Book Title: Aakar Chitra Rup Stotro ka Sankshipta Nidarshan
Author(s): Rudradev Tripathi
Publisher: Z_Kusumvati_Sadhvi_Abhinandan_Granth_012032.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ FOROSCORReOQROcreDQROgreDeOpedia डॉ० रुद्रदेव त्रिपाठी एम० ए०, पी-एच० डी० डी० लिट० उज्जैन (म० प्र०) जैन-स्तोत्र-साहित्य के सन्दर्भ में । आकार-चित्ररूप स्तोत्रों का संक्षिप्त निदर्शन - स्तोत्र-रचना का प्रमुख उद्देश्य बनता है । इष्टदेव का नाम-स्मरण और उसके मा विश्व-साहित्य की सृष्टि का मूल स्तुति-स्तोत्रों गुण र गुणों का कथन किसी भी रूप में किया जाये, वह IK Rमें निहित है। यह रचना मानव के जन्म से मरण- 'स्तोत्र' ही है। 18 ' और पर्यन्त ही नहीं, अपितु मरणोत्तर की कामनाओं स्तोत्र की काव्यात्मकता को भी अपने में समेटे हई है। इस दृष्टि से मम्मट काव्य-स्वरूप निर्धारण में रचना की 'बन्धके काव्य-लक्षण में प्रयुक्त 'शिवेतर-क्षति' पद स्तोत्र- सापेक्षता और बन्ध-निरपेक्षता' दोनों ही महत्वपूर्ण रचना के प्रमुख उद्देश्य की पूर्ति करता है । संसार रीढ हैं । इसके साथ ही उक्ति-वैशिष्ट्य जब इसमें 12 की विचित्र गतिविधि के समक्ष मानव अपनी प्रविष्ट होता है तो वह काव्यात्मक स्वरूप को प्राप्त विह्वलताओं से छुटकारा पाने के लिए अपने इष्ट हो जाती है। स्तोत्र में रमविशेष का समावेश के प्रति जो काव्यमयी वाणी में कथन करता है, सहज होता है। कथा की अथवा कथन को पर वही 'स्तुति' अथवा 'स्तोत्र' कहलाता है। इनमें स्पर-सापेक्षता अपेक्षित नहीं होती। अतः . 'सुख की आकांक्षा, कृपा की कामना, अपेक्षित की प्रार्थना, स्तोत्र को 'मुक्तकों का समूह' भी कहा जाता है । | उपेक्षणीय की निवृत्ति' आदि भावनाओं का प्रकटन बन्ध की सापेक्षता स्तोत्र के क्षेत्र में उतनी महत्वall होता है और सबके मूल में रहती है "इष्ट की पूर्ण नहीं मानी गई है और वह सम्भव भी नहीं है। प्रशंसा ।"-कृतज्ञता-ज्ञापन तथा आत्मनिवेदनरूपी होती । क्योंकि स्तोत्र में आने वाले पद्यों में से एक । दो तटों के मध्य बहती हुई स्तोत्र-सरिता में पद्य भी अपने आप में परिपूर्ण भावों को व्यक्त कर स्तोतव्य के प्रशंसनीय गुणों का आख्यान ही स्तोत्र देता है। इतना होने पर भी स्तोत्र की काव्यात्म १ काव्यं यशसेऽर्थकृते व्यवहारविदे शिवेतरक्षतये । सद्यः परनिवतये कान्तासम्मिततयोपदेशयुजे ॥ -काव्यप्रकाश, १-१ १२ गुणकथनं हि स्तुतित्वं, गुणानामसद्भावे स्तुतित्वमेव हीयते । -शास्त्रमुक्तावली, पू. नी. १-२-७ । १ ३ प्रतिगीत-मन्त्रसाध्यं स्तोत्रम् । छन्दोबद्धस्वरूपं गूणकीर्तनं वा । -ललिता सहस्रनाम, सौभाग्यभास्करभाष्य, पृ. १८८ । ३६१ । पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास 60 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ 260 r Private & Personal Use Only www.janeuvery.org Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कता में सभी काव्योचित गुणों की स्थिति तो त्रगत पद्य की रचना की जाती है, तब उसे हम अवश्य ही समाविष्ट रहती है, जो काव्य की 'एक चित्रालंकार युत स्तोत्र' की संज्ञा देंगे और यदि आत्मा को उल्लसित करते हैं, उसमें शिवत्व की एक ही स्तोत्र में अनेक प्रकार के चित्रालंकारों का हि । प्रतिष्ठा करते हैं और अशिवन्व की निवृत्ति के प्रयोग किया जाता हो तो उसे 'अनेक चित्रालंकार लिए उत्प्रेरित करते हैं। इसके साथ ही काव्य युत स्तोत्र' की संज्ञा देंगे । जैनाचार्यों ने इन दोनों शरीर को औज्ज्वल्य प्रदान करने वाले वे तत्व