Book Title: Acharang Sutra me Mulyatmak Chetna Author(s): Kamalchand Sogani Publisher: Z_Jinavani_003218.pdf View full book textPage 6
________________ आचारांग सूत्र में मूल्यात्मक चेतना आध्यात्मिक प्रेरक तथा उनसे प्राप्त शिक्षा यह मूच्छिंत मनुष्यों का जगत् है। ऐसा होते हुए भी यह जगत् मनुष्य को ऐसे अनुभव प्रदान करने के लिए सक्षम है, जिनके द्वारा वह अपने आध्यात्मिक उत्थान के लिए प्रेरणा प्राप्त कर सकता है। मनुष्य कितना ही मूर्च्छिन क्यों न हो फिर भी बुढ़ापा, मृत्यु और धन-वैभव की अस्थिरता उसको एक बार जगत् के रहस्य को समझने के लिए बाध्य कर ही देते हैं। यह सच है कि कुछ मनुष्यों के लिए यह जगत् इन्द्रिय तुष्टि का ही माध्यम बना रहता है (७४), किन्तु कुछ मनुष्य ऐसे संवेदनशील होते हैं कि यह जगत् उनकी मूर्च्छा को आखिर तोड़ ही देता है। मनुष्य देखता है कि प्रतिक्षण उसकी आयु क्षीण हो रही है। अपनी बीती हुई आयु को देखकर वह व्याकुल होता है और बुढ़ापे में उसका मन गड़बड़ा जाता है। जिनके साथ वह रहता है, वे ही आत्मीय जन उसको बुरा भला कहने लगते हैं और वह भी उनको बुरा-भला कहने लग जाता है । बुढ़ापे की अवस्था में वह मनोरंजन के लिए, क्रीड़ा के लिए तथा प्रेम के लिए नीरसता व्यक्त करता है (२७) । अतः आचारांग का शिक्षण है कि ये आत्मीय जन मनुष्य के सहारे के लिए पर्याप्त नहीं होते हैं और वह भी उनके सहारे के लिए पर्याप्त नहीं होता है (२७) । इस प्रकार मनुष्य बुढ़ापे को समझकर आध्यात्मिक प्रेरणा ग्रहण करे तथा संयम के लिए प्रयत्नशील बने और वर्तमान मनुष्य जीवन के संयोग को देखकर आसक्ति रहित बनने का प्रयास करे (२८) । आचारांग का कथन है कि हे मनुष्यों ! आयु बीत रही है, यौवन भी बीत रहा है, अतः प्रमाद (आसक्ति) में मत फंसो (२८) और जब तक इन्द्रियों की शक्ति क्षीण न हो तब तक ही स्व अस्तित्व के प्रति जागरूक होकर आध्यात्मिक विकास में लगो (३०) । आचारांग सर्व अनुभूत तथ्य को दोहराता है कि मृत्यु के लिए किसी भी क्षण न आना नहीं है ( ३६ ) । इसी बात को रखते हुए आचारांग फिर कहता है कि मनुष्य इस देह - संगम को देखे । यह देह - संगम छूटता अवश्य है। इसका तो स्वभाव ही नश्वर है। यह अध्रुव है, अनित्य है और अशाश्वत है (८५) | आचारांग उनके प्रति आश्चर्य प्रकट करता है जो मृत्यु के द्वारा पकड़े हुए होने पर भी संग्रह में आसक्त होते हैं (७४) । मृत्यु की अनिवार्यता हमारी आध्यात्मिक प्रेरणा का कारण बन सकती है। कुछ मनुष्य इससे प्रेरणा ग्रहण कर अनासक्ति की साधना में लग जाते हैं। 93 धन-वैभव में मनुष्य सबसे अधिक आसक्त होता है। चूंकि जीवन की सभी आवश्यकताएँ इसी से पूरी होती है, इसलिए मनुष्य इसका संग्रह करने के लिए सभी प्रकार के उचित - अनुचित कर्म में संलग्न हो जाता है। आचारांग आसक्त मनुष्य का ध्यान धन-वैभव के नाश की ओर आकर्षित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 4 5 6 7 8 9 10 11