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O मानमल कुदाल
रूप आचारांग सूत्र जैन अंग-आगमों का प्रथम अंगसूत्र है। आचारांग में जिन विषयों का उल्लेख है वे इतने व्यापक और सामान्य हैं कि ग्यारह अंगों में से प्रत्येक अंग में किसी न किसी प्रकार उनकी चर्चा आती ही है। आचारांग का समस्त दर्शन अमूर्त चिंतन का परिणाम न होकर सहज प्रत्यक्षीकरण पर आधारित है। महावीर ने कभी यह नहीं कहा कि जो कुछ मैं कह रहा हूँ उसे आँख बंद कर सही मान ही लिया जाय। महावीर बार-बार हमें संसार (राग-द्वेष) की गतिविधियों को स्वयं देखने के लिए कहते हैं। आचारांग में इसके लिए उन्होंने "पास" शब्द का प्रयोग किया है। वस्तुत: वे हमें स्वतंत्र रूप से अपनी अनुभूतियों के द्वारा उन निष्कर्षों पर पहुँचने के लिए प्रेरित करते हैं जो स्वयं महावीर ने अपने अनुभव और प्रत्यक्ष से फलित किए थे। यह जैनियों का आचारदर्शन भी है।
जैन आचारदर्शन में आचरण के कुछ सामान्य नियम ऐसे हैं, जिनका पालन करना गृहस्थ और श्रमण दोनों के लिए आवश्यक है। इनमें षट् आवश्यक कर्म, दस धर्मों का परिपालन, दान, शील, तप
और भाव, बारह अनुप्रेक्षाएँ तथा समाधिमरण है। जैन आगमों में आवश्यक कर्म छ: माने हैं- सामायिक, स्तवन, वन्दन, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान।
सामायिक समत्ववृत्ति की साधना है। जैनाचारदर्शन में समत्व की साधना जीवन का अनिवार्य तत्व है। वह नैतिक साधना का अथ और इति दोनों है। समत्व साधना के दो पथ हैं, बाह्य रूप में वह सावध (हिंसक) प्रवृत्तियों का त्याग है२, तो आन्तरिक रूप में वह सभी प्राणियों के प्रति आत्मभाव (सर्वत्र आत्मवत् प्रवृत्ति) तथा सुख-दुःख, जीवन-मरण, लाभ-अलाभ, निन्दा-प्रशंसा में समभाव रखना है। सामायिक समभाव में है, रागद्वेष के प्रसंगों में मध्यस्थता रखने में है। माध्यस्थवृत्ति ही समता है। समता (सामायिक) कोई रूढ़ क्रिया नहीं, वह तो समत्ववृत्ति रूप पावन आत्मगंगा में अवगाहन है, जो समग्र राग-द्वेष जन्य कलुष को आत्मा से अलग कर मानव को विशद्ध बनाती है। संक्षेप में सामायिक (समता) एक ओर चित्तवृत्ति का समत्व है तो दूसरी ओर पाप विरति।५ समत्ववृति की यह साधना सभी वर्ग, सभी जाति और सभी धर्मवाले कर सकते हैं। किसी वेशभूषा और धर्म विशेष से उसका कोई सम्बन्ध नहीं है। कोई भी मनुष्य चाहे गृहस्थ हो या श्रमण, जैन हो या अजैन, समत्ववृति की आराधना कर सकता है। वस्तुत: जो समत्ववृत्ति की साधना करता है, वह जैन ही है चाहे वह किसी जाति, वर्ग या धर्म का क्यों न हो। एक आचार्य कहते हैं कि चाहे श्वेताम्बर हो या दिगम्बर, बौद्ध हो या अन्य कोई, जो भी समत्व वृत्ति का आचरण करेगा, वह मोक्ष प्राप्त करेगा, इसमें सन्देह नहीं है।
