Book Title: Acharang Sutra me Samta ka Swarup
Author(s): Manmal Kudal
Publisher: Z_Jain_Vidyalay_Granth_012030.pdf

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Page 1
________________ O मानमल कुदाल रूप आचारांग सूत्र जैन अंग-आगमों का प्रथम अंगसूत्र है। आचारांग में जिन विषयों का उल्लेख है वे इतने व्यापक और सामान्य हैं कि ग्यारह अंगों में से प्रत्येक अंग में किसी न किसी प्रकार उनकी चर्चा आती ही है। आचारांग का समस्त दर्शन अमूर्त चिंतन का परिणाम न होकर सहज प्रत्यक्षीकरण पर आधारित है। महावीर ने कभी यह नहीं कहा कि जो कुछ मैं कह रहा हूँ उसे आँख बंद कर सही मान ही लिया जाय। महावीर बार-बार हमें संसार (राग-द्वेष) की गतिविधियों को स्वयं देखने के लिए कहते हैं। आचारांग में इसके लिए उन्होंने "पास" शब्द का प्रयोग किया है। वस्तुत: वे हमें स्वतंत्र रूप से अपनी अनुभूतियों के द्वारा उन निष्कर्षों पर पहुँचने के लिए प्रेरित करते हैं जो स्वयं महावीर ने अपने अनुभव और प्रत्यक्ष से फलित किए थे। यह जैनियों का आचारदर्शन भी है। जैन आचारदर्शन में आचरण के कुछ सामान्य नियम ऐसे हैं, जिनका पालन करना गृहस्थ और श्रमण दोनों के लिए आवश्यक है। इनमें षट् आवश्यक कर्म, दस धर्मों का परिपालन, दान, शील, तप और भाव, बारह अनुप्रेक्षाएँ तथा समाधिमरण है। जैन आगमों में आवश्यक कर्म छ: माने हैं- सामायिक, स्तवन, वन्दन, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान। सामायिक समत्ववृत्ति की साधना है। जैनाचारदर्शन में समत्व की साधना जीवन का अनिवार्य तत्व है। वह नैतिक साधना का अथ और इति दोनों है। समत्व साधना के दो पथ हैं, बाह्य रूप में वह सावध (हिंसक) प्रवृत्तियों का त्याग है२, तो आन्तरिक रूप में वह सभी प्राणियों के प्रति आत्मभाव (सर्वत्र आत्मवत् प्रवृत्ति) तथा सुख-दुःख, जीवन-मरण, लाभ-अलाभ, निन्दा-प्रशंसा में समभाव रखना है। सामायिक समभाव में है, रागद्वेष के प्रसंगों में मध्यस्थता रखने में है। माध्यस्थवृत्ति ही समता है। समता (सामायिक) कोई रूढ़ क्रिया नहीं, वह तो समत्ववृत्ति रूप पावन आत्मगंगा में अवगाहन है, जो समग्र राग-द्वेष जन्य कलुष को आत्मा से अलग कर मानव को विशद्ध बनाती है। संक्षेप में सामायिक (समता) एक ओर चित्तवृत्ति का समत्व है तो दूसरी ओर पाप विरति।५ समत्ववृति की यह साधना सभी वर्ग, सभी जाति और सभी धर्मवाले कर सकते हैं। किसी वेशभूषा और धर्म विशेष से उसका कोई सम्बन्ध नहीं है। कोई भी मनुष्य चाहे गृहस्थ हो या श्रमण, जैन हो या अजैन, समत्ववृति की आराधना कर सकता है। वस्तुत: जो समत्ववृत्ति की साधना करता है, वह जैन ही है चाहे वह किसी जाति, वर्ग या धर्म का क्यों न हो। एक आचार्य कहते हैं कि चाहे श्वेताम्बर हो या दिगम्बर, बौद्ध हो या अन्य कोई, जो भी समत्व वृत्ति का आचरण करेगा, वह मोक्ष प्राप्त करेगा, इसमें सन्देह नहीं है। बौद्ध-दर्शन में भी यह समत्ववृत्ति स्वीकृत है। "धम्मपद' में कहा गया है कि सब फपों को नहीं करना और चित्त को समत्ववृत्ति में स्थापित करना ही बुद्ध का उपदेश है। गीता के अनुसार सभी प्राणियों के प्रति आत्मवत दृष्टि, सुख-दुःख, लोह-कंचन, प्रियअप्रिय और निन्दा-स्तुति, मान-अपमान, शत्रु-मित्र में समभाव और सावध (आरम्भ) का परित्याग ही नैतिक जीवन का लक्षण है।१० श्रीकृष्ण अर्जुन को यही उपदेश देते हैं कि हे अर्जुन! तू अनुकूल और प्रतिकूल सभी स्थितियों में समभाव धारण कर।११ अपने निषेधात्मक रूप में सामायिक (समता) सावध कार्यों अर्थात् पाप कार्यों से विरक्ति है, तो अपने विधायक रूप में वह समत्वभाव की साधना है।१२ भगवती सूत्र में कहा है कि- "आत्मा ही सामायिक (समता) है और आत्मा ही सामायिक (समता) का प्रयोजन है।"१३ इस सूत्र में समत्वभाव को प्राप्त करने के लिए आत्मबोध का होना आवश्यक बतलाया गया है। आचारांगसूत्र के प्रथम उद्देश्यक में ही हमें आत्मबोध का परिचय प्राप्त हो जाता है। सूत्र का प्रारम्भ ही अस्तित्व सम्बन्धी मानवीय जिज्ञासा से होता है। पहला ही प्रश्न है- इस जीवन के पूर्व मेरा शिक्षा-एक यशस्वी दशक विद्वत खण्ड/५९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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