अन्वयार्थ, भावार्थ, शब्द - विश्लेषण, अर्थ - विश्लेषण आदि को खोलने के लिए सदैव प्रयत्न किया करवाया । प्रस्तुत 'उत्तराध्ययन सूत्र' सर्वोपयोगी कहा जा सकता है । प्राचार्य श्री की सर्वग्राही सूक्ष्मदृष्टि बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय की रही है । उन्होंने समाज में मानवीय गुणों का संचार करने का प्रथम कदम स्वाध्याय एवं सामायिक से ही उठाया । फलस्वरूप आगम-स्वाध्याय की रुचि बढ़ी । मुनियों के अतिरिक्त गृहस्थों ने भी 'उत्तराध्ययन' जैसे सूत्रों के आधार पर रसानुभूति लेना शुरू कर दिया । इसका प्रत्येक अध्ययन पहले रहस्य को खोलता है, जिससे साधारण स्वाध्यायी भी लाभ लेने में समर्थ हो सका । प्रवचन साहित्य : अन्तःकरण की गहराई को छू जाने वाले चिन्तन पूर्ण प्रवचन आत्मा से निकलते हैं, आत्मा का स्पर्श करते हैं, चिन्तन मनन और आचार-विचार पर बल देते हैं । श्रागम में कहा है • १०३ गुण-सुट्ठियस्स वयणं, घय-परिसित्तुव्व पावनो भवइ । गुणहीणस्स न सोहइ, नेहबिहीरणो जह पईवो || अर्थात् गुण संयुक्त व्यक्ति के वचन घृत सिंचित श्रग्नि की तरह तेजस्वी एवं पवित्र होते हैं, किन्तु गुणहीन व्यक्ति के वचन स्नेह रहित दीपक की भांति निस्तेज और अन्धकार युक्त होते हैं । आचार्य श्री का उद्बोधन ऐसा ही है, जहाँ प्रागम का सम्पूर्ण चिन्तन उभर आया है । उन्होंने कहा Jain Educationa International ज्ञान आत्मा का गुण है, ज्ञान के बिना श्रद्धा की पवित्रता नहीं आती है । स्वाध्याय करो, ज्ञान प्राप्त करो । ( गजेन्द्र व्या. भाग ६ ) आपके व्याख्यानों का मूल स्रोत प्रागम ही रहा है । श्रागम को मूल आधार बनाकर जो कुछ विवेचन For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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