बौद्ध-दर्शन में भी यह समत्ववृत्ति स्वीकृत है। "धम्मपद' में कहा गया है कि सब फपों को नहीं करना और चित्त को समत्ववृत्ति में स्थापित करना ही बुद्ध का उपदेश है। गीता के अनुसार सभी प्राणियों के प्रति आत्मवत दृष्टि, सुख-दुःख, लोह-कंचन, प्रियअप्रिय और निन्दा-स्तुति, मान-अपमान, शत्रु-मित्र में समभाव और सावध (आरम्भ) का परित्याग ही नैतिक जीवन का लक्षण है।१० श्रीकृष्ण अर्जुन को यही उपदेश देते हैं कि हे अर्जुन! तू अनुकूल
और प्रतिकूल सभी स्थितियों में समभाव धारण कर।११ अपने निषेधात्मक रूप में सामायिक (समता) सावध कार्यों अर्थात् पाप कार्यों से विरक्ति है, तो अपने विधायक रूप में वह समत्वभाव की साधना है।१२ भगवती सूत्र में कहा है कि- "आत्मा ही सामायिक (समता) है और आत्मा ही सामायिक (समता) का प्रयोजन है।"१३ इस सूत्र में समत्वभाव को प्राप्त करने के लिए आत्मबोध का होना आवश्यक बतलाया गया है।
आचारांगसूत्र के प्रथम उद्देश्यक में ही हमें आत्मबोध का परिचय प्राप्त हो जाता है। सूत्र का प्रारम्भ ही अस्तित्व सम्बन्धी मानवीय जिज्ञासा से होता है। पहला ही प्रश्न है- इस जीवन के पूर्व मेरा
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अस्तित्व था या नहीं अथवा इस जीवन के पश्चात् मेरी सत्ता बनी रहेगी विजय का अधिकार है क्योंकि कषाय-लोक पर विजय प्राप्त करने या नहीं? मैं पूर्व जनम में कौन था? और मृत्यु के उपरान्त किस रूप वाला साधक काम-निवृत्त हो जाता है।२१ और काम निवृत्त साधक, में होऊँगा?१४ यही अपने अस्तित्व का प्रश्न मानवीय जिज्ञासा और संसार से शीघ्र ही मुक्त हो जाता है। मानवीय बुद्धि का प्रथम प्रश्न है, जिसे सूत्रकार ने सर्वप्रथम उठाया है। ग्रन्थकार कहते हैं कि- संसार का मल-आसक्ति है। अर्थात मनुष्य के लिए मूलभूत प्रश्न अपने अस्तित्व या सत्ता का ही है। जो गुण (इन्द्रिय-विषय है) वह (कषायरूप संसार का) मूल स्थान धार्मिक और नैतिक चेतना का विकास भी इसी अस्तित्व बोध या है और जो मूलस्थान है, वह गुण है। २२ मेरेपन (ममत्व) में आसक्त स्वरूप बोध पर आधारित है। मनुष्य की जीवन दृष्टि क्या और कैसी हुआ मनुष्य प्रमत्त होकर उनके साथ निवास करता है। वह रात-दिन होगी? यह बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि अपने परितप्त एवं तृष्णा से व्याकुल रहता है। २३ सूत्रकार कहते हैं कि अस्तित्व, अपनी सत्ता और स्व-स्वरूप के प्रति उसका दृष्टिकोण क्या हे पुरुष! न तो वे तेरी रक्षा करने और तुझे शरण देने में समर्थ हैं है? पाप और पुण्य अथवा धर्म और अधर्म की सारी मान्यताएँ और न तू ही उनकी रक्षा व शरण के लिए समर्थ है। २४ यहाँ अस्तित्व की धारणा पर ही खड़ी हुई है। इसीलिए सूत्रकार ने कहा है सूत्रकार ने प्रमाद परिमार्जन की बात कही है। लोभ पर विजय प्राप्त कि- जो इस 'अस्तित्व' या 'स्व-सत्ता' को जान लेता है वही करने के लिए सूत्रकार कहते हैं कि जो विषयों के दलदल से आत्मवादी है, लोकवादी है, कर्मवादी है और क्रियावादी है।