भी प्रकारों को अपने स्तोत्रों में अपनाया है। इस दृष्टि स्तोत्रों में पूर्णतः विकसित होते हैं जिन में साहित्य से प्रथम 'एक चित्रालंकार-युत स्तोत्र' की परम्परा की कलात्मक अभिव्यक्ति के लिए अलंकारों का का परिचय || साहचर्य प्राप्त किया जाता है । अलंकार 'शब्दगत, १-स्तुति विद्या : आचार्य समन्तभद्र (0) अर्थगत और शब्दार्थगत' ऐसे तीन प्रकारों में दिगम्बर जैन स्तुतिकारों में आद्य स्तुतिकार व्याप्त हैं। इनमें 'शब्दगत अलंकार' शब्द-स्वरूप आचार्य श्री समन्तभद्र ने ईसा की द्वितीय शताब्दी की सौन्दयोपयोगी प्रयोगगत व्यवस्था से 'भाषा की में 'स्तुति विद्या' नामक इस 'जिन-शतक' में परिष्कृत सृष्टि, नाद संसार की परिव्याप्ति, चम चतुर्विशति जिनों की भावप्रवण स्तुति की है । यह कर त्कार-प्रवणता, भाव-तीव्रता और विशिष्ट अन्त - पूरी स्तुति 'मुरज बन्धों' के अनेक रूप प्रस्तुत करती हूँ ष्टि का सहज आनन्द' प्राप्त करते हैं। है। रचना 'गति-चित्रों' की भूमिका पर निर्मित होने ___वस्तु जगत् के प्रच्छन्न भावों को गति प्रदान के कारण चक्र-बन्धों की सष्टि में भी पूर्णतः समर्थ करने वाले इस शब्दालंकार के अनेक भेद-प्रभेद हैं, है। यहाँ तक कि कछ पद्य तो 'अनुलोम-विलोमरूप' उनमें 'चित्रालंकार' भी एक है । इसमें 'चित्र' शब्द ___ में भी पढ़े जाने पर एक पद्य से ही द्वितीय पद्य की 'आश्चर्य और आकृति' के अर्थ में प्रयुक्त है । वौँ सष्टि करते हैं। प्रायः सभी पद्य अनुष्टुप् छन्द में हैं की की संयोजना के द्वारा श्रोता और पाठक दोनों का एक पद्य द्रष्टव्य हैविस्मित कर देना और रचनागत वैशिष्ट्य से आनन्दित कर देना इसका सहज गुण है। इसका . रक्ष माक्षर वामेश शमी चारुरुचानुतः । ही एक प्रभेद-'आकृतिमुलक चित्रालंकार' है। भो विभोनशनाजोरुनम्रन विजरामय ॥८६॥ यह विभिन्न आकृतियों में पद्य अथवा पद्यों को यही पद्य चौथे पद के अन्तिमाक्षर से विपरीत लिखने से प्रकट होता है । इस विशिष्ट विधा को पढ़ने पर अन्य पद्य बनता है और स्तोत्रकार आचार्यों ने बहुत ही स्वाभाविक रूप से स्तुति प्रस्तुत करता है। अपनाया है। यहाँ जैन स्तोत्रकारों द्वारा स्वीकृत २-शान्तिनाथ स्तोत्र : आचार्य गुणभद्र चित्रालंकार-मूलक स्तोत्रों में 'आकार-चित्ररूप स्तोत्रों दिगम्बर सम्प्रदाय के ही आचार्य गुणभद्र ने का संक्षिप्त निदर्शन' प्रस्तुत है। आठवीं शताब्दी में एक 'शान्तिनाथ-स्तोत्र' की आकार चित्रकार न-स्तोत्र रचना की जिसमें 'अष्टदल कमलबन्ध' की रचना की 'आकार-चित्र-काव्य' में किसी एक प्रकार- है जिसमें पंखडियों में ३-३ अक्षर और मध्यकणिका विशेष को ध्यान में रखकर स्तोत्र की अथवा स्तो- में एक अक्षर 'न' श्लिष्ट है । यथा SHREE वस्तुत: 'चित्रालंकार' के परिवेष में-१-स्वर, २--स्थान, ३-वर्ण, ४---गति, ५-प्रहेलिका, ६-च्युत, ७-गूढ, ८-प्रश्नोत्तर, 8-समस्या-पूर्ति, १०-भाषा और ११---आकार आदि मुख्य भेद एवं इन प्रत्येक के विविध उपभेद हैं । द्रष्टव्य-'शब्दालंकार-साहित्य का समीक्षात्मक सर्वेक्षण, पृ० १२६ से १३४ । पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास 63-69 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ...... .. J. पद्माभेन धृतो येन समयो नयपावनः । ५-पञ्चजिन हार-स्तव : श्री कुलमण्डन सूरि स्वर्लोकेन कृतामानः पूयाज्जिनः स नो मनः ॥७।। कूलमण्डन सरि १३वीं शती ई. के अन्तिम इत्यादि। चरण में हुए थे। आपने अनेक स्तोत्रों की रचना की | ३- सर्वजिन-स्तव : श्री धर्मघोष सूरि थी। उनमें उपर्युक्त स्तोत्र २३ पद्यों में निर्मित है। प्रस्तुत स्तोत्र द्वारा कवि ने चौबीस दलवाले इसमें ४ पद्य ऋषभ, ४ शान्ति, ५ नेमि, ४ पार्श्व RO) 'कमल-बन्ध' की योजना की है। इसमें कूल ८ पद्य और ४ महावीर से सम्बद्ध हैं। 