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श्राचार्य श्री की श्रागमसाहित्य को देन
डॉ० उदयचन्द्र जैन
अध्यात्म -उपवन के प्रबुद्ध एवं कुशल माली युग-युगान्तर तक नन्हें-नन्हें बोध, ज्ञानशून्य को ज्ञान रूपी जल प्रदान कर प्रतिदिन संरक्षण करने में सहायक होते हैं । उनकी चिन्तन- दृष्टि से, उनकी साधना से, उनके आगमिक दिशाबोध से एवं उनकी सृजनात्मक कला से अभिनव संकेत सतत प्राप्त होते रहते हैं । तीत तो प्रतीत है, वर्तमान में अनेक लोग ऐसे महापुरुषों के संयम, साधना, तप और त्याग की आराधना से महापथ की ओर अवश्य ही अग्रसर होते हैं ।
आचार्य श्री हस्तीमलजी एक महामहिम व्यक्तित्व के धनी हैं । जिनके सिद्धान्त में चिन्तन है, विश्व कल्याण की भावना है तथा रसपूर्ण मीठे मधुर फल हैं, आत्म पोषक तत्त्व हैं । उनकी आगम की अनुपम दृष्टि ने आगम में सरसता एवं ज्ञान-विज्ञान का महा आलोक भर दिया। उनके बहु-आयामी व्यक्तित्व में जीवन की गहनता, जीवन की वास्तविक अनुभूति, प्राध्यात्मिक नीर का अविरल प्रवाह, सांस्कृतिक अध्ययन एवं श्राचार-विचार के तलस्पर्शी अनुशीलन की प्रतिभा है । आगम के आप सन्दर्भ हैं, इतिहास के पारखी हैं तथा आपके प्रकाण्ड पाण्डित्य ने सम्यग्ज्ञान के प्रचार में जो सहयोग दिया, वह सामायिक और स्वाध्याय के रूप में मुखरित होता रहेगा ।
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तीर्थंकरों के अर्थ को और गणधरों के सूत्र को सफल सन्देश वाहक की तरह जन-चेतना के रूप में प्राचार्य श्री ने जो कार्य किया, उससे आगम के चिन्तन में 'सुगमता उत्पन्न हुई । गीति, कविता, कहानी, सैद्धान्तिक प्रश्नोत्तरी, प्रबचन आदि ने जन-जन के मानस में त्याग, धार्मिक भावना और वैराग्य के स्वरों को भरने का जो कार्य किया, वह अपने आप में स्तुत्य है । आचार्य श्री आगम- रसज्ञ थे, इसलिए गम को आधार बनाकर 'जैनधर्म के मौलिक इतिहास' के हजारों पृष्ठ लिख डाले, जो न केवल आगम के प्रकाश स्तम्भ हैं, अपितु इतिहास के स्थायी स्तम्भ तथा उनकी आरम्भिक साधना के श्रेष्ठतम ज्योतिपुंज हैं जो युगयुग तक महान् श्रात्मा के आलोक को आलोकित करते रहेंगे । आपकी आगम eft को निम्न बिन्दुओं के आधार पर नापा-तोला, जांचा-परखा जा सकता है । श्रागमिक साहित्य :
आचार्य श्री की अनुभूति आगम के रस का मूल्यांकन करने में अवश्य सक्षम रही है। प्राकृत के जीवन्त प्रारण कहलाने वाले श्रागम जैसे ही उनकी चिन्तन-धारा के अंग बने, वैसे ही कुछ आगमों को अपनी पैनी दृष्टि से देखकर
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• व्यक्तित्व एवं कृतित्व