१५ जब पारगामी होते हैं, वे वास्तव में विमुक्त हैं।२५ आचारांग की समता तक व्यक्ति अपनी सत्ता को नहीं पहचानता, स्व-स्वरूप का मान नहीं समस्त प्राणियों को सुख से जीने का संदेश देती है। सूत्रकार कहते करता, तब तक समता की ओर नहीं बढ़ पाता। जब व्यक्ति को स्व- हैं कि सब प्राणियों को आयुष्य प्रिय है। सभी सुख का स्वाद चाहते स्वरूप व इसकी सत्ता का भान हो जाता है, तभी वह समता की ओर हैं। दुःख से घबराते हैं। उनको वध (मृत्यु) अप्रिय है, जीवन प्रिय बढ़ता है। व्यक्ति को जब इस 'स्व' और 'पर' भाव की स्वाभाविक है। वे जीवित रहना चाहते हैं। सबको जीवन प्रिय है।२६
और वैभाविक दशा का यथार्थ श्रद्धान हो जाता है, तो वह सम्यक्त्व समता का लक्ष्य दृष्टाभाव को जागृत करना है। सूत्रकार कहते सामायिक (समता) करता है। जब 'स्व' और 'पर' का वास्तविक हैं कि जो द्रष्टा है (सत्यदर्शी), उसके लिए उपदेश की आवश्यकता ज्ञान प्राप्त कर लेता है, तो श्रुत सामायिक (समता) करता है और जब नहीं होती।२७ समताभाव के लिए आसक्ति को दूर करने का प्रयत्न 'पर' भाव से 'स्व-भाव' की ओर लौटता है तो चारित्र सामायिक किया जाता है। आचारांग में आसक्ति को शल्य कहा है। हे धीर (समता) करता है।१६
पुरुष! तू आशा और स्वच्छन्दता करने का त्याग कर दे।२८ समता आचारांग सूत्र में स्थान-स्थान पर स्व-स्वरूप का भान करवाया का लक्ष्य एकीभाव है, आत्मा में लीन हो जाना है। सूत्रकार कहते गया है तथा समत्ववृत्ति का उपदेश किया गया है। आचारांग की हैं कि जो अनन्य (आत्मा) को देखता है, वह अनन्य (आत्मा) में अहिंसा समतामय है। आश्रव-संवर का बोध कराते हुए सूत्रकार रमण करता है। जो अनन्य (आत्मा) में रमण करता है, वह अनन्य कहता है कि आत्मवादी मनुष्य यह जानता है कि मैने क्रिया की थी। (आत्मा) को देखता है। २८ आगे कहा है कि जो आत्मा को जान मैं क्रिया करता हूँ। मैं क्रिया करने वाले का भी अनुमोदन करूँगा। लेता है, उसके लिए उपदेश की आवश्यकता नहीं रहती। अर्थात् संसार में ये सब क्रियाएँ (कर्म-समारंभ) जानने तथा त्यागने योग्य द्रष्टा के लिए (सत्य का सम्पूर्ण दर्शन करने वालों के लिए) कोई हैं।१७ इसलिए सूत्रकार कहते हैं कि तू देख। आत्मसाधक उद्देश (उपदेश) नहीं है।२९। (समतादर्शी) लज्जमान है। इन षट् जीव निकायों की हिंसा नहीं आचारांग में भ० महावीर कहते हैं कि इस संसार में व्याप्त करता।१८ अणगार का लक्षण बताते हुए सूत्रकार कहते हैं कि आतंक और महाभय जिस व्यक्ति ने देख और समझ लिया है वही अहिंसा में आस्था रखने वाला अर्थात् समता में स्थित साधक यह हिंसा से निवृत्त होने में सफल हो सकता है।३० आतुर लोग स्थानसंकल्प करे कि प्रत्येक जीव अभय चाहता है, यह जानकर जो - स्थान पर परिताप पहुंचाते हैं वहीं दूसरी ओर देखो तो साधुजन हिंसा नहीं करता, वही व्रती है। इस अर्हत् शासन में जो व्रती है, समता का जीवन जीते हैं।