Book Title: Acharang Sutra me Samta ka Swarup
Author(s): Manmal Kudal
Publisher: Z_Jain_Vidyalay_Granth_012030.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 4
________________ को ऊँचा उठा कर नीचे गिरा देते थे। किन्तु भगवान शरीर का इस प्रकार हम देखते हैं कि आचारांगसूत्र में समता के व्युत्सर्ग किये हुए परिषह सहन करने के लिए प्रणबद्ध, कष्ट सहिष्णु, महत्वपूर्ण सूत्र संग्रहित हैं जो आत्म दृष्टि-अहिंसा-समता, वैराग्य, दुःख प्रतिकार की प्रतिज्ञा से मुक्त थे। अतएव वे इन परिषहों, अप्रमाद, अनासक्ति, निस्पृहता, निस्संगता, सहिष्णुता, ध्यानसिद्धि, उपसर्गों से विचलित नहीं होते थे।५४ जैसे कवच पहना हुआ योद्धा उत्कृष्ट संयम-साधना, तप की आराधना, मानसिक पवित्रता और युद्ध के मोर्चे पर शस्त्रों से बिद्ध होने पर भी विचलित नहीं होता है आत्मशुद्धि-मूलक पवित्र जीवन में अवगाहन करने की प्रेरणा देते हैं। वैसे ही समता-संवर का कवच पहने हुए महावीर उस देश में पीड़ित इसमें मूल्यात्मक चेतना की सबल अभिव्यक्ति हुई है। इसका प्रमुख होने पर भी कठोरतम कष्टों का सामना करते हुए मेरु पर्वत की उद्देश्य समता पर आधारित अहिंसात्मक समाज का निर्माण करने के तरह ध्यान में निश्चल रहकर समता (मोक्षपथ) में पराक्रम करते लिए व्यक्ति को प्रेरित करना है, जिससे समाज के आधार पर सुखथे।५५ दो मास से अधिक अथवा छ: मास तक भी महावीर कुछ शान्ति एवं समृद्धि के बीज अंकुरित हो सकें। हिंसा-अहिंसा के इतने नहीं खाते-पीते थे। रात-दिन वे राग-द्वेष रहित समता में स्थिर विश्लेषण के कारण ही 'आचारांग' को विश्व साहित्य में सर्वोपरि रहे।५६ वे गृहस्थ के लिए बने हुए आहार की ही भिक्षा ग्रहण करते स्थान दिया जा सकता है। “आचारांग" की घोषणा है कि प्राणियों के थे और उसको वे समतायुक्त बने रहकर उपयोग में लाते थे।५७ विकास में अन्तर होने के कारण किसी भी प्रकार के प्राणी के महावीर कषाय रहित थे। वे शब्दों और रूपों में अनासक्त रहते थे। अस्तित्व को नकारना अपने ही अस्तित्व को नकारना है।६० जब वे असर्वज्ञ थे तब भी उन्होंने साहस के साथ संयम पालन करते पूर्व प्रभारी एवं आगम योजना अधिकारी हुए एक बार भी प्रमाद नहीं किया।५८ महावीर जीवन पर्यन्त समता आगम-अहिंसा-समता एवं प्राकृत संस्थान, में स्थिर रहे।५९ पश्चिमी मार्ग, उदयपुर / संदर्भ ग्रन्थ 1) आचारांग सूत्र - 13-14, 103-109, 2) नियमसार - 25, 3) उत्तराध्ययन - 19/90-91, 4) गोम्मटसार जीवकाण्ड (टीका) 368, 5) जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययेन भाग 2, पृ. 