Book Title: Aatma hi hai Sharan
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 226
________________ आत्मा ही है शरण 220 गया है । इसीप्रकार भगवान हमें मुक्ति का मार्ग बतावें और हम मुँह फेर लें तो इससे बड़ा अभाग्य हमारा और क्या होगा ? अतः इन्कार मत करो, उनकी इस सहज सरल हितकारी बात को हम सब नतशिर होकर प्रसन्नता से स्वीकार कर लें - इस में ही हम सबका भला है । वीतरागी-सर्वज्ञ भगवान ने हमें भगवान बनने की जो विधि बताई है, वह भी सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र रूप होने से अत्यन्त सरल, सहज एवं स्वाधीन है । पर से भिन्न निज भगवान आत्मा के दर्शन का नाम सम्यग्दर्शन है, पर से भिन्न निज भगवान आत्मा के जानने का नाम सम्यग्ज्ञान है और पर से भिन्न निज आत्मा में जमने-रमने का नाम सम्यक्चारित्र है । सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र - इन तीनों में ही आश्रयभूत तत्त्व एकमात्र निज भगवान आत्मा ही है; अतः सर्वप्रथम उसे जानना अत्यन्त आवश्यक है। हम जरा इस बात पर विचार करें कि हमारे मन्दिरों में जिनेन्द्र भगवान की जो मूतियाँ विराजमान हैं, वे किस मुद्रा की हैं ? जन्म से लेकर मोक्ष जाने तक तो उनके जीवन में एक से एक अच्छी अनेक मुद्रायें आई होंगी, पर हमने उनकी ध्यान मुद्रा ही क्यों चुनी ? हमारे घरों में हमने अपनी तस्वीरे भी लगा रखी हैं, पर वे सभी हमारी रागमुद्राओं की तस्वीरें ही हैं । शादी-विवाह की पति-पत्नी की जोड़े से सजी-संवरी तस्वीरें ही अधिकाश घरों में लटकी मिलेंगी । तीर्थंकरों की भी शादियाँ हुई थीं । उनकी भी वैसी मुद्रायें क्यों नहीं बनाई गई मूर्तियों में; जबकि अन्य धर्मों में ऐसा होता भी है । राम-सीता, शंकर-पार्वती, विष्णु-लक्ष्मी की मूर्तियाँ इसीप्रकार की बनाई जाती हैं । पर जैन तीर्थंकरों की सभी मूर्तियां ध्यान मुद्रा में ही क्यों मिलती हैं ? । जब इस बात पर गम्भीरता से विचार करते हैं तो एक बात अत्यन्त स्पष्ट दिखाई देती है कि ध्यान चारित्र का सर्वोत्कृष्ट रूप है, ध्यान अवस्था में ही केवलज्ञान होता है, अनन्तसुख प्रगट होता है; अनन्तवीर्य की प्राप्ति

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