Book Title: Acharang Ke Pratham Shrutskandha me Swikrut Kuch Patho ki Samiksha Author(s): K R Chandra Publisher: Z_Aspect_of_Jainology_Part_2_Pundit_Bechardas_Doshi_012016.pdf View full book textPage 1
________________ पू० जम्बूविजयजी द्वारा सम्पादित आचाराङ्ग के प्रथम श्रुतस्कन्ध में स्वीकृत कुछ पाठों की समीक्षा के० आर० चन्द्रा यह सर्व-विदित है कि आचाराङ्ग का प्रथम श्रुतस्कन्ध प्राकृत साहित्य का सबसे प्राचीन ग्रन्थ है। इसकी भाषा भ० महावीर की मूल वाणी है-यह बात यदि सबको स्वीकार्य नहीं भी हो, तो भी इतना तो सबको मान्य है कि इसकी भाषा भ० महावीर की मूल वाणी के साथ बहुत समानता रखती है । अतः इस ग्रन्थ में प्राकृत भाषा का प्राचीनतम रूप उपलब्ध होना चाहिए। परन्तु वर्तमान संस्करणों में अनेक स्थलों पर भाषा की प्राचीनता विलुप्त सी जान पड़ती है। इसका कारण यह है कि प्राकृत भाषा में होने वाले सतत परिवर्तनों ने इस ग्रन्थ के उपदेशकों, अध्येता-आचार्यों, व्याख्याकारों एवं प्रतिलिपिकारों (लेहियों) को ऐसा प्रभावित किया कि ग्रन्थ की मूल भाषा में परिवर्तन आ गये और प्राचीनता के स्थान पर अर्वाचीनता प्रवेश कर गयी। पाठकों को सुविधा हो, इसलिए समय-समय पर भाषा के अप्रचलित रूप निकाल दिये गये और प्रचलित रूप रख दिये गये। ग्रन्थ की विविध प्रतियों में मिलने वाले विभिन्न पाठ इस प्राचीनता-अर्वाचीनता के साक्षी हैं। यह सब होते हुए भी प्राकृत भाषा के विकास का शास्त्रीय एवं वैज्ञानिक अध्ययन करने वाले को इतना तो स्पष्ट हो जाता है कि कौन सा रूप प्राचीन है और कौन सा अर्वाचीन है। विभिन्न शताब्दियों के प्राकृत भाषा में मिलने वाले शिलालेख इस भाषा के तत्कालीन स्वरूप को जानने के लिए हमारे पास अकाट्य प्रमाण हैं । ध्वनि-परिवर्तन की दृष्टि से प्राकृत भाषा का विकास सामान्यतः इस प्रकार माना गया है कि सबसे पहले इसमें संयुक्त व्यञ्जनों का समीकरण हुआ, तत्पश्चात् मध्यवर्ती अघोष व्यञ्जनों का घोष एवं घोष व्यञ्जनों का अघोष में परिवर्तन हुआ और अन्त में मध्यवर्ती व्यञ्जनों का लोप हुआ । विभक्तियों एवं प्रत्ययों में भी क्रमशः परिवर्तन आये, जिन्हें प्राकृत भाषा के ऐतिहासिक विकास का कोई भी अध्येता अच्छी तरह से जानता है। इसी भाषायी विकास या परिवर्तन को ध्यान में रखकर आचाराङ्ग के पू० जम्बूविजयजी द्वारा सम्पादित संस्करण की यह समीक्षा की जा रही है। इसके फलस्वरूप ऐसा प्रतीत होता है कि अभी भी आचाराङ्ग के एक ऐसे नये संस्करण की आवश्यकता है, जिसमें उपलब्ध प्रतों के आधार पर अनेक पाठ बदले जा सकते हैं, जो भाषा की प्राचीनता को सुरक्षित रखने में सहायक हैं । १. अर्धमागधी आगम साहित्य के अनेक संस्करण प्राप्त हैं । उसी प्रकार आचाराङ्ग के भी अनेक संस्करण प्रकाशित हुए हैं, परन्तु उन सबमें जर्मनी से प्रकाशित शुब्रिग महोदय का, आगमोदय समिति द्वारा प्रकाशित पू० सागरानन्दसूरिजी का, जैन विश्वभारती द्वारा प्रकाशित मुनि श्री नथमलजी का एवं श्री महावीर जैन विद्यालय द्वारा प्रकाशित पू० जम्बूविजयजी का-ये चार संस्करण महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं। इनमें से प्रथम और अन्तिम संस्करण में ही विभिन्न प्रतियों से पाठान्तर दिये गये हैं, जबकि अन्य दो में पाठान्तर नहीं दिये गये है। अन्तिम संस्करण आधुनिकतम संस्करण होने से उसकी ही यहां पर समीक्षा को जा रही है। Jain Education International - For Private &Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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