Book Title: Aavashyak Sutra Vibhav se Swabhav ki Yatra Author(s): Naginashreeji Publisher: Z_Jinavani_002748.pdf View full book textPage 1
________________ 15,17 नवम्बर 2006 जिनवाणी, 18 आवश्यकसूत्र : विभाव से स्वभाव की यात्रा साध्वी नगीना श्री जी साध्वी जी ने भाव प्रतिक्रमण को साधना में तेजस्विता लाने का हेतु बताने के साथ छः आवश्यकों के क्रम की वैज्ञानिकता भी प्रस्तुत की है। जैन धर्म के साथ अन्य धर्मों में भी प्रतिक्रमण का स्वरूप प्रकारान्तर से प्राप्त होता है, यह जानकारी भी प्रस्तुत लेख में दी गई है। -सम्पादक साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका सबके लिये आवश्यक का ज्ञान अनिवार्य है।' अनुयोगद्वार में आवश्यक के आठ अभिवचन हैं - आवश्यक, अवश्यकरणीय, ध्रुवनिग्रह, विशोधि, अध्ययन षट्कवर्ग, न्याय, आराधना, मार्ग! इन नामों में किंचित् भेद प्रतीत होने पर भी अर्थाभिव्यञ्जना में साम्य है। आवश्यक सूत्र कलेवर में भले छोटा हो, पर सबसे अधिक व्याख्याएँ इस पर लिखी गई हैं - नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि, वृत्ति, स्तबक और हिन्दी विवेचन । श्रमणों के लिये आवश्यक अवश्यकरणीय हैं। नहीं करने वाले श्रमण धर्मपथ से च्युत हो जाते हैं। यह आवश्यक नियुक्ति में स्पष्ट है।' छः आवश्यकों का वैज्ञानिक क्रम आवश्यक के छह अंग हैं- १. सामायिक २. चतुर्विंशतिस्तव ३. वन्दना ४. प्रतिक्रमण ५. कायोत्सर्ग ६. प्रत्याख्यान । आवश्यक का यह क्रम कार्य-कारण भाव पर आधारित होने से वैज्ञानिक है। सर्वप्रथम सामायिक का स्थान है। सामायिक अर्थात् समताभाव। सामायिक समता का लहराता समंदर है। समता की प्रतिष्ठा किये बिना गुणों के सुमन नहीं खिलते। भीतर में वैषम्य की ज्वालाएँ प्रज्वलित हों वह गुणोत्कीर्तन के लिये योग्य नहीं बनता। न दूसरों के उदात्त गुणों का संग्राही बनकर अर्हता पा सकता है। अतः समता के बाद गुणोत्कीर्तन का स्थान उचित है। साधक भक्ति की भागीरथी में अवगाहन कर अनिर्वचनीय आनन्द की अनुभूति कर लेता है। महापुरुषों का जीवन अनेक विशेषताओं का प्रतिष्ठान है। उनके गुणकीर्तन से हृदय पवित्र होता है। वासनाएँ शांत होती हैं। तीर्थंकर गोत्र का उपार्जन कर सकता हैं। तीर्थंकर साधना मार्ग के आलोक स्तम्भ हैं। जिस घर में गरुड पक्षी रहता हो वहाँ साँप नहीं आता। वैसे ही हृदय में वीतराग स्तुति रूप गरुड उपस्थित है तो पापों का साँप आ नहीं सकता। स्तवना से दर्शन की विशुद्धि और श्रद्धा निर्मल बनती है। साधक तीर्थंकर की स्तुति के बाद गुरु को वंदन करता है। गुणों को अपने में संक्रान्त करने का माध्यम है वन्दना। वन्दना वही करेगा जो अहं से मुक्त है। वन्दना करने वाला स्वयं विनय गुण से विभूषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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