'हार-बन्ध' की IKE हैं जिनमें अन्तिम पद्य पुष्पिका-रूप है। पहला पद्य योजना पुष्पमाला के समान है तथा उसमें कहीं परिधि में लिखा जाता है अन्य छह पद्यों के प्रत्येक छोटे और कहीं बड़े पुष्प हैं, इसके कारण उनके दलों चरण के तीन-तीन खण्ड एक-एक पत्र में रहते हैं। की संख्या भी विषम है। मध्य में एक स्वस्तिक के चरण में ५-५ और ६ अक्षरों के बाद के अक्षर तीन आकार वाला चन्द्रक (लॉकेट) भी है । इस दृष्टि से बार आवृत्त होते हैं जो २४ लघुकणिकाओं में निवष्ट यह बन्ध अति श्रम साध्य तो है ही। इसका प्रारम्भहैं । प्रथम पद्य इस प्रकार है पद्य इस प्रकार हैनम्राखण्डल मौलिमण्डलमिलन्मन्दारमालोच्छलत् गरीयो गुणश्रेण्यरेणं प्रवीणं, परार्थे जगन्नाथ धर्म धुरीणम् । सान्द्रामन्द मरन्दपूर सुरभीभूतक्रमाम्भोरुहान् । धराधारमादिप्रभो रंगरम्यं, श्रीनाभिप्रभवप्रभुप्रभृतिकाँस्तीर्थकरान् शंकरान् स्तोष्ये साम्प्रत काललब्ध जननान् भक्त्या चतुर्विशतिम् स्तुवे त्वां बुधध्येय धौतारिवारम् ॥१॥ ॥१॥ ६-श्री वीर हरि-स्तव : श्री कुलमण्डन सूरि श्री धर्मघोष सूरि श्वेताम्बर जैन सम्प्रदाय के इस स्तव में कवि ने विविध छन्दों का प्रयोग आचार्य थे तथा इनका समय सन् १२२८ ई० माना करते हुए १७ पद्यों में 'हार-बन्ध' की रचना की है। जाता है। हार में २० मणियाँ हैं । बीच में २-२ चतुर्दलात्मक ४-सर्वजिन साधारण स्तवन : श्री धर्मशेखर पंडित पुष्प, मध्य में 'नायक दल' और उस पर सप्तदल पुष्प तथा मध्य में दोरक ग्रन्थि है। पण्डित प्रवर श्री धर्मशेखर का यह स्तोत्र २१ पद्यों में निर्मित है। इसमें कवि ने '६४ दलवाले : ७-श्री वीरजिन स्तुति : श्री कुलमण्डन सूरि कमलबन्ध' की योजना की है। अन्तिम पद्य परिधि इस स्तुति में पहला और इक्कीसवाँ । T रूप है। इनका समय सन् १४४३ ई० (?) माना ME लविक्रीडित में हैं तथा अन्य पद्य २ से १६ तक अनु- TR गया है, किन्तु कुछ विद्वान इन्हें १३वीं शती का ष्टुप् में छन्द हैं । अन्तिम पद्य में विशेष रूप से १६ मानते हैं । रचना में गाम्भीर्य और कौशल दोनों " बन्धों द्वारा श्रीवीर की स्तुति करने का परिचय भी दिया है। किन्तु यह 'अष्टादशार चक्रबन्धमय स्तुति' है । ही स्पृहणीय हैं । यथा इसमें कणिकाक्षर 'त' है और उसी से सभी पद्यों जीयास्त्वं देव भद्र प्रवर कुट जगच्चन्द्र देवेन्द्रवन्धः । का आरम्भ होता है। इस प्रकार यह स्तति अत्यन्त काल) श्री विद्यानन्द दान-प्रवर-गुणनिधे धर्मघोष प्रवीणः ।। महत्वपूर्ण है, क्योंकि इसमें 'एक चित्र बन्धरूप' और मुक्तासोम प्रभाली-धवल गुरुयशोनाथ नि:शेषविश्वं, 'अनेक चित्रबन्धरूप' दोनों प्रक्रियाओं का प्रयोग हुआ स्फारस्फूर्जत् प्रभावः शमदमपरमानन्दयाशु प्रकामम् ।।७॥ है। इसका और भी एक महत्व स्मरणीय है कि १ इस स्तव का मूलपाठ हमने 'महावीर परिनिर्वाण स्मृति ग्रन्य' (लालबहादुर शास्त्री) केन्द्रीय संस्कृत विद्यापीठ, नई दिल्ली, से प्रकाशित में 'महावीरस्य चित्रकाव्यार्चना' में दिया है। पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास OR साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ ducation Internatio or Private & Personal Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द इसके चित्रण ने जो चक्र बनता है, उसके स्वरों में श्री वर्धमानं ह्यभिनौम्यमानममानदेवैः परिणूयमानम् । लिखित अर्धालियों में