313 -डॉ० सागरमल जैन, 6) भगवतीसूत्र 25/7/21-23, 7) जिनवाणी, सामायिक अंक पृ० 57, 8) धम्मपद - 183, 9) गीता - 6/32,10) गीता - 14/24-25, 11) गीता - 2/48,12) जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, पृ० 393-94, 13) "आयाखलु सामाइए, आया सामाइ यस्स अट्ठ।"- भगवतीसूत्र, 14) "अस्थि में आया उववाइए, नथि में आया / के अहं आसी, केवा इओ चुओ इहपेच्चा भविस्सामि / / "- आचारांगसूत्र - 1/1/1/3, 15) “सोहँ से आयावाई, लोगावाई, कम्मवाई, किरियावाई।"- आचारांगसूत्र - 1/1/1/45,16) जिनवाणी सामायिक अंक, पृ० 97, 17) आचारांगसूत्र - 1/1/1/4,18) आचारांगसूत्र - 1/1/1/5, 19) आचारांगसूत्र - 1/1/1/40,20) भावे कसायलोगो, अहिगारो तस्स विजएण - आचारांगटीका-१७५, 21) "काम नियतमई खलु संसारा मुच्चई खिप्पं।" -आचारांगटीका-१७७, 22) "जे गुणे से मूलट्ठाणे, जे मूलट्ठाणे से गुणे।"- आचारांग 2/1/63, 23) “इच्च त्थं गढिए लोए वसे पमत्ते।"-आचारांग-२/१/६३, 24) "णालं ते तव ताणाए वा सरणाए वा, तुमंपि सेसिं णालं ताणाए वा सखाए वा।" -आचारांग-२/१/६७, 25) “विमुका हुते जणा जे जणा पारगामिणो।", आचारांग-२/२/ 71, 26) "सव्वे पाणा पिआउया सुहसाया दुक्खपडिकूला अप्पियवह / पियजीविणो जीवितुकामा / सव्वेसिंजीवियं पियं / / " -आचारांग-२/३/ 78, 27) "उद्देसो पासगस्स णास्थि / "- आचारांग-२/३/८०, 28) "जे अणण्णदंसी से अणण्णारामें, जे अणण्णारामे से अणण्णादंसी ।।"आचारांग-२/६/१०१, 29) "उद्देसो पासगस्म णस्थि'- आचारांग-२/३/८०, 30) आचारांग पृ० 43/145-146, 31) "लज्जमाणा पुढा पासा।"- आचारांग पृ०८/१७, 32) "इह संति गया दविया णाव कंखंति।"- आचारांग पृ० 42/149, 33) "खणं जाणाहि पंडिए''आचारांग पृ० 74/24, 34) “अंतरं च खलु इमं संपेहाए-धीरे मुदुत्तमवि णो पमायए।" -आचारांग पृ०७२/११, 35) “अलं कुसलस्स पमाएणं।"- आचारांग पृ०८८/९५, 36) "उट्ठिए णो पमायए।" आचारांग पृ० 182/23, 37) "सुत्ता अमुणी मुणिणो सया जागरंति"आचारांग-३/१/१०६, 38) आचारांग - 3/3/123, 39) आचारांग - 3/2/127,40) "जे एगं जाणति से सव्वं जाणाति, जे सव्व जाणति से एगं जाणाति।"- आचारांग-३/४/१२९,४१) "णो लोगस्सेसणं चरे।"- आचारांग-४/१/१३३,४२) आचारांगसूत्र - पृ० 119, 43) "लोकस्सारं धम्मो धम्मपि य नाणसारियं बिति / नाणं संजनसारं, संजनसारं च निव्वाणं।" -आ० नियुक्ति गा० २४४-टीका से उद्धृत, 44) आचारांग पृ० 144,45) “संसघं परिजाणतो संसारे परिण्णाते भवति, संसयं अपरिजाजतो संसारे अपरिण्णाते भवति।" --आचारांग - 5/ 1/149, 46) आचारांग नियुक्ति गाथा 251,47) आचारांग नियुक्ति गाथा- 259-260,48 से 59) आचारांगसूत्र-नवम अध्ययन-सूत्र / 294,295, 296,299, 302, 303,304,305, 312,315, 329, 332 क्रमानुसार,६०) आचारांग चयनिका - डॉ० कमलचन्द सोगाणी-भूमिका . विद्वत खण्ड/६२ शिक्षा-एक यशस्वी दशक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 2 3 4