Book Title: Aakar Chitra Rup Stotro ka Sankshipta Nidarshan Author(s): Rudradev Tripathi Publisher: Z_Kusumvati_Sadhvi_Abhinandan_Granth_012032.pdf View full book textPage 6
________________ Sonicant कर प्रसिद्ध १ - दर्पण, २ - भद्रासन, ३- शराव- सम्पुट ४ - मत्स्य युगल, ५ – कलश, ६ - स्वस्तिक ७ - श्री वत्स और ८ - चामरयुगल' की अष्टमङ्गलों की आकृतियों में बनाये गये स्तुति-पद्यों से अलंकृत है । इस प्रकार के आकार - चित्र पद्य कवि के द्वारा स्वप्रतिभा से प्रथम ही निर्मित हुए हैं। इन पद्यों के पठन का क्रम कवि ने नहीं दिखलाया है | अतः हमने अपने ग्रन्थ "चित्रालंकार- चन्द्रिका" में इनके लक्षण-पद्य बना दिये हैं । रचना अत्युत्तम है । एक उदाहरण द्रष्टव्य है चन्द्रातपप्राय सुकीतिरामं, चन्द्रानन सारगुणाभिरामम् । यः स्तौति चन्द्रप्रभमस्त सारं यमीस आप्नोति भवाब्धि पारम् ||३|| इसका निवेश 'शराव- सम्पुट' में किया गया है । रचनाकार का समय १५ वीं शती माना गया है । १६- शतदल कमल बन्धमय- पार्श्वजिनेश्वर - स्तुति श्री सहजकति गणि यह स्तुति २६ पद्यों में रचित है जिनमें २५ पद्यों से १०० दल वाले कमल की आकृति में बन्धपूर्ति की गई है तथा अन्तिम पद्य पुष्पिका रूप है । यह स्तोत्र लोधपुर (गुजरात) में एक प्रस्तर खण्ड पर उत्कीर्णं है । कुछ अंश खण्डित भी हो गया है, जिसकी पूर्ति हमने अपने शोध-प्रबन्ध में कर आकृति - सहित मुद्रित किया है और लक्षण भी बना दिया है । इसका आद्यपद्य इस प्रकार हैश्रीनिवासं सुरश्रेण्यसेव्य क्रम, वामकामाग्नि-सन्ताप नीरोपमम् । माधवेशादि - देवाधिकोपक्रम, तस्वसंज्ञानविज्ञानमव्याश्रमन् ||३|| यहाँ कणिका में 'म' अक्षर के साथ अनुस्वार, विसर्ग अथवा केवलाक्षर सम्बुद्ध यन्त आदि के रूप में पढ़ा जाता है जो चित्रकाव्य के लिये दोष नहीं माना जाता है। इसकी रचना १५४२ ई० में हुई है । छन्द प्रयोगों में वैविध्य है । प्रत्येक चरण को एक - एक दल में लिख कर अन्तिम अक्षर को श्लिष्ट ३६६ Jain Education International बनाया है जो १०० बार पढ़ा जाता है । कवि ने पुष्पिका में लिखा है इत्थं पार्श्वजिनेश्वरो भुवनदिक्कुम्भ्यङ्गचन्द्रात्मके, वर्षे वाचकरत्नसार कृपया राका दिने कार्तिके ।. मासे लोद्रपुररस्थितः शतदलोपेतेन पटुमन सन्, नूतोऽयं सहजादि कीर्तिगणिना कल्याणमालाप्रदः ||२६|| १७-१८ - शृङ्खला और हारबन्धमय पार्श्वनाथ स्तोत्र - श्री समयसुन्दरगणि सन् १५६४ से १६४३ ई० में विराजमान श्री समयसुन्दर गणि ने अनेक स्तोत्रों की रचना की है। उनमें उपर्युक्त दो स्तोत्र चित्र बन्धमय हैं । ये 'समय- सुन्दर-कृति - कुसुमाञ्जलि' में नाहटा - बन्धु द्वारा प्रकाशित हैं । १६ - सहस्रदल कमल बन्धरूप- अरनाथ स्तव-श्री वल्लभ गणि वनवैभवात्मक चित्रबन्ध काव्यों की परम्परा में आश्चर्यकारी कीर्तिमान स्थापित करने वाला यह स्तोत्र अत्यन्त महत्वपूर्ण है । खरतरगच्छ के ज्ञानविमल मणि के शिष्य, वाचक श्रीवल्लभ गणि ने इस स्तोत्र में अरनाथ स्वामी की स्तुति की है । १००० दल के कमल में ५५ पद्य समाविष्ट है । प्रत्येक पद्य की वर्ण योजना इस प्रकार की गई है कि दो-दो अक्षरों के बाद तीसरा अक्षर 'र' ही आता है जो कणिका में श्लिष्ट होकर एक हजार बार पढ़ा जाता है । इस महान् प्रयास की सिद्धि के लिये कवि ने 'एकाक्षरी कोश' का भी आश्रय लिया है । लेखक ने इस पर स्वोपज्ञ वृत्ति भी बनाई है । हमने इसके खण्डितांशों को पूर्ण करके आकृति के अभाव की भी पूर्ति की है तथा पठन प्रक्रिया ज्ञान के लिये लक्षण भी बनाया है । दृष्टव्य- 'संस्कृत साहित्य में शब्दालंकार' शीर्षक शोध-प्रबंध | इसका प्रथम पद्य इस प्रकार है असुर- निर्जर-बन्धुर- शेखर- प्रचुरभव्यरजोभिरयं जिरम् । क्रमरजं शिरसा सरसं वरं, जित-रमेश्वर - मेदुर- शङ्करम् ॥१॥ पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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