Book Title: Aaj ke Shant yug me Mahavir Vani ki Upaeyata
Author(s): Dulichand Jain
Publisher: Z_Ashtdashi_012049.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुलीचन्द जैन इस प्रकार की भीषण परिस्थिति में विश्व के चिंतक अब यह सोचने हेतु बाध्य हो रहे हैं कि इन कठिनाइयों से मानव के त्राण का क्या उपाय हो सकता है? जैन आगम ग्रंथों में इन समस्याओं के समाधान का विशद विवेचन मिलता है। वहाँ पर हिंसा और अहिंसा की गंभीर व्यवस्था उपलब्ध है। अहिंसा जैनधर्म का प्राण है। अहिंसा का अर्थ मात्र इतना ही नहीं है कि किसी प्राणी की हिंसा न की जाय, इसका विधेयात्मक अर्थ है, विश्व के समस्त प्राणियों के प्रति प्रेम, बन्धुत्व एवं आत्मीयता की भावना का विकास किया जाय। यह भावना मात्र मनुष्य-जाति के प्रति ही नहीं, किन्तु समस्त प्राणी जगत के प्रति व्याप्त हो। जैनधर्म की मान्यता है कि मनुष्य और प्रकृति में घनिष्ठ संबंध है तथा दोनों एक-दूसरे पर आश्रित हैं। सृष्टि के प्रत्येक जीव को जीने का अधिकार है- केवल मनुष्य-मात्र को ही नहीं, पशु-पक्षी, वनस्पति इत्यादि सभी को जीने का हक है। भगवान आज के अशान्त युग में महावीर ने कह "सवे पाणा पियाउया, सुहसाया, दुक्खपडिवूला। महावीर-वाणी की उपादेयता अप्पियवहा पियजीविणो, जीविउकामा सव्वेसिं जीवियं पियं।।" आधुनिक युग में विज्ञान और तकनीकी ने आशातीत प्रगति अर्थात् सभी प्राणियों को अपना जीवन प्रिय है, सुख की है। आज मनुष्य ने प्रकृति के साधनों पर विजय प्राप्त कर अनुकूल है, दुःख प्रतिकूल है। वध सबको अप्रिय है। सभी दीर्घ ली है। आवागमन के साधनों के विकास ने राष्ट्रों के बीच की जीवन की कामना करते हैं। दूरियों को कम कर दिया है। लेकिन क्या हम कह कहते हैं कि -आचारांग सूत्र १/२/३/६३ आज का मानव प्राचीन युग की तुलना में अधिक सुखी, यह समझकर किसी जीव को त्रास नहीं पहुँचाना चाहिये। आनन्दित एवं प्रसन्न है? शायद नहीं। इसका कारण यह है कि ("न य वित्तासए पर।)" मनुष्य के मन और बुद्धि का तो विकास हुआ है पर उसके हृदय -उत्तराध्ययन सूत्र २/२० का विकास नहीं हो सका है। महाकवि रामधारीसिंह 'दिनकर' किसी जीव के प्रति वैर-विरोध भाव नहीं रखना चाहिये। के शब्दों में - ("ण विरुज्झेज्ज कोणई।") "बुद्धि तृष्णा की दासी हुई, मृत्यु का सेवक है विज्ञान। -सूत्रकृतांग सूत्र १/१५/१३ चेतता अब भी नहीं मनुष्य, विश्व का क्या होगा भगवान्?" सब जीवों की प्रति मैत्री भाव रखना चाहिये। (“मित्तिं __आज दुनिया के विकसित कहे जानेवाले राष्ट्र अनेक प्रकार भूएहि कप्पए") - उत्तरा सूत्र ६/२ . के भीषण शक्तिशाली अस्त्र-शस्त्रों के उत्पादन में लगे हुए हैं। प्राणी-मात्र के प्रति प्रेम व आत्मीयता की भावना की पिछले विश्वयुद्ध में जापान के हीरोशिमा और नागासाकी में जो बम गिरे थे, उनसे लाखों व्यक्ति हताहत हुए थे तथा वहाँ का विस्तृत व्याख्या आचारांग सूत्र के निम्न पदों में मिलती हैजल और वायु विषाक्त हो गया था और अनेक बीमारियाँ फैल __ "तुमंसि णाम सच्चेव (तं चेव) जं हंतव्वं हि मण्णसि। गई थीं। लेकिन आज उनसे बहुत अधिक शक्तिशाली अणु और तुमंसि णाम सच्चेव जं अज्जावेयत्वं ति मण्णसि। परमाणु ही नहीं, इस प्रकार के रासायनिक बमों व आयुधों का तुमंसि णाम सच्चेव जं परियावेयववं ति मण्णसि। निर्माण हो चुका है, जो कुछ ही समय में समस्त मानव-जाति के तुमंसि णाम सच्चेव जं परिघेत्तव्वं ति मण्णसि। विनाश की सामर्थ्य रखते हैं। आर्थिक प्रतियोगिता की अंधी दौड़ तुमंसि णाम सच्चेव जं उद्दयेवव्यं ति मण्णसि। तथा अनियंत्रित स्वतंत्रता ने मनुष्य का जीवन अशांत बना दिया अंजू चेय पडिबुद्धिजीवी। तम्हा ण हंता ण वि घायए। अणुसंवेयणमप्पाणेणं