क्रमशः ४, ८, १२ और १६ अहं महं तं सुगुणैरनन्तं पवित्रछत्राकृति-काव्यबन्धात् ।। संख्या के अक्षर चक्रावर्तित क्रम से एकत्र करने पर उनसे एक शार्दूलविक्रीडित पद्य भी पृथक् बनता है। -- कमल-बन्ध-स्तवः श्री उदयधर्मगणि १ जिसका पहला अक्षर श्लिष्ट होकर १९वें अक्षर के इस कृति का पूरा नाम 'महावीर जिन स्तवन' रूप में प्रयुक्त होता है। इसका द्वितीय पद्य इस है। १३वीं शताब्दी के बृहत् तपागच्छीय रत्नसिंह प्रकार है सूरि के शिष्य श्री उदयधर्म गणि द्वारा निर्मित यह र तनुते यन्नति जम्भजिद्राजी मुद्रिता दूतम् । स्तवन १८ पद्यों का है। १६ पद्यों से ३२ दलों का तं स्तुवे बीततन्द्राजी-भयं भावेन भास्वता ।।१।। कमलबन्ध' बनता है और सत्रहवां पद्य परिधि में (ER इस पद्य से 'मुशल बन्ध' भी बनता है। रुद्रट कवि लिखा जाता है, जिसके कुछ अक्षर पत्राक्षरों से । ने इस प्रकार के 'अष्टार चकबन्ध' का उदाहरण दिया। श्लिष्ट होते हैं । इस पद्य से कविनाम, काव्यनाम है और उसी से प्रेरित होकर यह स्तति १८ अक्षर और गुरुनाम भी प्राप्त होते हैं । यथातक पहुँचाई है । इसमें जो अन्य बन्ध बनते हैं, उन । सन्नमत त्रिदशवन्द्यपदं श्रीवर्द्धमानममलं विजित्तारम् । का सूचन निम्नलिखित पद्य में द्रष्टव्य है संस्तवीमि भवसागरपारं प्राप्तुरिच्छरुरु सद्गुणरत्नम् ।२। अन्तिम पद्य पुष्पिकारूप है, जो 'श्री सिद्धार्थचक्रोऽयोमुख-शूल-शङ ख-सहिते सुश्रीकरी-चामरे, नरेन्द्र नन्दन' इत्यादि पद से प्रारम्भ होता है। ७ ८ ९ १० ११ १२ १३ सीरं भल्ल-शरासने असिलता शक्त्यातपत्रे रथः। १०-श्री वीरजिन-स्तव-श्री जिनप्रभ सूरि १४ १५ १६ १७ १८ १९ श्वेताम्बर जैन सम्प्रदाय के प्रसिद्ध आचार्य श्री का कुम्भार्धम्रम-पड कजानि च शरस्तस्मात् त्रिशूलाशनी, जिनप्रभ के सम्बन्ध में यह प्रसिद्ध है कि वे 'प्रतिचित्ररेभिरभिष्टुतः शुमधियां वीर ! त्वमेधिश्रिये।२०। दिन एक स्तुति की रचना करके ही आहार ग्रहण वस्तुतः इस स्तुति में १८ अन्य चित्र बन्ध हैं करते थे ।' इनकी सात सौ स्तुतियाँ थीं, जिनमें से । और १ यह महाचक्र बन्ध बनता है। अतएव इसे अब कुछ ही प्राप्त हैं। उनमें भी आकार चित्रकाव्य 'अष्टादश-चित्र-चक्र-विमलं' कहा ग रूप स्तुतियों में उपर्युक्त स्तोत्र अनेक चित्र-काव्यों ___ से संश्लिष्ट है । इसकी रचना में-'कमल (८ दल ८-वर्धमानजिन-स्तवः : श्रीधर्मसुन्दर(सिद्धार और २४), खडग, चक्र (षडर), चामर, त्रिशूल, ____ इसी शती के कनकसूरि के शिष्य धर्मसुन्दर धनुष, पद, बीजपूर, मुरज, मुशल, शक्ति, शर, एक द्वारा रचित वर्धमानजिन स्तव 'आतपत्र-बन्धमय हल, हार आदि बन्ध तथा लोम-विलोम पद्य, है। यह साधारण छत्र-बन्धों की अपेक्षा अपना निर्मिल हैं । विशेषतः यहाँ स्तुत्यनामगर्भ बीजपूर विशिष्ट स्थान रखती है। इसमें १५ पद्य हैं और और कविनाम गुप्त षडरचक्र-तथा चामर बन्धों इसका चित्रण सिंहासन सहित उस पर लगे हुए की योजना महत्वपूर्ण है । स्तोत्र के प्रारम्भ में चित्र छत्र के समान है। इसका प्रथम पद्य इस प्रकार स्तवन की प्रतिज्ञा श्री जिन भ सूरि ने इस प्रकार की है १-२ इनके भी मूल शुद्ध पाठ वहीं द्रष्टव्य हैं। ३६४ 36 पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ 6000 कम TE bor Sivate & Personal Use Only न ग्रन्थ Jain N ation International en www.jaineliberg Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्र: स्तोष्ये जिनं वीरं, चित्रकृच्चरितं मुदा । प्रतिलोमानुलोमाद्यैः, स्वङ गाद्यैश्चारुभिः ॥ 