Book Title: Acharang Ke Pratham Shrutskandha me Swikrut Kuch Patho ki Samiksha
Author(s): K R Chandra
Publisher: Z_Aspect_of_Jainology_Part_2_Pundit_Bechardas_Doshi_012016.pdf

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Page 5
________________ आचाराङ्ग के प्रथम श्रुतस्कन्ध में स्वीकृत कुछ पाठों की समीक्षा ५ 'पिछाए' पाठ श्री जम्बूविजयजी के लिए आचा० की प्राचीनतम ताडपत्र एवं चूर्णि का पाठ है, जबकि शुनिंग के लिए आचा० की अर्वाचीन प्रत एवं चूर्णि का पाठ है । १२. चूर्णि की विभिन्न प्रतों में विभिन्न पाठ मिलते हैं । पन्नाह ( शु० ), पण्णाणेहि ( जम्बू० ) १३. अलग-अलग सम्पादकों द्वारा अलग-अलग पाठ स्वीकृत किये गये हैंशुब्रिंग - 'विहित्तु' पृ० ३, पं० १०, पडिसंवेरुइ, पृ० १, पं० १८ जम्बू - 'विजहित्ता' पृ० ६, पं० २०, पडिसंवेदयति, पृ० ३, पं० ७ शुनिंग - समुट्ठाय, खेणे, अणेगा, अनिच्चयं जम्बू - समुट्ठाय, खेत्तण्णे, अणेगे', अणितियं १४. एक ही सम्पादक ने ध्वनि परिवर्तन के नियमों के अनुसार कभी प्राचीन तो कभी अर्वाचीन रूप स्वीकार किया है शुब्रिंग - अविजाणए पृ० २, पं० ३; ( पाठान्तर 'अवियाणए' ) विहित्तु पृ० ३, पं० १० ( पाठान्तर 'विजहित्ता' ) अब हम पुनः पू० जम्बूविजयजी के संस्करण के पाठों की समीक्षा करेंगे । श्री जम्बू विजयजी द्वारा स्वीकृत पाठों की समीक्षा वे सन्दर्भ जिनमें प्राचीन प्रतों में मध्यवर्ती मूल व्यञ्जन सुरक्षित होते हुए भी उसका परिवर्तित रूप स्वीकृत किया गया है : १. मूल अघोष के बदले घोष व्यञ्जन स्वीकृत ( क ) एगेसिं ' ( सूत्र १, १४, २५, पाठान्तर - एकेसि ) ( ख ) लोगावादी ( सूत्र ३, पाठान्तर लोकावादी, पुरानी प्रत शां० में 'लोयावादी' भी मिलता है | ) ( ग ) लोगंसि ( सूत्र ८, ९, पाठान्तर - लोकंसि ) (घ ) लोगं ( सूत्र २२, पाठान्तर - लोकं ) (ङ) एगे (सूत्र १२, पाठान्तर - एके ) १. श्री जम्बूविजयजी को यह पाठ स्वीकार्य है, जो शंदी प्रत में मिलता है । २. ऐसा जरूरी नहीं है कि मध्यवर्ती 'क' के लिए 'ग' वाला पाठ ही स्वीकृत किया जाना चाहिए। 'क' की यथावत् स्थिति, उसका घोष या लोप ( या 'य' श्रुति ) ये तीनों पाठ इस ग्रन्थ में लिए गये हैं । जैसे : ( अ ) एकयरं ( सूत्र ९६ ), णिकरणाए ( सूत्र ९७ ), पकरेंति ( सूत्र ६२ ) ( ब ) एगेसि ( सूत्र १ ), अणेग ( सूत्र ६ ), महारग ( सूत्र ४५ ), लोगंसि ( सूत्र ५ ) ( क ) लोए ( सूत्र १० ), पत्तेयं ( सूत्र ४९ ), उदय ( सूत्र २३ ) [ सूत्र ५२ में एक ही शब्द के दो रूप एक 'सदा' दोनों रूप एक साथ मिलते हैं । ] Jain Education International साथ मिलते हैं - वर्धेति, वहेंति । सूत्र ३३ में 'सता' और For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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