Book Title: Aavashyak Sutra Vibhav se Swabhav ki Yatra
Author(s): Naginashreeji
Publisher: Z_Jinavani_002748.pdf

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________________ 115.17 नवम्बर 2006 जिनवाणी पश्चात्ताप करता हूँ। उन्हें सरल हृदय से प्रकट करता हूँ एवं उनसे अलग होकर पवित्र होता हूँ।' ईसा ने कहा- “पाप को प्रकट करना आवश्यक है। पाप को छिपाने से बढ़ता है। प्रकट करने से कम होता है, नष्ट हो जाता है। मुसलमानों में पाँच बार नमाज पढ़ने की पद्धति है। पाप शुद्धि के लिये किसी ने विस्तार से, किसी ने समास से व्याख्या की, पर अनिवार्यता सबमें देखी जाती है। उक्त सारी क्रियाओं के पीछे आधार आत्म-शुद्धि का ही है। वर्ष के तीन सौ साठ दिन होते हैं। उनमें छह तिथि कम हो जाती है। रात्रिक प्रतिक्रमण 354, देवसिक 329, पक्खी के 21, चौमासी पक्खी के 3 और सांवत्सरिक 1 प्रतिक्रमण होता है। संदर्भ 1. आवश्यकवृत्ति माथा 2, पृष्ठ 53 2. आवश्यकनियुक्ति, गाथा 1244 3. बृहद्वृत्ति, पत्र 580 4. आवश्यक हरिभद्रीया वृत्ति 5. आवश्यकनियुक्ति माथा 1268 6. महावग्ग, पृष्ठ 167 7. खोर देह अवस्ता, पृ. 5/23-24 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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