Book Title: Aatma hi hai Sharan
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 227
________________ 221 जैनभक्ति और ध्यान भी ध्यानावस्था में ही होती है । अतः ध्यान मुद्रा ही धर्ममुद्रा है, सर्वश्रेष्ठ मुद्रा है । ध्यान सर्वश्रेष्ठ है, पर किसका ध्यान ? अपने आत्मा का, पर का नहीं, परमात्मा का भी नहीं । निज भगवान आत्मा के ध्यान से ही केवलज्ञान ___ की प्राप्ति होती है । आज तक जितनी भी आत्माओं को सर्वज्ञता की प्राप्ति हुई है, उन सभी को निज भगवान आत्मा के ध्यान से ही हुई और भविष्य में भी जिन्हें सर्वज्ञता की प्राप्ति होगी, वह भी निज भगवान आत्मा के आश्रय से ही होनेवाली है । अतः आत्मध्यान ही धर्म है । आत्मा का ध्यान करने के लिए उसे जानना आवश्यक है । इसीप्रकार अपने आत्मा के दर्शन के लिए भी आत्मा का जानना आवश्यक है । इसप्रकार आत्मध्यान रूप चारित्र के लिए तथा आत्मदर्शनरूप सम्यग्दर्शन के लिए आत्मा का जानना जरूरी है तथा आत्मज्ञान रूप सम्यग्ज्ञान के लिए तो आत्मा का जानना आवश्यक है ही । अन्ततः यही निष्कर्ष निकला कि धर्म की साधना के लिए एकमात्र निज भगवान आत्मा का जानना ही सार्थक है। ___ सुनकर नहीं, पढ़कर नहीं; आत्मा को प्रत्यक्ष अनुभूतिपूर्वक साक्षात् जानना ही आत्मज्ञान है और इसीप्रकार जानते रहना ही आत्मध्यान है । इसप्रकार का आत्मज्ञान सम्यग्ज्ञान है और इसीप्रकार का आत्मध्यान सम्यक्चारित्र है। __ जब ऐसा आत्मज्ञान और आत्मध्यान होता है तो उसीसमय आत्मप्रतीति भी सहज हो जाती है, आत्मा में अपनापन भी सहज आ जाता है, अतीन्द्रिय आनन्द का वेदन भी उसीसमय होता है; सबकुछ एकसाथ ही उत्पन्न होता है और सबका मिलाकर एकनाम आत्मानुभूति है । ___जब यह आत्मानुभूति प्रगट होती है, तब विषय-कषाय की रुचि तो समाप्त हो ही जाती है, साथ में अनुभूति की सघनता के अनुपात में विषय-कषाय की वृत्ति और प्रवृत्ति भी कम होती जाती है । जब इस अनुभूति का वियोग काल अन्तर्मुहूर्त से भी कम रह जाता है तो साधु दशा प्रगट हो जाती

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