Book Title: Acharang Sutra Ka Vaishishthy Author(s): Premsuman Jain Publisher: Premsuman Jain View full book textPage 2
________________ में इन प्रदूषणों से बचने के लिए अज्ञान और प्रमाद को दूर करने की बात कही गई है। इसके लिए व्यक्ति को जागरूक रहने के लिए कहा गया है। संसार की वास्तविकता को समझना ही जागरूकता है। ऐसा ज्ञानी व्यक्ति अपनी क्रियाओं से वातावरण को दूषित नहीं करता। वह स्वयं के अस्तित्व और अन्य प्राणियों के अस्तित्व का सम्मान करने वाला होता है। यही आचारांगसूत्र की पर्यावरण चेतना है। इसके लिए अनासक्ति, समता, वैचारिक उदारता, करुणा आदि सूत्रों की व्याख्या आचारांग में प्राप्त है, जिसका विश्लेषण करने का प्रयत्न किया जाना चाहिए। पर्यावरण प्रदूषण की समस्या जितनी प्राकृतिक है, उतनी ही सांस्कृतिक और मानसिक असंतुलन से जुड़ी हुई है। संवेदनशीलता और संतोषवृत्ति के अभाव ने पर्यावरण को असंतुलित, विनाशकारी बनाया है। अतः प्राकृतिक समाधान के साथ-साथ पर्यावरण-संतुलन के लिए उन आध्यात्मिक सूत्रों की खोज भी मानव को करनी होगी, जो सांस्कृतिक और मानसिक दृष्टि से मन मनुष्य को पूर्ण करें। प्राचीन आगम ग्रन्थों में अहिंसा, करुणा, आजीविका-शुद्धि अपरिग्रह वृत्ति एवं सद्भावना आदि के मूल्य प्रतिपादित है, जो पर्यावरण- संतुलन के वास्तविक आधार हैं। जैन आगमों में इस प्रकार के सांस्कृतिक मूल्यों का प्रतिपादन है, जो मानव की संवेदना को बढ़ाते हैं तथा प्रकृति के संरक्षण में अहम भूमिका निभाते हैं। प्रकृति और मानव में समानता पर्यावरण असंतुलन की समस्या प्रकृति पर शासन करने, विजय प्राप्त करने की दुष्प्रवृत्ति के कारण उपस्थित हुई है। प्राचीन जीवन पद्धति एवं विचारधारा में प्रकृति को सहचरी मानकर उसके संरक्षण की प्रेरणा दी गयी है। जैन आगमों में भी यह चिन्तन विद्यमान है। आचारांग सूत्र में वनस्पति और मनुष्य की तुलना करते हुए कहा गया है कि दोनों का जन्म होता है, वृद्धि होती है, दोनों में चेतनता है और काटने से म्लानता आती है। आहारग्रहण की प्रक्रिया दोनों में समान हैं। यथामनुष्य भी जन्म लेता है। वनस्पति भी जन्म लेती है। मनुष्य भी बढ़ता है। वनस्पति भी बढ़ती है। मनुष्य भी चेतना युक्त है। वनस्पति भी चेतना युक्त है । मनुष्य शरीर छिन्न होने पर वनस्पति भी छिन्न होने पर म्लान हो जाता है। म्लान होती है। मनुष्य भी आहार करता है। वनस्पति भी आहार करती है। मनुष्य शरीर भी अनित्य है, वनस्पति भी शरीर भी अनित्य है। मनुष्य शरीर अशास्वत है, वनस्पति शरीर भी अशास्वत है। मनुष्य शरीर आहार से सबल होता है, आहार के अभाव में दुर्बल होता है, वनस्पति का शरीर भी इसी प्रकार आहार से उपचित होता है। आहार के अभाव में अपचित होता है मनुष्य शरीर भी अनेक प्रकार की अवस्थाओं को प्राप्त होता है। वनस्पति शरीर भी अनेक प्रकार की अवस्थाओं को प्राप्त होता है। - से बेमि इमं पि जातिधम्मयं, इमं पि वुड्ढिधम्मयं, इमं पि चित्तमंतयं, इम पिं छिन्नं मिलति, एयं पि जातिधम्मयं , एयं पि वुड्ढिधम्मयं , एयं पि चित्तमंतयं, एयं पि छिण्णं मिलतिPage Navigation
1 2 3 4 5