Book Title: Acharang Sutra me Mulyatmak Chetna
Author(s): Kamalchand Sogani
Publisher: Z_Jinavani_003218.pdf

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Page 4
________________ - | आचारांग सूत्र में मूल्यात्मक चेतना .. विपरीततः जो हिंसा में प्रकट होनी है मनुष्य के अहित के लिए होती है,वह उसके अध्यात्महीन बने रहने के कारण होती है (८ से १५) यह हिंसा कार्य निश्चित ही बन्धन में डालने वाला है, मूर्छा में पटकने वाला है और अमंगल में धकेलने वाला है (१६)। अत: क्रियाओं की विपरीतता का माप दण्ड है. हिंसा। जो क्रिया हिंसात्मक है वह विपरीत है। यहां हिंसा को व्यापक अर्थ में समझा जाना चाहिए। किसी प्राणी को मारना, उसको गुलाम बनाना, उस पर शासन करना आदि सभी क्रियाएँ हिंसात्मक हैं (७२)। जब मन. वचन, काया की क्रियाओं की विपरीतता समाप्त होती है, तब मनुष्य न तो विभिन्न जीवों की हिंसा करता है, न हिंसा करवाता है और न हिंसा करने वालों का अनुमोदन करता है(१७)। उसके जीवन में अहिंसा प्रकट हो जाती है अर्थात् न वह प्राणियों को मारता है, न उन पर शासन करता है, न उनको गुलाम बनाता है, न उनको सताता है और न ही उन्हें कभी किसी प्रकार से अशान्त करता है (७२)। अत: कहा जा सकता है कि यदि क्रियाओं की विपरीतता का मापदण्ड हिंसा है तो उनकी उचितता का मापदण्ड अहिंसा होगा। जिसने भी हिंसात्मक क्रियाओं को द्रष्टाभाव से जान लिया, उसके हिंसा समझ में आ जाती है और धीरे-धीरे वह उससे छूट जाती है(१७)। क्रियाओं का प्रभाव मन, वचन और काया की क्रियाओं की विपरीतता और उनकी उचितता का प्रभाव दूसरों पर पड़ता भी है और नहीं भी पड़ता है, किन्तु, अपने आप पर तो प्रभाव पड़ ही जाता है। वे क्रियाएँ मनुष्य के व्यक्तित्व का अंग बन जाती हैं। इसे ही कर्म-बन्धन कहते हैं। यह कर्म-बंधन ही व्यक्ति के सुखात्मक और दुःखात्मक जीवन का आधार होता है। इस विराट् विश्व में हिंसा व्यक्तित्व को विकृत कर देती है और अपने तथा दूसरों के दुःखात्मक जीवन का कारण बनती है और अहिंसा व्यक्तित्व को विकसित करती है और अपने तथा दूसरों के सुखात्मक जीवन का कारण बनती है। अहिंसा विराट प्रकृति के विपरीत है। अत: वह हमारी ऊर्जा को ऊर्ध्वगामी होने से रोकती है और ऊर्जा को ध्वंस में लगा देती है, किन्तु अहिंसा विराट प्रकृति के अनुकूल होने से हमारी ऊर्जा को रचना में लगा देती है। हिंसात्मक क्रियाएँ मनुष्य की चेतना को सिकोड़ देती हैं और उसको ह्रास की ओर ले जाती हैं, अहिंसात्मक क्रियाएँ मनुष्य की चेतना को विकास की ओर ले जाती हैं। इस प्रकार इन क्रियाओं का प्रभाव मनुष्य पर पड़ता है। अत: आचारांग ने कहा है कि जो मनुष्य कर्म बन्धन और कर्म से छुटकारे के विषय में खोज करता है वह शुद्ध बुद्धि होता है। मूर्च्छित मनुष्य की दशा वास्तविक स्त्र-अस्तित्व का विस्मरण ही मूर्छा है। इसी विस्मरण के कारण मनुष्य व्यक्तिगत अवस्थाओं और सामाजिक परिस्थितियों से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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