Book Title: Aavashyak Sutra Vibhav se Swabhav ki Yatra Author(s): Naginashreeji Publisher: Z_Jinavani_002748.pdf View full book textPage 2
________________ |15, 17 नवम्बर 2006 | जिनवाणी 79 होता है। वन्दना करना नम्रता की अभिव्यक्ति है। नम्रता और ऋजुता सहचारी हैं। धर्म की पृष्ठभूमि सरलता है। सरल व्यक्ति का जीवन खुली पुस्तक की तरह है। कोई भी कहीं से पढ ले, वहाँ न लुकाव है, न छिपाव । सरल व्यक्ति अपने दोषों का प्रतिक्रमण करता है इसलिये वन्दना के बाद प्रतिक्रमण का निरूपण है। आचार्य अकलंक ने प्रतिक्रमण का अर्थ अतीत के दोषों से निवृत्त होना किया है।' हरिभद्रसूरि के अनुसार अशुभ प्रवृत्ति से पुनः शुभ प्रवृत्ति में आना प्रतिक्रमण है। अशुभ योग से व्रत में छेद उत्पन्न हो जाते हैं। प्रतिक्रमण से व्रत के छेद पुनः निरुद्ध हो जाते हैं। सूत्रकार ने व्रत - छेद निरोध के पाँच पक्ष बतलाये हैं - १. आस्रव का निरोध हो जाता है। २. अशुभ प्रवृत्ति से होने वाले चरित्र के धब्बे समाप्त हो जाते हैं। ३. आठ प्रवचनमाताओं में जागरूकता बढ़ जाती है। ४. संयम के प्रति एकरसता या समापत्ति सध जाती है। ५. समाधि की उपलब्धि होती है। अनादि काल से मानव कषाय, प्रमाद एवं अज्ञानवश मूर्च्छा में बाहर भटक रहा है। स्व की उसे पहचान नहीं है। प्रतिक्रमण नीड़ में लौटने की प्रक्रिया है । 'The Coming back आन्तरिक व्यक्तित्व के विकास की समग्रता है। अन्तरंग की खुली आँखों में अनोखे आनंद की खुमार है। भवरोग मिटाने की परमौषध है। आचार्य भद्रबाहु ने कहा- "साधक प्रतिक्रमण में मुख्य रूप से चार बातों का अनुचिंतन करे", यथा १. स्वीकृत नियम - उपनियमों की विशेष शुद्धि के लिये प्रतिक्रमण करे । २. साधक सजग रहता है, किन्तु असावधानी के कारण महाव्रत या अणुव्रत में स्खलना हो गई हो तो प्रतिक्रमण अवश्य करे। ३. यदि आत्मा आदि तत्त्व प्रत्यक्ष नहीं होने से अश्रद्धा हो गई हो तो प्रतिक्रमण अवश्य करे। ४. हिंसा आदि दुष्कृत्यों का प्रतिपादन न करे, असावधानी से हो गया हो तो प्रतिक्रमण अवश्य करे। प्रतिक्रमण से समस्त वैभाविक परिणतियों से विरत होकर साधक अन्तर्मुख बन जाता है । कायोत्सर्ग से चंचलता का निरोध होता है। प्रमाद से होने वाली भूलों के घाव पर कायोत्सर्ग मरहम है। इसमें देहाध्यास छूट जाता है । देह में रहते हुए भी साधक देहातीत बन जाता है। भेद ज्ञान का विकास होता है। कायोत्सर्ग में चतुर्विंशतिस्तव का ध्यान किया जाता है। स्थिरता से प्रत्याख्यान की चेतना जागती है। इस विराट् विश्व में इतने अधिक पदार्थ हैं, जिनकी परिगणना संभव नहीं । उन सबका भोग एक व्यक्ति के लिये संभव नहीं । मानव की इच्छाएँ अनन्त हैं। सब कुछ पा लेना चाहता है। अमित आकांक्षाओं के कारण वह अशांत है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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