Book Title: Acharang ke Kuch Mahattvapurna Sutra Ek Vishleshan Author(s): Surendra varma Publisher: Z_Mohanlal_Banthiya_Smruti_Granth_012059.pdf View full book textPage 6
________________ 'अरति' (अरइ) का अर्थ जहाँ एक ओर बैचैनी और अशांति से है, वहीं दूसरी ओर, विरक्ति या राग के अभाव को भी 'अरति' कहा गया है। किन्तु 'अरिइ आउट्टे' राग को अभाव से निवृत्ति नहीं है, वह तो स्वयं राग से - असंयम से निवृत्ति है। संयम में रति और असंयम में अरति करने से चैतन्य और आनंद का विकास होता है । संयम में अरति और असंयम में रति करने से उसका ह्रास होता है । 'अरिइं आउट्टे' संयम से होने वाली 'अरति' (विरत्ति) का निवर्तन है ( पृ० १०६ ) | असंज मे नियत्तिं च, संजमे य पवत्तणं । जो व्यक्ति मंदमति है, सतत मूढ़ है। वह धर्म को नहीं समझता । सततं मूढे धम्मं णाभिजाणइ (८८/६३ ) | दूसरी ओर जो व्यक्ति आज्ञा (धर्म) में श्रद्धा रखता है, वह मेधावी है- सडढो आणाए मेहावी ( १४०/८० ) । मेधावी सदा धर्म का पालन करता है और निर्देश का कभी अतिक्रमण नहीं करता । णिद्दे सं णातिवट्टेज्जा मेहावी (२०२/११५) । आयारो में मेधावी, धीर, वीर आदि शब्द लगभग समानार्थक हैं। जो मेधावी नहीं है, वह मंदमति है; जो धीर नहीं है वह आतुर है; जो वीर नहीं है, वह कायर है। संसार में दो प्रकार के व्यक्ति है । एक वर्ग मेधावी, धीर और वीर पुरूषों का है और दूसरा मंदमति, आतुर और कायर लोगों का है । जो मेधावी हैं वे धीर भी हैं। जो मंदमति हैं वे आतुर और कायर भी हैं। दर्शन-दिग्दर्शन वीर पुरुष कौन है ? वीर पुरुष हिंसा में लिप्त नहीं होता-ण लिप्पई छणपसण वीरे (१०६- १८० ) । और मेधावी अहिंसा के मर्म को जानता है-रो मेधावी अणुग्धायणरय ख यण्णे (१०६-१८१)। इसके विपरीत कायर मनुष्य हिंसक होते हैं ; विषयों से पीड़ित, विनाश करने वाले भक्षक और क्रूर होते हैं। हिंसा की अपेक्षा से कायर दुर्बल नहीं है और न ही वीर बलवान है । बसट्टा कायरा जणा लूसगा भवंति - विषयों में लिप्त कायर व्यक्ति 'लूषक' (हिंसक, भक्षक, प्रकृति-क्रूर) होता है। धीर पुरुष धैर्यवान है। आतुर अधीर हैं । आतुर लोग हर जगह प्राणियों को दुःख और परिताप देते हैं, इसे स्पष्ट देखा जा सकता है - तत्थ तत्थ पुढो पास, आतुरा परितावेंति ( ८ / १५ ) । इसका कारण है। आतुर मनुष्य आसक्ति से ग्रस्त होता है। यही आसक्ति मनुष्य को आशा/निराशा के झूले में झुलाती है और उसे स्वेच्छाचारी बनाती है । किंतु धीर पुरुष वह है जो इस आशा और स्वच्छंदता को छोड़ देता है - आसं च छंदं च विगिंच धीरे (८८/८६) । Jain Education International 2010_03 २२७ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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