३१ ऐसे शांत और धीर व्यक्ति देहासक्ति वही अणगार कहलाता है।१९ आचारांग की साधना समता की से मुक्त हो जाते हैं। ३२ इसलिए महावीर कहते हैं कि हे पंडित! साधना है। भावलोक में विचरण करने की साधना है। सूत्रकार तू क्षण को जान। ३३ सूत्रकार कहते हैं कि धैर्यवान पुरुषों को भावलोक के सम्बन्ध में कहते हैं कि भावलोक का अर्थ क्रोध, अवसर की समीक्षा करनी चाहिए और क्षण भर भी प्रमाद नहीं मान, माया और लोभ रूपी समूह है। २०. यहाँ उस भावलोक की करना चाहिए।३४ वास्तव में जिस व्यक्ति ने क्षण को पहचान लिया
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है वह एक पल का भी विलम्ब किये बिना अपने जन्म और मरण विषय में सन्देह) का परिज्ञान हो जाता है, उसे संसार के स्वरूप का की मुक्ति के लिए प्रयास प्रारंभ कर ही देगा। महावीर कहते हैं कि परिज्ञान हो जाता है। जो संशय को नहीं जानता, वह संसार को भी कुशल व्यक्ति को प्रमाद से क्या प्रयोजन? ३५ वे कहते हैं कि उठो नहीं जानता।४५ इसलिए सूत्रकार कहते हैं कि (समता में स्थित)
और प्रमाद न करो।३६ यही समता आचारांग सूत्र में भावशीत और साधक (समतादर्शी) संसारवृक्ष के बीज रूप कर्मो (कर्मबन्धों) के भावउष्ण, इन दोनों को समभावपूर्वक सहन करने का उपदेश किया विभिन्न कारणों को जानकर उनका परित्याग करें और कर्मों से है। कहा है कि- अमुनि (अज्ञानी) सदा सोये हुए हैं, तथा मुनि सर्वथा मुक्त (अवधूत) बनें।४६ । (ज्ञानी) सदैव जागते हैं।३७ समता में स्थित साधक के लिए सूत्रकार आचारांग की समता अन्त में विमोक्ष का निरूपण करती है। कहते हैं कि समस्त प्राणियों की गति और अगति को भलीभाँति 'विमोक्ष' का अर्थ परित्याग करना, अलग हो जाना है और विमोह जानकर जो दोनों अन्तों (राग और द्वेष) से दूर रहता है, वह समस्त का अर्थ है- मोह रहित हो जाना। तात्विक दृष्टि से अर्थ में कोई लोक में कहीं भी छेदा नहीं जाता, भेदा नहीं जाता, जलाया नहीं अन्तर नहीं है। बेड़ी आदि किसी बन्धन रूप द्रव्य से छूट जाना जाता और मारा नहीं जाता।३८
'द्रव्य विमोक्ष' है और आत्मा को बन्धन में डालने वाले कषायों समता की साधना सत्य की साधना है। सत्य में समुत्थान करने अथवा आत्मा के साथ लगे कर्मों के बन्धन रूप संयोग से मुक्त हो के लिए कहा है कि- हे पुरुष! तू सत्य को ही भलिभाँति समझ। जाना 'भाव-विमोक्ष' है।४७ इसे हम द्रव्य समता और भाव समता सत्य की आज्ञा (मर्यादा) में उपस्थित रहने वाला वह मेघावी मार की संज्ञा दे सकते हैं। (मृत्यु, संसार) को तर जाता है।