Book Title: Aatma hi hai Sharan
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 233
________________ 227 जैनभक्ति और ध्यान खोलना है और न नाशाग्र ही करना है; आँखों में कुछ करना ही नहीं है, उन पर से तो उपयोग हटाना है और आत्मा पर ले जाना है । ऐसी स्थिति में आँखों की स्थिति कैसी रहेगी, क्या चाहे जैसी रह सकती है ? नहीं, नाशाग्र ही रहेगी; क्योकि नाशान ही ज्ञानी-ध्यानी की आँख की सहज अवस्था है । आँख भीचने में भी उपयोग लगेगा; और खोले रखने में भी उपयोग लगेगा; पर नाशाग्रता में उपयोग की आवश्यकता नहीं है। उपयोग आँख पर से हटकर आत्मा में चला जावे तो आँख सहज नाशाग्र हो जाती है । आँख नाशाग्र होती है, पर नाक दिखती नहीं; क्योंकि दिखाई तो आत्मा दे रहा है । जब नाक दिखती है तो आत्मा नहीं दिखता और जव आत्मा दिखता है तो नाक नहीं दिखती-छद्मस्थों की यही स्थिति है। ___ अतः यह स्पष्ट है कि नाशाग्रदृष्टि का अर्थ नाक को देखना नहीं है। मैं आपसे ही पूछता हूँ कि जब भगवान को केवलज्ञान हुआ था, तब वे क्या कर रहे थे ? कुछ नहीं । पर का तो कुछ भी नहीं कर रहे थे; पर अपने आत्मा का ध्यान कर रहे थे । तो बस, यही समझ लीजिए कि पर का कुछ भी करना धर्म नहीं है। क्योंकि पर का करते-करते आज तक किसी को केवलज्ञान नहीं हुआ । आत्मा का ध्यान ही धर्म है, क्योंकि आज तक जितने जीवों को केवलज्ञान की प्राप्ति हुई है, सभी को आत्मा का ध्यान करते-करते ही हुई है । अतः आत्मा का ध्यान ही धर्म है । __आत्मा का ध्यान करने के लिए पहले उसे जानना जरूरी है; अतः धर्म करने की इच्छा रखनेवाले को सर्वप्रथम आत्मा को जानने का, पहिचानने का प्रयास करना चाहिए। यही मार्ग है, शेष सब अमार्ग हैं, छलावा मात्र हैं। सभी आत्मार्थीजन निज भगवान आत्मा को जानकर, पहिचान कर, उसका ही ध्यान धरें;-इस पावन भावना से विराम लेता हूँ ।

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