Book Title: Aavashyak Sutra
Author(s): Shanta Modi
Publisher: Z_Jinavani_003218.pdf

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Page 4
________________ हिवासी जैनावस- साहित्य विशेषाजक सामायिक की साधना विशुद्ध साधना है। करोड़ों वर्षों तक तपश्चरण की निरन्तर साधना करने वाला जिन कर्मों को नष्ट नहीं कर पाता, उनको समभावी साधक कुछ ही क्षणों में नष्ट कर लेता है। आत्म स्वरूप में स्थित रहने के कारण शेष रहे कर्मों की वह निर्जरा कर लेता है। इसीलिये आचार्य हरिभद्र ने लिखा है सामायिक- विशुद्धात्मा सर्वथा घातिकर्मणः । क्षयात्केवलमाप्नोति लोकालोकप्रकाशकम् ।। आचार्य मलयगिरि ने लिखा है- रागद्वेष के कारणों में मध्यस्थ रहना सम है। जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने भी विशेषावश्यक भाष्य में यही परिभाषा स्वीकार की है। सावद्ययोग का परित्याग कर शुद्ध में रमण करना 'सम' कहलाता है। जिस साधना से सम की प्राप्ति हो, वह सामायिक है। 'सम' का अर्थ श्रेष्ठ होता है और 'अयन' का अर्थ आचरण है। अर्थात् श्रेष्ठ आचरण का नाम सामायिक है । अहिंसा आदि श्रेष्ठ साधना समय पर की जाती है वह सामायिक है। 1 मन, वचन, काया की दुष्प्रवृत्तियों को रोककर अपने निश्चित लक्ष्य की ओर ध्यान को केन्द्रित करना तथा उन्हें वश में कर लेना सामायिक है। विषय, कषाय और रागद्वेष से अलग रहकर सदा समभाव में स्थित रहता है। चाहे अनुकूल परिस्थिति हो, चाहे प्रतिकूल, चाहे सुख हो, चाहे दुःख वह सदा समभाव में रहता है। आचार्य भद्रबाहु - जो समो सव्वभूएसु, तसेसु थावरेसु य । तस्स सामाइयं होइ, इइ केवलिभासियं ।। आचार्य जिनभद्रगणी श्रमाश्रमण ने सामायिक को चौदह पूर्व का अर्थ पिंड कहा है। उपाध्याय यशोविजयजी ने सामायिक को सम्पूर्ण द्वादशांगी रूप जिनवाणी का सार बताया है। भगवती सूत्र में भगवान महावीर ने फरमाया --- 'आया सामाइए. आया सामाइयस्स अट्ठे | आचार्य भद्रबाहु ने आवश्यक निर्युक्ति में तीन भेद बताये हैं-- १. सम्यक्त्व - सामायिक २ श्रुत-सामायिक ३. चारित्र - सामायिक । समभाव की साधना के लिये सम्यक्त्व, श्रुत और चारित्र ही प्रधान साधन है । सम्यक्त्व से विश्वास की शुद्धि होती है। श्रुत से विचारों की शुद्धि होती है और चारित्र से आचार की शुद्धि होती है। तीनों मिलकर आत्मा को पूर्ण विशुद्ध और निर्मल बना देते हैं जिससे परमात्मा की कोटि तक पहुँचा जा सकता है। चारित्र सामायिक दो प्रकार की होती है- सर्व विरति सामायिक और देशविरति सामायिक | श्रावक के लिये देश विरति सामायिक है, जिसमें दो करण तीन योग से सावद्य प्रवृत्ति का त्याग किया जाता है । सर्व विरति में तीन करण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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