Book Title: Acharang Sutra me Mulyatmak Chetna
Author(s): Kamalchand Sogani
Publisher: Z_Jinavani_003218.pdf

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Page 2
________________ आचाराग सूत्र मूल्यात्मक चेतना 89 अपने दुःखों को तो अनुभव कर ही लेता है, पर दूसरों के दुःखों के प्रति वह संवेदनशील प्रायः नहीं हो पाता है । यही हिंसा का मूल है। जब दूसरों के दुःख हमें अपने जैसे लगने लगे, जब दूसरों की चीख हमें अपनी चीख के समान मालूम हो, तो ही अहिंसा का प्रारम्भ हो सकता है। मनुष्य को अपने सार्वकालिक सूक्ष्म अस्तित्व में सन्देह न रहे, इस बात को समझाने के लिए पूर्वजन्म और पुनर्जन्म के सिद्धान्त से ही ग्रंथ का आरम्भ किया गया है। अपने सूक्ष्म अस्तित्व में संदेह नैतिक आध्यात्मिक मूल्यों को ही सन्देहात्मक बना देगा, जिससे व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन की आधारशिला ही गड़बड़ा जायेगी। इसीलिये आचारांग ने सर्वप्रथम स्व-अस्तित्व एवं प्राणियों के अस्तित्व के साथ क्रियाओं एवं उनसे उत्पन्न प्रभावों में विश्वास उत्पन्न किया है। ये सभी व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन को वास्तविकता प्रदान करते हैं और इनके आधार पर ही मूल्यों की चर्चा संभव बन पाती है। आचारांग में ३२३ सूत्र हैं, जो नौ अध्ययनों (वर्तमान में ७वाँ अध्ययन अनुपलब्ध) में विभक्त हैं। इन विभिन्न अध्ययनों में जीवन विकास के सूत्र बिखरे पड़े हैं। यहां मानववाद पूर्णरूप से प्रतिष्ठित है। आध्यात्मिक जीवन के लिए प्रेरणाएँ यहाँ उपलब्ध हैं। मूर्च्छा, प्रमाद और ममत्व जीवन को दुःखी करने वाले कहे गए है। वस्तु त्याग के स्थान पर ममत्व त्याग को आचारांग में महत्त्व दिया गया है। वस्तु त्याग, ममत्व त्याग से प्रतिफलित होना चाहिये। आध्यात्मिक जागृति मूल्यवान् कही गई है, जिसके फलस्वरूप मनुष्य मान-अपमान, लाभ-हानि आदि द्वन्द्वों की निरर्थकता को समझ सकता है। अहिंसा, सत्य और समता के ग्रहण को प्रमुख स्थान दिया गया है। बुद्धि और तर्क जीवन के लिए अत्यन्त उपयोगी होते हुए भी, आध्यात्मिक अनुभव इनकी पकड़ से बाहर प्रतिपादित हैं। साधनामय मरण की प्रेरणा आचारांग के सूत्रों में व्याप्त है। आचारांग में भगवान महावीर की साधना का ओजस्वी वर्णन किसी भी साधक के लिए मार्गदर्शक हो सकता है। पूर्वजन्म और पुनर्जन्म मनुष्य समय समय पर मनुष्यों को मरते हुए देखता है। कभी न कभी उसके मन में स्व अस्तित्व की निरन्तरता का प्रश्न उपस्थित हो ही जाता है। जीवन के गंम्भीर क्षणों में यह प्रश्न उसके मानस पटल पर गहराई से अंकित होता है। अतः स्व-अस्तित्व का प्रश्न मनुष्य का मूलभूत प्रश्न है | आचारांग ने सर्वप्रथम इसी प्रश्न से चिन्तन प्रारम्भ किया है। आचारांग का यह विश्वास प्रतीत होता है कि इस प्रश्न के समाधान के पश्चात् ही मनुष्य स्थिर मन से अपने विकास की बातों की ओर ध्यान दे सकता है। यदि स्व अस्तित्व ही त्रिकालिक नहीं है तो मूल्यात्मक विकास का क्या प्रयोजन ? स्व-अस्तित्व में आस्था उत्पन्न करने के लिए आचारांग पूर्वजन्म- पुनर्जन्म की चर्चा से शुरू होता है। आचारांग का कहना है कि यहां कुछ मनुष्यों में यह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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