३९ वह सत्यार्थी साधक क्रोध, समता का लेखा-जोखा हमें भ० महावीर के जीवन की मान, माया और लोभ को शीघ्र ही त्याग देता है। समता में स्थित घटनाओं से प्राप्त होता है, जो कि आचारांग सूत्र के 'उपधान-श्रुत' साधक के लिए कहते हैं कि जो एक (आत्मा) को जानता है, वह नामक अध्ययन में वर्णित है। सूत्रकार ने लाढ़देश की उत्तम सब को जानता है और जो सबको (संसार) जानता है, वह एक तितिक्षा-साधना का वर्णन करते हुए कहा है कि 'दुर्गम लाढ़देश' के आत्मा को जानता है।४° महावीर कहते हैं कि समताधारी साधक वज्रभूमि और थुभ्रभूमि नामक प्रदेश में भ० महावीर ने विचरण लोकेंषणा में न भटके।४१ जिस साधक में यह लोकेषणा बुद्धि नहीं किया था। वहाँ उन्होंने बहुत ही तुच्छ (उबड़-खाबड़) वासस्थानों व है, उसके अन्य प्रवृत्ति अर्थात् सावद्यारम्भ-हिंसा नहीं होगी। अथवा कठिन आसनों का सेवन किया था।४८ लाढ़देश के क्षेत्र में भगवान जिसमें सम्यक्त्व ज्ञाति नहीं है या अहिंसा बुद्धि नहीं है, उसमें दूसरी ने अनेक उपसर्ग सहे, वहाँ के बहुत से अनार्य लोग भगवान पर डंडों विवेक बुद्धि नहीं होगी। हिंसा में रचे-पचे और उसी में लीन रहने आदि से प्रहार करते थे। उस देश के लोग ही प्राय: रूखे थे, अत: वाले मनुष्य बार-बार जन्म धारण करते रहते हैं। मोक्ष मार्ग में प्रयत्न भोजन भी प्राय: रूखा-सूखा ही मिलता था। वहाँ के शिकारी कुत्ते करने वाले, सतत प्रज्ञावान-धीर साधक से कहा गया है कि उन्हें उन पर टूट पड़ते और काट खाते थे।४९ कुत्ते काटने लगते या देख जो प्रमत्त हैं, धर्म से बाहर हैं। तू अप्रमत्त होकर सदा अहिंसादि भौंकते तो बहुत थोड़े से लोग उन काटते हुए कुत्ते को रोकते, रूप धर्म में पराक्रम कर।४२ नियुक्तिकार ने लोक के सार के अधिकांश लोग तो इस श्रमण को कुत्ते काटें, इस नियत से कुत्तों को सम्बन्ध में प्रश्न उठाकर समाधान किया है कि- लोक का सार धर्म बुलाते और छुछकार कर उनके पीछे लगा देते थे।५° उस समय है, धर्म का सार ज्ञान है, ज्ञान का सार संयम है तथा संयम (समता) अणगार भ० महावीर प्राणियों के प्रति मन, वचन और काया से होने का सार मोक्ष है।४३ समता में अस्थित लोगों की दृष्टि में धन, काम, वाले दण्ड का परित्याग और अपने शरीर के प्रति ममत्व का भोग-साधन, शरीर, जीवन, भौतिक उपलब्धियाँ आदि सारभूत मानी व्युत्सर्ग करके समता में विचरण करते थे। भगवान उन ग्राम्यजनों जाती हैं, किन्तु आध्यात्मिक दृष्टि में अर्थात् समता में रमण करने के कांटों के समान तीखे वचनों को निर्जरा का हेतु समझकर सहन वाले के लिए ये सब पदार्थ सारहीन हैं, क्षणिक हैं, नाशवान हैं, करते थे।५१ उस लाढ़देश में बहुत से लोग डण्डे से या मुक्के से आत्मा को पराधीन बनाने वाले हैं और अन्ततः दुखदायी हैं। समता अथवा भालों आदि शस्त्र से या फिर मिट्टी के ढेले या खप्पर से की दृष्टि में मोक्ष (परम पद) परमात्मपद आत्मा (शुद्ध, निर्मल, मारते और 'मारो-मारो' कहकर होहल्ला मचाते।५२ उन अनार्यों ने ज्ञानादि स्वरूप)। मोक्ष प्राप्ति के साधन- धर्म, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, पहले एक बार ध्यानस्थ खड़े भगवान के शरीर को पकड़ कर माँस तप एवं संयम आदि सारभूत हैं।४४ संसार स्वरूप का परिज्ञान काट लिया था। उन्हें (प्रतिकूल) परीषहों से पीड़ित करते थे फिर कराते हुए सूत्रकार कहते हैं कि जिसे संशय (मोक्ष और संसार के भी भगवान समता में स्थिर रहते।५३ कुछ दुष्ट लोग ध्यानस्थ भगवान