'चामर-बन्ध' का पद्य इस प्रकार है श्रीमद्धामसमग्रविग्रह ! मया चित्रस्तवेनामुना, नूतस्त्वं पुरुहूतपूजित विभो सद्यः प्रसद्येधि माम् । ख्यात ज्ञातकुलावतंस सकलत्रैलोक्य- क्लृप्तान्तरस्फार क्रूरतरज्वरस्मरतरत्संरब्धरक्षारत ! ।।२७ । इस प्रकार अपूर्व प्रतिभा के धनी आचार्य जिन प्रभसूरि के स्तोत्र अत्यन्त महनीय गुणों से मण्डित हैं । इनका स्थिति-काल १३०८ ई. का है । ११ - वीरजिन स्तोत्र - श्रीसोमतिलक सूरि कविवर सोमप्रभसूरि के पट्टधर, १३वीं शती के समर्थ आचार्य श्री सोमतिलक सूरि ने अन्यान्य अनेक ग्रन्थों के अतिरिक्त 'वीरजिनस्तोत्र' के नाम से चित्रकाव्यात्मक स्तोत्र बनाया है । इसमें विविध दल वाले विभिन्न कमल - बन्धात्मक पद्य हैं । कवि ने स्वयं कहा है चतुरष्ट षोडश-द्वात्रिंशच्चतुरधिकषष्टिदलं कलितम् । श्रीवीरस्तुति कमलं मवयतु सहृदयजनालि-कुलम् ||१०|| इस स्तोत्र के प्रत्येक चरण के प्रथम अक्षरों का चयन करने पर एक पद्य बनता है जिसमें गुरुनाम, कविनाम और स्तोत्र - प्रकार का निर्देश किया गया है - श्रीसोमप्रभसूरीश पादाम्भोज प्रसादतः । श्रीसोमतिलकसूरिरकृत स्तुति- पङ्कजम् ॥ इनके अन्य स्तोत्र भी रचना वैशिष्ट्य के कारण स्पृहणीय हैं । १२ -- जिनस्तोत्ररत्नकोश - मुनि सुन्दरसूरि मुनि सुन्दरसूरि सहस्रावधानी थे। आपने 'जिन स्तोत्ररत्न कोश', जिनस्तोत्र महाहद, सूरिमन्त्रस्तोत्र, तपागच्छपट्टावली और 'त्रिदशतरङ्गिणी' आदि ग्रन्थों की रचना की थी । चौदहवीं शती के प्रथम चरण में आपने जो विज्ञप्ति-काव्य पत्र के रूप में पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास JarEducation Internationa लिखकर अपने गुरु देवसुन्दर सूरि के पास भेजा था, उसके सम्बन्ध में हर्ष भूषणमुनि ने 'श्राद्ध विधि-विनिश्चय' में लिखा है कि वह १०८ हाथ लम्बा था और उसमें अनेक चित्रकाव्य अङ्कित थे । उपर्युक्त स्तोत्र भी उसी में था । सम्पूर्ण त्रिदशतरङ्गिणी में लिखित ऐसे स्तोत्रों में ३०० चित्र बन्धों की योजना थी, जिनमें - प्रासाद, पद्म, चक्र, चित्राक्षर, अर्धभ्रम सर्वतोभद्र, मुरज, सिंहासन, अशोक, भेरी, समवसरण, सरोवर, अष्टमहाप्रातिहार्य आदि विशिष्ट हैं । १३ -- विज्ञप्ति त्रिवेणी - उपाध्याय श्री जयसागर सन् १४२७ के निकट वर्तमान उपा० श्री जयसागर ने इस त्रिवेणी सरस्वती, गङ्गा और यमुनानामक तीन वेणियों में विज्ञप्ति प्रेषित की है । इसमें मुक्तक-प्रासङ्गिक स्तोत्रों के रूप में छत्र, कमल, गोमूत्रिका, अर्धभ्रम, बीजपूर, आसन, चामर, अष्टारचक्र, स्वस्तिक आदि चित्रालङ्कारों को योजना की है । यह पूरो रचना १०१२ श्लोकप्रमाण है। १४ -- चतुर्हारावली - चित्रस्तव - श्रीजयशेखर सूरि प्रस्तुत रचना १५वीं शती के आरम्भ की है । यह चार हारावलियों में विभक्त है तथा प्रत्येक में १४-१४ पद्य हैं । इनमें क्रमशः वर्तमान, अतीतअनागत और विहरमाण तीर्थङ्करों की चौबीसियों की स्तुतियाँ हैं । अन्तिम पद्य चारों हारावलियों के समान हैं । इसकी विशेषता यह है कि पूर्व और पश्चिम के एक-एक तीर्थङ्कर नाम के अक्षररूप हार से यह ग्रथित है । चार-चार चरणों के आद्यक्षरों से 'श्री ऋषभ', अन्त्याक्षरों से 'महावीर' आदि नाम निकलते हैं । इसके अतिरिक्त प्रत्येक हारावली का १३ वाँ पद्य अन्य चित्रबन्धों की भी सृष्टि करता है, जिनसे २४ दल कमल, स्वस्तिक, वज्र और बन्धुक स्वस्तिक बन्ध बनते हैं । १५ - अष्टमङ्गल चित्र ( बन्ध) स्तव - श्री उदय माणिक्य गणि दस पद्यों से निर्मित यह स्तव जैन धर्म में साध्वीरत्न ग्रन्थ Private & Personal Use Only ३६५ www.jainenerary.org Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sonicant