Book Title: Acharang Sutra Ka Vaishishthy
Author(s): Premsuman Jain
Publisher: Premsuman Jain

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Page 3
________________ इमं पित आहारगं, एयं पि आहारगं, एयं पि अणितियं, इमं पि अणितियं, इमं पि असासयं, एयं पि असासयं, - आचा. 1. सू. 45 आचारांग में दुख प्रकट करते हुए कहा गया है कि मनुष्य क्षुद्र कारणों के वश वनस्पति तक सम्पदा को नष्ट करता है। यथा- यह दुःख की बात है कि वह कोई मनुष्य इस ही वर्तमान जीवन की रक्षा के लिए, प्रशंसा, आदर तथा पूजा पाने के लिए, भावी जन्म की उधेड़ बुन के कारण, वर्तमान में मरण भय के कारण तथा मोक्ष परम शान्ति के लिए और दुःखों को दूर हटाने के लिए स्वयं ही वनस्पतिकायिक जीवन समूह की हिंसा करता है या दूसरों के द्वारा वनस्पतिकायिक जीव समूह की हिंसा करवाता है या वनस्पतिकायिक जीव समूह की हिंसा करते हुए करने वाले दूसरों का अनुमोदन करता है। वह हिंसा कार्य उस मनुष्य के अहित के लिए होता है, वह हिंसा कार्य उसके लिए अध्यात्महीन बने रहने का कारण होता है। समारंभति, अण्णेहिं वा वणस्सतिसत्थं समारंभवेति, अण्णे वा वणस्सतिसत्थं समारंभमाणे समुणुजणति। तं से अहियाए, तं से अबोहीए । संयम की प्रकिया आचारांगसूत्र में संयम की पूरी प्रक्रिया प्रतिपादित है। आशाओं और इच्छाओं का समूह मानसिक तनाव, अशान्ति दुख का कारण है। इसलिए आचारांग का कथन है कि मनुष्य आशा और इच्छा को त्यागे। जो व्यक्ति इन्द्रियों के विषयों में आसक्त होता है, वह बहिर्मुखी ही बना रहता है, जिसके फल स्वरूप उसके कर्म-बंधन नहीं हटते हैं और उसके विभाग-संयोग राग-द्वेषात्मक भाव नष्ट नहीं होते हैं। अतः इन्द्रिय-विषय में अनासक्ति साधना के लिए आवश्यक है। यही से संयम की यात्रा प्रारम्भ होती है। आचारांग का कथन है कि हे मनुष्य! तू अनासक्त हो जा और अपने को नियन्त्रित कर। जैसे अग्नि जीर्ण (सूखी) लकड़ियों को नष्ट कर देता है, उसी प्रकार अनासक्त व्यक्ति राग-द्वैष को नष्ट कर देती है। कषाएँ मनुष्य की स्वाभाविकता को नष्ट कर देती हैं। कषायों का राजा मोह है। जो एक मोह को नष्ट कर देता है, वह बहुत कषायों को नष्ट कर देता है। यथा सव्वतो पमत्तस्स भयं, सबतो अप्पमत्तस्स णत्थि भयं। जे एगणामे से बहुणामे, जे बहुणामे से एगणामे। -आचा. 1. सू. 129 समता में ही धर्म आचारांगसूत्र में कहा गया है कि मानव-समाज में न कोई नीच है और न कोई उच्च है। सभी के साथ समतापूर्ण व्यवहार किया जाना चाहिए। आचारांग के अनुसार समता में ही धर्म है। इस जगत् में सब प्राणियों के लिए पीड़ा अशान्ति है, दुःख-युक्त है। सभी प्राणियों के लिए यहाँ सुख अनुकूल होते हैं, दुःख प्रतिकूल होते हैं, वध अप्रिय होते हैं, तथा जिन्दा रहने की अवस्थाएँ प्रिय होती हैं। सब प्राणियों के लिए जीवन प्रिय होता है। अतः आचारांग का कथन है कि कोई भी प्राणी मारा नहीं जाना चाहिए, गुलाम नहीं बनाया जाना चाहिए, शासित नहीं किया जाना चाहिए सताया नहीं जाना चाहिए और अशान्त नहीं किया जाना चाहिए । यथा सब्वे पाणा सवे भूता जीवा सवे सत्ता ण हंतव्वा, ण अज्जावेतव्वा, ण परिघेत्तव्वा, ण परितावेयव्वा, ण उददवेयव्वा । एस धम्मे सुद्धे णितिए सासए समेच्च लोयं खेतण्णेहिं पवेदिते। -आचा. 1. सू. 132 यही धर्म शुद्ध है, नित्य है, और शाश्वत है। जो अहिंसा का पालन करता है, वह निर्भय हो जाता है। हिंसा तीव्र से तीव्र होती है, किन्तु अहिंसा सरल होती है। अतः हिंसा को मनुष्य त्यागे ।

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