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________________ को ऊँचा उठा कर नीचे गिरा देते थे। किन्तु भगवान शरीर का इस प्रकार हम देखते हैं कि आचारांगसूत्र में समता के व्युत्सर्ग किये हुए परिषह सहन करने के लिए प्रणबद्ध, कष्ट सहिष्णु, महत्वपूर्ण सूत्र संग्रहित हैं जो आत्म दृष्टि-अहिंसा-समता, वैराग्य, दुःख प्रतिकार की प्रतिज्ञा से मुक्त थे। अतएव वे इन परिषहों, अप्रमाद, अनासक्ति, निस्पृहता, निस्संगता, सहिष्णुता, ध्यानसिद्धि, उपसर्गों से विचलित नहीं होते थे।५४ जैसे कवच पहना हुआ योद्धा उत्कृष्ट संयम-साधना, तप की आराधना, मानसिक पवित्रता और युद्ध के मोर्चे पर शस्त्रों से बिद्ध होने पर भी विचलित नहीं होता है आत्मशुद्धि-मूलक पवित्र जीवन में अवगाहन करने की प्रेरणा देते हैं। वैसे ही समता-संवर का कवच पहने हुए महावीर उस देश में पीड़ित इसमें मूल्यात्मक चेतना की सबल अभिव्यक्ति हुई है। इसका प्रमुख होने पर भी कठोरतम कष्टों का सामना करते हुए मेरु पर्वत की उद्देश्य समता पर आधारित अहिंसात्मक समाज का निर्माण करने के तरह ध्यान में निश्चल रहकर समता (मोक्षपथ) में पराक्रम करते लिए व्यक्ति को प्रेरित करना है, जिससे समाज के आधार पर सुखथे।५५ दो मास से अधिक अथवा छ: मास तक भी महावीर कुछ शान्ति एवं समृद्धि के बीज अंकुरित हो सकें। हिंसा-अहिंसा के इतने नहीं खाते-पीते थे। रात-दिन वे राग-द्वेष रहित समता में स्थिर विश्लेषण के कारण ही 'आचारांग' को विश्व साहित्य में सर्वोपरि रहे।५६ वे गृहस्थ के लिए बने हुए आहार की ही भिक्षा ग्रहण करते स्थान दिया जा सकता है। “आचारांग" की घोषणा है कि प्राणियों के थे और उसको वे समतायुक्त बने रहकर उपयोग में लाते थे।५७ विकास में अन्तर होने के कारण किसी भी प्रकार के प्राणी के महावीर कषाय रहित थे। वे शब्दों और रूपों में अनासक्त रहते थे। अस्तित्व को नकारना अपने ही अस्तित्व को नकारना है।६० जब वे असर्वज्ञ थे तब भी उन्होंने साहस के साथ संयम पालन करते पूर्व प्रभारी एवं आगम योजना अधिकारी हुए एक बार भी प्रमाद नहीं किया।५८ महावीर जीवन पर्यन्त समता आगम-अहिंसा-समता एवं प्राकृत संस्थान, में स्थिर रहे।५९ पश्चिमी मार्ग, उदयपुर / संदर्भ ग्रन्थ 1) आचारांग सूत्र - 13-14, 103-109, 2) नियमसार - 25, 3) उत्तराध्ययन - 19/90-91, 4) गोम्मटसार जीवकाण्ड (टीका) 368, 5) जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययेन भाग 2, पृ. 