उनके रहस्य को खोल डाला । स्वाध्यायशील व्यक्तियों की दृष्टि को ध्यान में रखकर कुछेक आगमों को जन-जन तक पहुँचाने के लिए जो कदम उठाया, उससे स्वाध्याय प्रेमी जितने अधिक लाभान्वित हुए, उससे कहीं अधिक शोधार्थियों के लिए जो शोधपूर्ण सामग्री मिली, वह अवश्य ही प्रशंसनीय कही जा सकती है। जिस संस्कृत-निष्ठ एवं क्लिष्ट सिद्धान्त के गम्भीर तत्त्वों से समन्वित टीका के लक्ष्य को ध्यान में रखकर कार्य कराया गया, वह उनकी आध्यात्मिक साधना की एक विशिष्ट उपलब्धि कही जा सकती है।
आगम का सम्पूर्ण चिन्तन कुछेक शब्दों में कह पाना सम्भव नहीं, परन्तु उनके साहित्य से जो आलोक प्राप्त हुआ, उसी दृष्टि को आधार बनाकर कुछ लिख पाना या कह पाना सूर्य को दीपक दिखाने जैसी ही दृष्टि होगी। फिर भी उनका मौलिक चिन्तन यही हो सकता है :
१. प्रागम की प्राध्यात्मिक साधना २. आगम की दिव्य कहानियाँ ३. आगम के धर्म-चिन्तन के स्वर ४. आगम का आचार-विचारपूर्ण दर्शन ५. आगम के उपदेशात्मक, प्रेरणात्मक प्रसंग ६. आगम के तात्त्विक क्षण ७. आगम के ऐतिहासिक तथ्य ८. आगम का इतिहास ६. ऐतिहासिक पुरुष एवं नारियाँ १०. पौराणिक पुरुष एवं नारियाँ ११. साधना की कुञ्जी।
इसके अतिरिक्त कई साहित्यिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, दार्शनिक, कलात्मक एवं वैज्ञानिक तथ्य खोलकर आचार्य श्री ने हमारे सामने रख दिये जिससे हमारे आदर्श (आगम) भारत की सांस्कृतिक धार्मिक आदि की गाथा स्पष्ट हो सकी।
प्राचार्य श्री की मूल भावना स्वाध्याय को बढ़ाना रहा है, इसलिए उन्होंने स्वाध्याय के बहु-पक्षी आगमों को प्रकाश में लाना ही उचित समझा होगा। आचार्य श्री के 'बृहत्कल्प-सूत्र', 'सिरि अंतगड-दसाओ' सूत्र अनुभव का अभिनव आलोक बनकर मानवीय गुणों के प्रतिष्ठान में सहायक हुए। उन्हीं के निर्देशन में शिक्षा, शिक्षक, स्वाध्याय, सामायिक, तप-त्याग, एवं सम्यक्त्व के प्रधान
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● प्राचार्य श्री हस्तीमलजी म. सा.
तत्त्वों को उजागर करने वाला 'उत्तराध्ययन सूत्र' महावीर की अन्तिम देशना 'सत्यं शिवम् सुन्दरम्' का रूप देने में अवश्य ही सम्माननीय एवं शिरोमणि बना । 'उत्तराध्ययन' के ३६ अध्ययन के विवेचन को सरल राष्ट्रभाषा में तीन खण्डों में विभक्त करके विद्वानों एवं स्वाध्यायी जनों के सम्मुख रखा गया, उससे भौतिक वैभव में आसक्त जनों के लिए अवश्य ही मार्ग-निर्देश प्राप्त होगा ।
स्वाध्याय-सामायिक के प्रेरक मनीषी चिन्तक परम आराध्य आचार्यश्री ने आगम की दूरदर्शिता को ध्यान में रखकर जो कार्य किया, उससे ऐसा लगता है कि वे धर्मनीति, तत्त्व- चिन्तन, सम्यक् श्रद्धा, तत्त्व बोध को जीवन से जोड़ देना चाहते हैं । इसलिए 'उत्तराध्ययन' में उन्होंने अन्वयार्थ, भावार्थ, शब्द - विश्लेषण, अर्थ - विश्लेषण आदि को खोलने के लिए सदैव प्रयत्न किया करवाया । प्रस्तुत 'उत्तराध्ययन सूत्र' सर्वोपयोगी कहा जा सकता है । प्राचार्य श्री की सर्वग्राही सूक्ष्मदृष्टि बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय की रही है । उन्होंने समाज में मानवीय गुणों का संचार करने का प्रथम कदम स्वाध्याय एवं सामायिक से ही उठाया । फलस्वरूप आगम-स्वाध्याय की रुचि बढ़ी । मुनियों के अतिरिक्त गृहस्थों ने भी 'उत्तराध्ययन' जैसे सूत्रों के आधार पर रसानुभूति लेना शुरू कर दिया । इसका प्रत्येक अध्ययन पहले रहस्य को खोलता है, जिससे साधारण स्वाध्यायी भी लाभ लेने में समर्थ हो सका ।
