Book Title: Acharang Shilank Vrutti Ek Adhyayan
Author(s): Rajshree Sadhvi
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 7
________________ जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण आद्य टीकाकार माने जाते है । उनके पश्चात् के टीकाकारों में हरिभद्रसूरि, शीलांकसूरि, वादिवेताल शांतिसूरि, अभयदेवसूरि आदि के नाम आते हैं । आचाराङ्ग के प्रथम संस्कृत टीकाकार आचार्य शीलांकसूरि थे। ये शीलांकाचार्य तथा तत्त्वादित्य नाम से भी जाने जाते हैं । प्रभावक चरित के अनुसार उन्होंने नौ अंगों पर टीकाएं लिखीं थी। इस संबंध में अनेक विद्वानों का मत यह है कि इन्होंने केवल आचाराङ्ग तथा सूत्रकृताङ्ग की टीकाएं ही लिखी थीं जो वर्तमान में उपलब्ध भी हैं । आचाराङ्ग प्रथम श्रुतस्कन्ध की वृत्ति के अंत में शीलांकाचार्य तथा तत्वादित्य दो नाम दिए हैं तथा कहीं-कहीं शीलांक भी मिलता है । रचना समय गुप्त संवत् ७७२ दिया है । तथा द्वितीय श्रुतस्कन्ध की टीका के अन्त में शक संवत् ७८४ और प्रत्यन्तर में ७९८ लिखा है। अधिकांश विद्वानों का मत है कि गुप्त संवत् और शक संवत् एक ही है । अत: इन टीकाओं का रचनाकाल 'विक्रम संवत् ९०७ तथ ९३३ माना गया है। 1 मूल व नियुक्ति पर आधारित इस टीका में प्रत्येक विषय पर विस्तार से चर्चा की गई है। इसकी भाषा और शैली भी सुबोध है। इसमें उपलब्ध तलस्पर्शी विवेचन के कारण आचाराङ्ग पर पश्चाद्वर्ती समस्त लेखन इसी वृत्ति के आधार पर किया गया है तथा आज भी इस विषय का आधार ग्रन्थ शीलांकाचार्य की वृत्ति ही है । प्रस्तुत शोध प्रबन्ध शीलांकाचार्य की इसी आचाराङ्ग- शीलाङ्क टीका का विवेचनात्मक एक अध्ययन है । साध्वी राजश्रीजी ने आगम साहित्य का परिचय तथा उसमें प्रस्तुत टीका का महत्वपूर्ण स्थान बताते हुए विभिन्न दृष्टिकोणों से इस टीका को अध्ययन प्रस्तुत किया है। मूल आगम साहित्य के विस्तृत परिचय के साथ ही आगमों के व्याख्या साहित्य का परिचय भी दिया गया है। यही नहीं आगमों के प्रसिद्ध वृत्तिकारों का भी संक्षिप्त परिचय सम्मिलित कर लेने से इस शोध प्रबन्ध का एक संदर्भ पुस्तक के रूप में महत्व बढ़ गया है । आचाराङ्ग अपने नाम के अनुरूप आचार अथवा सम्यक् आचार या श्रमणाचार का ग्रन्थ है, किन्तु यह केवल नियमावली नहीं है । इसमें आचार के मूलभूत अंग भाव तथा द्रव्य का मार्मिक व सटीक विवरण है और फिर उसके आधार पर क्रमशः आचार का पूर्ण विकसित रूप प्रस्तुत किया (५) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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