Book Title: Aaj ke Shant yug me Mahavir Vani ki Upaeyata Author(s): Dulichand Jain Publisher: Z_Ashtdashi_012049.pdf View full book textPage 3
________________ "माणुसत्तामि आयाओ, जो धम्मं सोच्चासद्दहे । तवस्सी वीरियं लधुं संबुडे निगुणे रवं ।। - उत्तराध्ययन सूत्र ३ / ११ अर्थात् मनुष्य जन्म पाकर जो धर्म को सुनता और उसमें श्रद्धा करता हुआ उसके अनुसार पुरुषार्थ आचरण करता है, वह तपस्वी आगामी कर्मों को रोकता हुआ संचित कर्म रूपी रज को धुन डालता है। मनुष्य जीवन के उत्थान का जो मार्ग है, उसे रत्न- त्रय (त्रिरत्न) कहा गया है। तत्वार्थ सूत्र में कहा है "सम्यग्दर्शनज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्ग: " - तत्त्वार्थ सूत्र १/१ अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र- इन तीनों का समन्वित रूप (ये तीनों मिलकर) मोक्ष का साधन हैं। पंचास्तिकाय सूत्र सं० १६० में कहा गया है- धर्मास्तिकाय आदि (छह द्रव्य) तथा तत्वार्थ आदि में श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। अंगों और पूर्वो का ज्ञान सम्यक् ज्ञान है तप में प्रत्ययशीलता सम्यक् चारित्र है। यह व्यवहार-आचार मोक्षमार्ग है। सम्यग्दर्शन के बिना ज्ञान नहीं होता । ज्ञान के बिना चारित्र नहीं सधता । जीवन के उत्थान के लिए ज्ञान और क्रिया का समन्वय होना आवश्यक है। यह बात 'आचारांग नियुक्ति' में बड़े ही सुन्दर ढंग से स्पष्ट की गई है "हयं नाणं किया हीणं, हया अण्णाणओ किया । पासंतो पंगुलो दढो, धावमाणो व अंधओ।।" - आचारांग नियुक्ति १०१ अर्थात् क्रियाहीन का ज्ञान व्यर्थ है और अज्ञानी की क्रिया व्यर्थ है। जैसे एक पंगु वन में लगी हुई आग को देखते हुए भी भागने में असमर्थ होने से जल मरता है और अंधा व्यक्ति दौड़ते हुए भी देखने में असमर्थ होने से जल मरता है। भगवान महावीर को धर्म-क्रांति की मुख्य उपलब्धि हैउन्होंने ईश्वर की जगह कर्म को प्रतिष्ठा दी। उन्होंने भक्ति के स्थान पर सत्कर्म व सदाचार का सूत्र दिया। उन्होंने कहा"सुचिण्णा कम्मा सुचिष्णफला भवन्ति । दुनिया कम्मा दुचिष्णफला भवन्ति ।।" - औपपातिक सूत्र ७१ अर्थात् अच्छे कर्म अच्छे फल देनेवाले होते हैं और बुरे कर्म बुरे फल देने वाले होते हैं। मनुष्य अपने संचित कर्मों के अनुसार ही सुख-दुख प्राप्त करता है "जमिणं जगई पुढ़ो जगा, कम्मेहिं लुप्पंति पाणिणो । सयमेव कडेहिं गाइ, नो तस्स मुच्चेज्जपुट्ठयं ।। " Jain Education International - सूत्रकृतांग सूत्र १, २ / १४ अर्थात् इस जगत् में जो प्राणी हैं, वे अपने-अपने संचित कर्मों से ही संसार भ्रमण करते हैं और किये हुए कर्मों के अनुसार ही भिन्न-भिन्न योनियों में जन्म लेते हैं। फल भोगे बिना उपार्जित कर्मों से प्राणी का छुटकारा नहीं होता। कर्म-बंध का मूल कारण राग-द्वेष की प्रवृत्ति है"रागो य दोसो वि य कम्मबीयं, कम्म च मोहप्पभवं वयंति । कम्मं च जाई मरणस्स मूलं, दुक्खं च जाई मरणं वयंति।।" - उत्तराध्ययन सूत्र ३२:७ जन्म-मरण अर्थात् राग और द्वेष कर्म के बीज (मूल कारण) हैं। कर्म मोह से उत्पन्न होता है। वह जन्म-मरण का मूल है, को दुःख का मूल कहा गया है। साधक के लिए यह आवश्यक है कि वह अपने मन पर नियंत्रण करे। भगवान ने कहा "पहावंतं निगिण्हामि सुयरसस्सी-समाहियं । न मे गच्छइ उम्मग्गं, मग्गं च पडिवज्जई ।। " - उत्तराध्ययन सूत्र २३ / ५६ अर्थात् भागते हुए दुष्ट अश्व को मैं ज्ञान रूपी लगाम के द्वारा अच्छी तरह निगृहीत करता हूँ। इससे मेरा अश्व उन्मार्ग में गलत रास्ते पर नहीं जाता। वह ठीक मार्ग को ग्रहण करता हुआ चलता है। मन के बारे में कहा गया है "मणो साहस्सिओ भीमो, दुसो परिधावई । तं सम्मं तुनिगण्डामि, धम्मसिक्खाइ कन्थगं ।। " - उत्तराध्ययन सूत्र २३ / ५८ अर्थात् मन ही वह साहसिक (दुःसाहसी), रौद्र (भयावह) और दुष्ट अश्व है, जो चारों ओर दौड़ता है। मैं उसे कन्थक उच्च जाति सम्पन्न, सुधरे हुए अश्व की भांति धर्मशिक्षा द्वारा अच्छी तरह निगृहीत, नियंत्रित करता हूँ। आज का मानव समझता है कि संसार के भौतिक साधनों द्वारा ही सुख मिल सकता है अतः वह उनकी प्राप्ति व अभिवृद्धि में अपनी पूर्ण शक्ति लगा देता है। इच्छाओं को बढ़ाते जाना, उनकी पूर्ति के लिए उत्पादन के साधनों की वृद्धि करते जाना तथा उनके द्वारा इच्छाओं के तृप्त करते जाना यही भोगवादी मनुष्य का जीवन-क्रम है। भगवान महावीर ने कहा कि सभी भौतिक साधन मनुष्य को सुख देने में असमर्थ है " सव्वं जगं जइ तुहं, सव्वं वा वि धणं भवे । सव्वं पि ते अपज्जत्तं, नेव ताणाय तं वे ।।" - उत्तराध्ययन सूत्र १४ / ३९ अर्थात् यह सारा जगत और यह सारा धन भी तुम्हारा हो जाय तो भी वे सब अपर्याप्त ही होंगे और न ही ये सब तुम्हारा रक्षण करने में ही समर्थ होंगे। छ अष्टदशी / 209 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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