प्रवचन साहित्य :
अन्तःकरण की गहराई को छू जाने वाले चिन्तन पूर्ण प्रवचन आत्मा से निकलते हैं, आत्मा का स्पर्श करते हैं, चिन्तन मनन और आचार-विचार पर बल देते हैं । श्रागम में कहा है
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गुण-सुट्ठियस्स वयणं, घय-परिसित्तुव्व पावनो भवइ । गुणहीणस्स न सोहइ, नेहबिहीरणो जह पईवो ||
अर्थात् गुण संयुक्त व्यक्ति के वचन घृत सिंचित श्रग्नि की तरह तेजस्वी एवं पवित्र होते हैं, किन्तु गुणहीन व्यक्ति के वचन स्नेह रहित दीपक की भांति निस्तेज और अन्धकार युक्त होते हैं ।
आचार्य श्री का उद्बोधन ऐसा ही है, जहाँ प्रागम का सम्पूर्ण चिन्तन उभर आया है । उन्होंने कहा
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ज्ञान आत्मा का गुण है, ज्ञान के बिना श्रद्धा की पवित्रता नहीं आती है । स्वाध्याय करो, ज्ञान प्राप्त करो । ( गजेन्द्र व्या. भाग ६ ) आपके व्याख्यानों का मूल स्रोत प्रागम ही रहा है । श्रागम को मूल आधार बनाकर जो कुछ विवेचन
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किया, वह निश्चित ही जीवों के लिए ज्ञान, क्रिया, चरित्र, तप, ध्यान, स्वाध्याय एवं सामायिक आदि पर चिन्तन करने की प्रेरणा देता है । उनके व्याख्यानों के कुछ सूत्र इस प्रकार हैं :
-:
·
व्यक्तित्व एवं कृतित्व
१. चातुर्मास - दोष परिमार्जन करने का साधन है । आलोचना, प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान आवश्यक क्रियाएँ हैं । आलोचना में दोषों का स्मरण, प्रतिक्रमण में भूलों या गलतियों का स्वीकार करना, गलती को कबूल कर पुन: उसे नहीं दुहराना । इत्यादि (ग. व्या. भाग ६, पृ. ८-१२ )
उक्त के भेद-प्रभेद आगम के सूत्रों के आधार पर ही प्रस्तुत किये हैंखवेत्ता पुव्व- कम्माई संजमेण तवेण य ।
२. मोक्ष के दो चरण - ( १ ) ज्ञान और (२) क्रिया
ना
जाणई भावे, दंसणेण य सहे ।
चरिते निगिण्हाइ, तवेणं परिसुज्जई ।। (उ. २८ / ३५ )
३. बंधन - मुक्ति - ज्ञान वह है जो हमारे बन्धन को काटे । (ग. ६, पृ. ३२ ) ४. विनय - ज्ञान, दर्शन और चारित्र का कारण है । (पृ. ४० ) विनय में विनय के सात भेद गिनाएँ हैं । विनय करने योग्य अरहंतादि हैं ।
५. धर्म -- कामना की पूर्ति का साधन अर्थ है और मोक्ष की पूर्ति का साधन धर्म है । 'दशवैकालिक' सूत्र के “धम्मो मंगलमुक्किट्ठ" का आधार बनाकर धर्म की व्याख्या की है । (ग. ६, पृ. ५६ - ११६)
