Book Title: Acharang Ke Pratham Shrutskandha me Swikrut Kuch Patho ki Samiksha
Author(s): K R Chandra
Publisher: Z_Aspect_of_Jainology_Part_2_Pundit_Bechardas_Doshi_012016.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 3
________________ ३. ३ आचाराङ्ग के प्रथम श्रुतस्कन्ध में स्वीकृत कुछ पाठों की समीक्षा कभी-कभी अर्वाचीन रूप स्वीकृत किया गया है, चाहे वह चूर्णि एवं अर्वाचीन कागज की प्रतों का पाठ हो । १. मंद अवियाणओ (सूत्र ४९, पृ० १२, पं० १५, प्रत हे० १,२,३ एवं चूर्णि ) जबकि प्राचीन प्रतों शां०, खे०, खं० एवं जै० में 'मंदस्साविजाणतो' पाठ मिलता है । यदि ऐसा पाठ मिलता हो, तो उसे 'मंदस्स अविजाणतो' करने में क्या दोष है । लिपिकारों की भूल से भी सन्धि कर दी गयी हो । ( शुब्रिंग के संस्करण में चूर्णि एवं प्राचीन प्रत का 'मंदस्स अविजाणओ' पाठ ( पृ० ५, पं० ४ ) स्वीकृत किया गया है । ) ४. कभी-कभी चूर्णि में मध्यवर्ती गया है । मूल व्यञ्जन के मिलने पर भी उसका लोप स्वीकृत किया (१) उववाइए (सूत्र १, पृ० २, पं० २ ) ( चूर्णि पाठ - उववाविए) (२) सहसम्मुइयाए ( सूत्र २, पृ०२, पं० २ ) ( चूर्णि - पाठ - सहसामुतियाए ) प्राचीन रूप ही ग्रहण करना या चूर्णि एवं प्राचीन प्रतों में उपलब्ध रूप ही ग्रहण करना या चूर्णि के ही प्राचीन रूप को ग्रहण करना- ऐसा कोई नियमित विधान इस संस्करण में अपनाया गया हो, ऐसा प्रतीत नहीं होता । अर्वाचीन प्रतों से अर्वाचीन रूप भी ग्रहण किये गये हैं । ऐसी अवस्था में किसी भी प्रत में यदि प्राचीन रूप मिलता हो, तो भ० महावीर के समय एवं प्राकृत के तत्कालीन रूप को ध्यान में रखते हुए प्राचीन रूप क्यों नहीं अपनाये जाने चाहिए ? क्योंकि अर्वाचीन प्रतों के सामने आदर्श प्रत तो इससे भी प्राचीन ही रही होगी । ऐसी भी सम्भावना नहीं की जा सकती कि अर्वाचीन प्रतों में जानबूझकर रूपों को प्राचीन कर दिया गया हो । यदि ऐसा होता तो सभी रूपों को प्राचीन क्यों नहीं कर दिया जाता, कभी-कभी तो प्राचीन प्रतों अर्वाचीन एवं प्राचीन रूप दोनों ही एक साथ मिलते हैं । यहाँ पर इस दृष्टि से प्रस्तुत श्रीजम्बूविजयजी के संस्करण के कुछ पाठों की समीक्षा की जाय, उसके पहले शुक्रिंग महोदय द्वारा स्वीकृत किये गये कुछ पाठों की समीक्षा करना भी उपयोगी सिद्ध होगा । के कुछ पाठों का विश्लेषण ( आचाराङ्ग-प्रथमश्रुतस्कन्ध ) १. प्राचीन रूप स्वीकृत, भले ही अर्वाचीन प्रतों में मिलते हों । स्वीकृत - णिव्वाणं, परियावेण अस्वीकृत - (व्वाणं ), ( परियावेणं ) २. प्राचीन रूप अस्वीकृत, भले ही अर्वाचीन प्रतों में मिलते हों । अस्वीकृत – (पडिसंवेदयइ ), ( समुट्ठाय ), ( खेत्तण्णे ) स्वीकृत – पडिवेएइ, समुट्ठाए, खेयण्णे जबकि पू० जम्बूविजयजी ने अपने संस्करण में इन जगहों पर प्राचीन रूप स्वीकृत किये हैंसंवेदयति, खेत्तणे ( संदी० प्रत में शुद्ध पाठ मिलते हैं, ऐसा कहने से उसका 'समुट्ठाय ' पाठ उनके ( जम्बू० ) लिए स्वीकार्य हो जाता है । ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 2 3 4 5 6 7