कर प्रसिद्ध १ - दर्पण, २ - भद्रासन, ३- शराव- सम्पुट ४ - मत्स्य युगल, ५ – कलश, ६ - स्वस्तिक ७ - श्री वत्स और ८ - चामरयुगल' की अष्टमङ्गलों की आकृतियों में बनाये गये स्तुति-पद्यों से अलंकृत है । इस प्रकार के आकार - चित्र पद्य कवि के द्वारा स्वप्रतिभा से प्रथम ही निर्मित हुए हैं। इन पद्यों के पठन का क्रम कवि ने नहीं दिखलाया है | अतः हमने अपने ग्रन्थ "चित्रालंकार- चन्द्रिका" में इनके लक्षण-पद्य बना दिये हैं । रचना अत्युत्तम है । एक उदाहरण द्रष्टव्य है चन्द्रातपप्राय सुकीतिरामं, चन्द्रानन सारगुणाभिरामम् । यः स्तौति चन्द्रप्रभमस्त सारं यमीस आप्नोति भवाब्धि पारम् ||३|| इसका निवेश 'शराव- सम्पुट' में किया गया है । रचनाकार का समय १५ वीं शती माना गया है । १६- शतदल कमल बन्धमय- पार्श्वजिनेश्वर - स्तुति श्री सहजकति गणि यह स्तुति २६ पद्यों में रचित है जिनमें २५ पद्यों से १०० दल वाले कमल की आकृति में बन्धपूर्ति की गई है तथा अन्तिम पद्य पुष्पिका रूप है । यह स्तोत्र लोधपुर (गुजरात) में एक प्रस्तर खण्ड पर उत्कीर्णं है । कुछ अंश खण्डित भी हो गया है, जिसकी पूर्ति हमने अपने शोध-प्रबन्ध में कर आकृति - सहित मुद्रित किया है और लक्षण भी बना दिया है । इसका आद्यपद्य इस प्रकार हैश्रीनिवासं सुरश्रेण्यसेव्य क्रम, वामकामाग्नि-सन्ताप नीरोपमम् । माधवेशादि - देवाधिकोपक्रम, तस्वसंज्ञानविज्ञानमव्याश्रमन् ||३|| यहाँ कणिका में 'म' अक्षर के साथ अनुस्वार, विसर्ग अथवा केवलाक्षर सम्बुद्ध यन्त आदि के रूप में पढ़ा जाता है जो चित्रकाव्य के लिये दोष नहीं माना जाता है। इसकी रचना १५४२ ई० में हुई है । छन्द प्रयोगों में वैविध्य है । प्रत्येक चरण को एक - एक दल में लिख कर अन्तिम अक्षर को श्लिष्ट ३६६ बनाया है जो १०० बार पढ़ा जाता है । कवि ने पुष्पिका में लिखा है इत्थं पार्श्वजिनेश्वरो भुवनदिक्कुम्भ्यङ्गचन्द्रात्मके, वर्षे वाचकरत्नसार कृपया राका दिने कार्तिके ।. मासे लोद्रपुररस्थितः शतदलोपेतेन पटुमन सन्, नूतोऽयं सहजादि कीर्तिगणिना कल्याणमालाप्रदः ||२६|| १७-१८ - शृङ्खला और हारबन्धमय पार्श्वनाथ स्तोत्र - श्री समयसुन्दरगणि सन् १५६४ से १६४३ ई० में विराजमान श्री समयसुन्दर गणि ने अनेक स्तोत्रों की रचना की है। उनमें उपर्युक्त दो स्तोत्र चित्र बन्धमय हैं । ये 'समय- सुन्दर-कृति - कुसुमाञ्जलि' में नाहटा - बन्धु द्वारा प्रकाशित हैं । १६ - सहस्रदल कमल बन्धरूप- अरनाथ स्तव-श्री वल्लभ गणि वनवैभवात्मक चित्रबन्ध काव्यों की परम्परा में आश्चर्यकारी कीर्तिमान स्थापित करने वाला यह स्तोत्र अत्यन्त महत्वपूर्ण है । खरतरगच्छ के ज्ञानविमल मणि के शिष्य, वाचक श्रीवल्लभ गणि ने इस स्तोत्र में अरनाथ स्वामी की स्तुति की है । १००० दल के कमल में ५५ पद्य समाविष्ट है । प्रत्येक पद्य की वर्ण योजना इस प्रकार की गई है कि दो-दो अक्षरों के बाद तीसरा अक्षर 'र' ही आता है जो कणिका में श्लिष्ट होकर एक हजार बार पढ़ा जाता है । इस महान् प्रयास की सिद्धि के लिये कवि ने 'एकाक्षरी कोश' का भी आश्रय लिया है । लेखक ने इस पर स्वोपज्ञ वृत्ति भी बनाई है । हमने इसके खण्डितांशों को पूर्ण करके आकृति के अभाव की भी पूर्ति की है तथा पठन प्रक्रिया ज्ञान के लिये लक्षण भी बनाया है । दृष्टव्य- 'संस्कृत साहित्य में शब्दालंकार' शीर्षक शोध-प्रबंध | इसका प्रथम पद्य इस प्रकार है असुर- निर्जर-बन्धुर- शेखर- प्रचुरभव्यरजोभिरयं जिरम् । क्रमरजं शिरसा सरसं वरं, जित-रमेश्वर - मेदुर- शङ्करम् ॥१॥ पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०- शान्ति - जिन स्तुति - ( महास्वस्तिक बन्धमयी) - अज्ञात कवि किसी अज्ञात रचनाकार ने इस स्तुति का निर्माण किया है। इसके पद्यों से " महास्वस्तिक बन्ध' की रचना होती है । आकृति में स्वस्तिक, कोणयष्टि, परिधि और विदिक् चतुष्कोणों का समावेश है । सन्धि स्थल और कणिका में निहित अक्षर श्लिष्ट हैं । उदाहरण के लिये एक पद्य दर्शनीय है कल्याणकेलिकदलीगृहसं निवासं, संसारपारकरणककला विलासम् । संवेगरङ्ग गणसंनिहितप्रियासं, संसारिणां सुखकरं निखिलं जिनेनम् ॥ इस स्तुति का चित्राकार ही प्राप्त हुआ है और उसके कोने कट गये हैं, तथापि हमने इसकी पूर्ति ' करके लक्षण- सहित “ सङ्गमनी" पत्रिका में"चित्रबन्ध साहित्ये स्वस्तिक बन्धाः " नामक लेख में प्रकाशित किया है । २१- पार्श्वनाथ - स्तव - जिनभद्र सूरि सन् १६३३ ई० के निकट १८ पद्यों में इस स्तव की रचना हुई है । इसमें जिन चित्रबन्धों की रचना हुई है, उसका निर्देश कवि ने प्रथम पद्य में ही इस प्रकार कर दिया है चक्रेण ध्वजचामरे सुरुचिरे छत्रोत्पले दीपिकामुद्दामासनदर्पणौ च दधता श्रीवत्सशङ खावपि । घण्टाहारलतां विमानमनघं सत्तोरणं स्वस्तिकं, प्रेङ खन्तं कलशं सुरेन्द्रसहितं श्रीपार्श्वनाथं स्तुवे ॥ १॥ शेष १८ पद्यों से १८ बन्ध बनते हैं । 'दीपिका - बन्ध' का पद्य इस प्रकार है सदा समसमापाय-हरामाय वचस्तव । वरानराणां धीराणां स्तुत्यराव श्रये धनम् ||७|| स्तव - इन्द्र २२- नागपाशबन्धमय - महावीर सौभाग्यगणि - WEG JaEducation Internation इसकी रचना की है। अजितसेन ने 'अलङ्कारचिन्तामणि' में जो 'नागपाश चित्रबन्ध' दिया है, उसकी अपेक्षा इसकी रचना-पद्धति विशिष्ट है । इसका प्रथम पद्य इस प्रकार है । श्रीमद्वीर जिनाधीशं शङ्करं जगदीश्वरम् । रम्यच्छवि- कनकाभं भजध्वं सुरपूजितम् || २३ - साधारण - जिनस्तव - अज्ञात कर्त क यह स्तुति किसी प्राचीन आचार्य द्वारा अनेक विचित्रबन्धों से निर्मित है । इसमें छत्र, सिंहासन, चामर आदि के चित्रबन्ध पद्य बनाये हैं । ऐसे ही कुछ अन्य नवीन बन्धों की सृष्टि में भी कवि ने मौलिकता प्रदर्शित की है और इसके अनुकरण की प्रेरणा भी दी है । यह स्तुति अप्रकाशित है और हमें भी पुण्यविजय जी महाराज द्वारा प्राप्त हुई थी । एक-दो पद्य उदाहरण के लिए दर्शनीय हैं तपोवीर रमाधीश शर्म-कानन-वारिद । दक्ष कक्ष क्षमाक्षन्तः शमिशैक्षविभो जय || १ || ( छत्रबन्ध ) देवदेव स्फुरज्ज्ञान मनोरम-महोदय । यशसा सारयत्वार्य जय संनय गीश्चिरम् ||७| ( पूर्णकलश बन्ध ) - चतुविशति - जिनस्तुति - विविध चित्रबन्धमयअज्ञातकर्त २४- गदा, यह स्तुति भी किन्हीं प्राचीन आचार्य द्वारा निर्मित है । इसमें - 'ओङ्कार, ह्रीङ्कार, नमः, शङ्ख, सुदर्शनचक्रबन्ध, हार, गोमूत्रिका, दर्पण, सुसक, रवि, चन्द्र, वज्र, बीजपूर, खड्ग, शर, धनुष्, छुरिका, हल, कमल, नागपाश, तूणीर, स्वस्तिक और त्रिशूल' आदि चित्र-बन्धों के पद्य दिये हैं । यह स्तुति अपने विविध नये-नये बन्धों की निर्मिति से अत्यन्त महत्वपूर्ण है । यह भी अब तक प्रकाशित है और हमने इसका सम्पादन किया सत्रहवीं शती में पद्यों में इन्द्रसौभाग्यगणि ने है । इसके एक-दो पद्य इस प्रकार हैं & पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास साध्वीरत्न ग्रन्थ Private & Personal Use Only ३६७ www.ciin/ary.org Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुक्तेः पदं विपदमानवदानधर्म, आचार्य श्री नथमल मुनि और आचार्य श्री तुलसी // मायाभिमानदजनप्रिय लब्धशातम् / जी के मार्गानुयायी साधु-साध्वीजी द्वारा भी कुछ 12 त्वं देहि विश्वततकान्तिविराजमानं, ऐसी स्तुतियों और प्रकीर्ण बन्धों की रचनाएँ हुई | कासारजन्ममुखयत्नकरोदयाय / / 2 / / (ह्रीं-बन्ध) हैं जिन्हें उनके हस्तलिखित पत्रिकाओं में देखा जा कलुषपङ्कखरांशनिभं जिनं, सकता है। नमत पारगतं नलिनद्युतिम् श्वेताम्बर स्थानकवासी विद्वान साधू जनिमहीरूह-मत्तगजोपम, की भी इसी प्रकार की रचनाएं यत्र-तत्र प्राप्त हैं। II कजमुखं विमलं सदयं सदा // 3 // मूर्तिपूजक साधुवर्ग में भी ऐसी रचनाएं बनी हैं। 