Book Title: Aavashyak Sutra Author(s): Shanta Modi Publisher: Z_Jinavani_003218.pdf View full book textPage 3
________________ आवश्यक सूत्र ६. प्रत्याख्यान आहार आदि का त्याग I ज्ञानसार में आचार्य ने आवश्यक क्रिया का महत्त्व प्रतिपादित करते हुए लिखा है- आवश्यक क्रिया पहले से प्राप्त भाव-विशुद्धि से आत्मा को गिरने नहीं देती । गुणों की वृद्धि के लिये और प्राप्त गुणों से स्खलित न होने के लिये आवश्यक क्रिया का आचरण बहुत उपयोगी है। आवश्यक में जो साधना का क्रम रखा गया है वह कार्य कारण भाव की शृंखला पर अवस्थित है तथा पूर्ण वैज्ञानिक है। साधक के लिये सर्वप्रथम समता को प्राप्त करना आवश्यक है। बिना समता अपनाये सद्गुणों के सरस सुमन नहीं खिलते और अवगुणों के काँटे नहीं झड़ते । समत्व को जीवन में धारण करने वाला व्यक्ति ही महापुरुषों के गुणों को जीवन में उतार सकता है। इसलिये सामायिक आवश्यक के पश्चात् चतुर्विंशतिस्तव आवश्यक रखा गया है जब गुणों को व्यक्ति हृदय में धारण करता है, तभी उसका सिर महापुरुषों के चरणों में झुकता है। भक्ति भावना से विभोर होकर वह उन्हें वन्दन करता है, इसीलिये तृतीय आवश्यक वन्दन है । वन्दन करने वाले साधक का हृदय सरल होता है। इसी कारण वह कृत दोषों की आलोचना करता है । अतः वन्दन के पश्चात् प्रतिक्रमण आवश्यक का निरूपण है। भूलों का स्मरण कर उन भूलों से मुक्ति पाने के लिये तन एवं मन में स्थैर्य आवश्यक है। कायोत्सर्ग में तन और मन की एकाग्रता की जाती है जिससे स्थिरवृत्ति का अभ्यास किया जाता है। जब तन और मन स्थिर होता है, तभी प्रत्याख्यान किया जा सकता है। मन डाँवाडोल हो तो प्रत्याख्यान संभव नहीं है। इसीलिये छठा आवश्यक प्रत्याख्यान रखा गया है। इसी प्रकार यह षडावश्यक आत्मनिरीक्षण, आत्मपरीक्षण, आत्मोत्कर्ष का श्रेष्ठतम उपाय है। 1. सामायिक षडावश्यक में सामायिक का प्रथम स्थान है। वह जैन आचार का मार है। सामायिक श्रमण और श्रावक दोनों के लिये आवश्यक है । सर्वप्रथम श्रावक सामायिक नारित्र ग्रहण करता है। चारित्र के पाँच प्रकार हैं, उनमें सामायिक चारित्र प्रथम है। सामायिक चारित्र चौबीस तीर्थंकरों के शासन काल में रहा है, पर अन्य चार चारित्र अवस्थित नहीं हैं। श्रमणों के लिये सामायिक प्रथम चारित्र है, तो गृहस्थ साधकों के लिये सामायिक चार शिक्षा व्रतों में प्रथम शिक्षा व्रत है। जैन आचार दर्शन का भव्य प्रासाद सामायिक की सुदृढ़ नींव पर आधारित है। आचार्य हरिभद्र ने तो स्पष्ट किया है कि साधक चाहे दिगम्बर हो, श्वेताम्बर हो, बौद्ध हो या अन्य किसी मत का हो, जो भी समभाव में स्थित होगा वह निःसन्देह मोक्ष को प्राप्त करेगा दिवसे दिवसे लक्ख देइ सुवण्णस्स खंडियं एगो | एगो पुण सामाइयं करेइ न पहुथ्यए तस्स || Jain Education International 443 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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