६. जयं चरे, जयं चिट्ठ े - आचार, विचार एवं आहार की विशुद्धता है । ७. प्रात्मिक श्रावश्यक कर्म-ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, वीतराग धर्म की आराधना, अहिंसा की साधना, दान, संयम आदि (पृ. १३४ - १४७ )
८. श्रात्म-शान्ति के लिए धर्माचरण - कामना का क्षेत्र तन है, कामनाओं का उपशम धर्म से करें ।
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६. त्यागी कौन ? दीक्षा भी त्याग, संत समागम भी त्याग, वैयावृत्य भी त्याग, इच्छात्रों का निरोध भी त्याग ।
१०. संस्कारों का जीवन पर प्रभाव -
११. किमाह-बंधणं वीरो (ग. भाग ३. पृ. ८)
१२. परिग्रह कैसा ? सचित्त और चित्त (पृ. २० ) मुच्छा परिग्गहो वृत्तो (पृ. १४)
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________________ * प्राचार्य श्री हस्तीमलजी म. सा. * 105 13. ज्ञान प्राप्ति के मार्ग-१. सुनकर और 2. अनुभव जगाकर / जिस तत्त्व के द्वारा धर्म, अधर्म, सत्य, असत्य जाना जाय वह ज्ञान है, ज्ञान प्रात्मा का गुण है। 14. संत-सती समाज भी जिनशासन की फौज भी। . संताप हारिणी जिनवाणी की पवित्र पीयूषमयी रसधारा प्रवाहित करें। कथा-साहित्य-धार्मिक एवं मानस को झकझोरने वाली हैं उनकी धार्मिक कहानियाँ / कथा प्रवचन की प्रमुखता है, प्राचार्य श्री ने आगम के सैद्धान्तिक कथानकों को आधार बनाकर सर्वत्र आगम के रहस्य को खोला है। मूर्छा के लिए राजपुत्र गौतम, आर्द्रकुमार का उदाहरण / सामायिक, स्वाध्याय, तप आदि से पूर्ण कथानक प्रायः सर्वत्र दिखाई पड़ते हैं / तप के लिए चंदना / चोर, साहूकार आदि के उदाहरण भी हैं। काव्यात्मक दृष्टि-मन के विचारों को किसी न किसी रूप में अवश्य लिखा जाता है। यदि विचार कवितामय बन गया तो गीत धार्मिक, आध्यात्मिक और सामाजिक भावों से परिपूर्ण मानव को सजग करने लगता है। कभी काव्यचिंतन रूप में होता है, कभी भावना प्रधान, धर्मप्रधान, संयम प्रधान / जैसे : सुमति दो सुमतिनाथ भगवान् / सिद्ध स्वरूप-अज, अविनाशी, अगम, अगोचर, अमल, अचल, अविकार / जीवन कैसा-जिसमें ना किसी की हिंसा हो (पृ. 61, भाग 6) साधु-शान्त दान्त ये साधु सही (पृ. 125) पाराधना-षड्कर्म आराधन की करो कमाई / (पृ. 142) स्वाध्याय-बिन स्वाध्याय ज्ञान नहीं होवे / (पृ. 194) महावीर शिक्षा-घृणा पाप से हो, पापी से कभी नहीं / सुन्दर-सुन्दर एक सन्तोष / परिग्रह-परिग्रह की इच्छा सीमित रख लो। आगम के सजग प्रहरी ने आगम के रहस्य को सर्वत्र खोलकर रख दिया। जिनागम के प्रायः सभी आगमों का सार आपके चिन्तन में है / किन्तु आचारांग, सूत्रकृतांग, ठाणांग, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, नन्दि, कल्पसूत्र आदि के उदाहरण आपकी आगम-साधना पर विशेष बल देते हैं। -पिऊकुंज, अरविन्द नगर, उदयपुर-३१३००१ 000 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only