12 अन्य अप्रकाशित चित्र-बन्धमय स्तुति-स्तोत्र इनमें मैं मुनि धुरन्धरविजय जी (श्री प्रेमसूरि जी || ___ भारतीय वाङमय की इस अभिनव-शैली को के संघ के) का नाम देना चाहूँगा / इन मुनिजी में चित्र-बन्ध काव्य रचना का गुण सहज प्राप्त है। उर्वरित रखने के अनेकानेक जैन आचार्यों और बहुत छोटी आयु में ही अपने आचार्यश्री प्रेमसूरिजी I कवियों ने पर्याप्त प्रयास किया है / खेद का विषय : के प्रति दो 'विज्ञप्ति-पत्र' लिखे हैं जिसमें प्रथम में 5 यह है कि इस दिशा में विद्वानों का विशेष ध्यान चित्रबन्ध और द्वितीय में 350 चित्र-बन्धों की योजना 102 और प्रयास न होने से शताधिक स्तुतिकाव्य आज है / भटेवा-पार्श्वनाथ-चित्र-स्तोत्र (अष्टप्राति-IN भी अप्रकाशित और अपरिचित पड़े हुए हैं। हमने हार्य-स्तव) इनका महत्वपूर्ण है। 'अजित शान्ति- री इस दिशा में जब प्रयास किया तो कुछ स्तोत्र हमें स्तव' के चित्रबन्धों का उन्मीलन भी आपने ही और भी प्राप्त हुए हैं, जिनमें से कुछ के नाम इस किया है. जिसका संशोधन सम्मान्य श्री पुण्यविजय KE प्रकार हैं जी महाराज के आग्रह से हमने किया था। इसी 1. जिनस्तुति-अनेकचित्रबन्धमयी-उदयवल्लभ- प्रकार स्व० मुनिराज श्री अभयसागरजी महाराज गणि, 2. श्रीपार्श्वनाथस्तव-कल्पवृक्षबन्धमय, की प्रेरणा से कुछ जैन-स्तोत्रों की रचनाएँ की हैं, 3. पार्श्वनाथस्तव-३२ दलकमलबन्धमय, 4. चित्र- जिनमें 'भटेवा-पावं जिन-चित्रस्तव' की सं. 2024 बन्ध स्तोत्र-गुणभद्र 5. साधारण जिनस्तव-अनेक में की है जिसमें-.१२ दलकमल, दर्पण, श्रीवत्स, बन्धमय, 6. श्री हीरविजय-सूरिस्वाध्याय-अनेक स्वस्तिक, सिंहासन, शरावसम्पुट, मत्स्ययुगल, चित्रबन्धमय, 7. वर्धमानजिनस्तव 32 दलकमल- कलश और छत्र-बन्ध हैं। इसमें 11 पद्य हैं। || बन्धमय, 8. पार्श्वनाथस्तोत्र-चलच्छृङखलागर्भ, चित्र-बन्धात्मक स्तोत्रों के परिसर म यह केवल 6. आदिनाथस्तव-कामघटबन्धमय, 10. सीमन्धर- 'आकार-चित्ररूप संक्षिप्त आकलन' है। चूंकि चित्रालस्वामिस्तवन-चक्रबन्धमय, 11. अजित-शान्तिस्तव- कार की परिधि में -स्वर, स्थान, वर्ण, गति, प्रहेअनेक चित्तबन्धमय (अर्धमागधी) नन्दिषेणकृत तथा लिका, च्युत, गूढ, प्रश्नोत्तर, समस्या, भाषा और आधुनिक विभिन्न जैन पन्थानुयायी दिगम्बर, आकार-चित्र एवं इनके अनेक भेद-प्रभेद भी आते हैं, || श्वेताम्बर (स्थानक एवं मन्दिरमार्गी) साधु, उपा- अतः इन सभी प्रकारों को स्तुतियों का भी समावेश ध्याय और आचार्यों द्वारा निमित जैन स्तोत्र / किया जाए तो यह जैन-सम्प्रदाय के एक महान् दाय को विद्वानों के समक्ष प्रस्तुत कर संस्कृतसाम्प्रतिक स्थिति स्तुति-साहित्य की परम्परा में अभूतपूर्व कोर्तिमान / वर्तमान वर्षों में भी वैसे तो यह धारा सूखी स्थापित करने का गौरव प्राप्त कर सकेगा। नहीं है, किन्तु क्षीण अवश्य होती दिखाई देती है। (शेष पृष्ठ 374 पर) पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास 60 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ SONrivate & Personal Use Only