313 -डॉ० सागरमल जैन, 6) भगवतीसूत्र 25/7/21-23, 7) जिनवाणी, सामायिक अंक पृ० 57, 8) धम्मपद - 183, 9) गीता - 6/32,10) गीता - 14/24-25, 11) गीता - 2/48,12) जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, पृ० 393-94, 13) "आयाखलु सामाइए, आया सामाइ यस्स अट्ठ।"- भगवतीसूत्र, 14) "अस्थि में आया उववाइए, नथि में आया / के अहं आसी, केवा इओ चुओ इहपेच्चा भविस्सामि / / "- आचारांगसूत्र - 1/1/1/3, 15) “सोहँ से आयावाई, लोगावाई, कम्मवाई, किरियावाई।"- आचारांगसूत्र - 1/1/1/45,16) जिनवाणी सामायिक अंक, पृ० 97, 17) आचारांगसूत्र - 1/1/1/4,18) आचारांगसूत्र - 1/1/1/5, 19) आचारांगसूत्र - 1/1/1/40,20) भावे कसायलोगो, अहिगारो तस्स विजएण - आचारांगटीका-१७५, 21) "काम नियतमई खलु संसारा मुच्चई खिप्पं।" -आचारांगटीका-१७७, 22) "जे गुणे से मूलट्ठाणे, जे मूलट्ठाणे से गुणे।"- आचारांग 2/1/63, 23) “इच्च त्थं गढिए लोए वसे पमत्ते।"-आचारांग-२/१/६३, 24) "णालं ते तव ताणाए वा सरणाए वा, तुमंपि सेसिं णालं ताणाए वा सखाए वा।" -आचारांग-२/१/६७, 25) “विमुका हुते जणा जे जणा पारगामिणो।", आचारांग-२/२/ 71, 26) "सव्वे पाणा पिआउया सुहसाया दुक्खपडिकूला अप्पियवह / पियजीविणो जीवितुकामा / सव्वेसिंजीवियं पियं / / " -आचारांग-२/३/ 78, 27) "उद्देसो पासगस्स णास्थि / "- आचारांग-२/३/८०, 28) "जे अणण्णदंसी से अणण्णारामें, जे अणण्णारामे से अणण्णादंसी ।।"आचारांग-२/६/१०१, 29) "उद्देसो पासगस्म णस्थि'- आचारांग-२/३/८०, 30) आचारांग पृ० 43/145-146, 31) "लज्जमाणा पुढा पासा।"- आचारांग पृ०८/१७, 32) "इह संति गया दविया णाव कंखंति।"- आचारांग पृ० 42/149, 33) "खणं जाणाहि पंडिए''आचारांग पृ० 74/24, 34) “अंतरं च खलु इमं संपेहाए-धीरे मुदुत्तमवि णो पमायए।" -आचारांग पृ०७२/११, 35) “अलं कुसलस्स पमाएणं।"- आचारांग पृ०८८/९५, 36) "उट्ठिए णो पमायए।" आचारांग पृ० 182/23, 37) "सुत्ता अमुणी मुणिणो सया जागरंति"आचारांग-३/१/१०६, 38) आचारांग - 3/3/123, 39) आचारांग - 3/2/127,40) "जे एगं जाणति से सव्वं जाणाति, जे सव्व जाणति से एगं जाणाति।"- आचारांग-३/४/१२९,४१) "णो लोगस्सेसणं चरे।"- आचारांग-४/१/१३३,४२) आचारांगसूत्र - पृ० 119, 43) "लोकस्सारं धम्मो धम्मपि य नाणसारियं बिति / नाणं संजनसारं, संजनसारं च निव्वाणं।" -आ० नियुक्ति गा० २४४-टीका से उद्धृत, 44) आचारांग पृ० 144,45) “संसघं परिजाणतो संसारे परिण्णाते भवति, संसयं अपरिजाजतो संसारे अपरिण्णाते भवति।" --आचारांग - 5/ 1/149, 46) आचारांग नियुक्ति गाथा 251,47) आचारांग नियुक्ति गाथा- 259-260,48 से 59) आचारांगसूत्र-नवम अध्ययन-सूत्र / 294,295, 296,299, 302, 303,304,305, 312,315, 329, 332 क्रमानुसार,६०) आचारांग चयनिका - डॉ० कमलचन्द सोगाणी-भूमिका . विद्वत खण्ड/६२ शिक्षा-एक यशस्वी दशक