जं हंतव्यं णाभिपत्थए।।" -आचारांग सूत्र १, ५/५, १७० ० अष्टदशी / 2070 Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। अर्थात् हे पुरुष। जिसे तू मारने की इच्छा करता है, विचार अर्थात् आत्मा ही सुख और दुःख की उत्पन्न करने वाली कर वह तू ही है- तेरे जैसा ही सुख-दु:ख का अनुभव करने और न करने वाली हैं। आत्मा ही सदाचार से मित्र और दुराचार वाला प्राणी है, जिस पर तू हुकूमत करने की इच्छा करता है, से शत्रु है। अपनी आत्मा को जीतना ही सबसे कठिन कार्य हैविचारकर वह तेरे जैसा ही प्राणी है, जिसे परिताप-दुःख देने "जे सहस्सं सहस्साणं, संगामे दुज्जए जिणे। योग्य समझता है, चिन्तन कर वह तेरे जैसा ही प्राणी है, जिसे तू एगं जिणेज्ज अप्पाणं, एस से परमो जओ।" वश में करने की इच्छा करता है, जरा सोच तेरे जैसा ही प्राणी अर्थात् दुर्जय संग्राम में सहस्र-सहस्र शत्रुओं को जीतने की है, जिसके तू प्राण लेने की इच्छा करता है, विचार कर वह तेरे अपेक्षा एक अपनी आत्मा को जीतना परम जय है- महान् विजय जैसा ही प्राणी है। है। जो अपनी आत्मा को जीत लेता है, वही सच्चा संग्राम विजेता सत्पुरुष इसी तरह विवेक रखता हुआ जीवन बिताता है। वह न स्वयं किसी का हनन करता है और न औरों द्वारा किसी आत्मा पर विजय प्राप्त करने के लिए आवश्यक है कि का हनन करवाता है। चार कषायों पर विजय प्राप्त की जाय। आत्म-विजय का सुन्दर भगवान महावीर ने अहिंसा को धर्म के लक्षणों में सर्वप्रथम विश्लेषण निम्न सूत्र में उपलब्ध हैस्थान दिया। दशवैकालिक सूत्र में कहा गया है- धर्म उत्कृष्ट मंगल है। अहिंसा, संयम और तप उसके लक्षण हैं। जिसका मन "एगे जिए जिया पंच, पंच जिए जिया दस। सदा धर्म में रमता रहता है, उसे देवता भी नमस्कार करते हैं। दसहा उ जिणित्ताणं, सव्वसत्तू जिणामहं।।" __ प्रत्येक जैन श्रावक को पाँच महाव्रतों- अहिंसा, सत्य, -उत्तराध्ययन सूत्र २३/३६ अस्तेय, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह का आजीवन पूर्णतया पालन अर्थात् एक को जीत लेने पर मैंने पाँच को जीत लिया, करना आवश्यक है। इन सब में अहिंसा का प्रथम स्थान है। पांच को जीत लेने से मैने दस को जीत लिया और दसों को जीत सत्यादि दूसरे गुण अहिंसा के पोषक व रक्षक हैं। लेने पर मैंने सभी शत्रुओं को जीत लिया है। मनुष्य को चार विश्व में अशान्ति का पहला कारण हिंसा की भावना है, कषायों पर कैसे विजय प्राप्त करनी चाहियेजिसके निराकरण के लिए अहिंसा की भावना को व्यवहार में "उवसमेण हणे कोहं, माणं मद्दवया जिणे। लाना अति आवश्यक है। विश्व में अशांति का दूसरा बड़ा मायं अज्जुवभावेणं, लोभं संतोषओ जिणे।।" कारण है- मनुष्य का अपने आत्मत्त्व का विस्मरण। संसार में -दशवैकालिक सूत्र ८/३९ जितने भी तत्व हैं, उन्हें तीन भागों में विभक्त किया गया है अर्थात् क्रोध को उपशम-शान्ति से (क्षमा से), मान को हेय, ज्ञेय, और उपादेय, तत्व कुल नौ हैं। इनमें जीव (आत्मतत्व) मार्दव-मृदुला से, माया को ऋजुभाव-सरलता से और लोभ को मुख्य है। जीव, अजीव व पुण्य का ज्ञेय, पाप, आश्रव व बंध संतोष से जीतें। को हेय तथा संवर, निर्जरा व बंध को उपादेय कहा है। इन कषायों के कारण सद्गुणों का विनाश होता है, यथाजीव (आत्मा) को कर्मों का कर्ता माना गया है। 'द्वादशांग "कोहो पीइं पणोसेइ, माणो विणय नासणो। अनुप्रेक्षा' में कहा है कि आत्मा उत्तम गुणों का आश्रय है, समग्र माया मित्ताणि नासेइ, लोहो सव्व विणासणो।।" द्रव्यों में उत्तम द्रव्य है और सब तत्वों में परम तत्व है। आत्मा तीन प्रकार की है- बहिरात्मा, अंतरात्मा ओर परमात्मा। अर्थात् क्रोध प्रीति को नष्ट करता है, मान विनय को नष्ट आत्मा और शरीर पृथक-पृथक हैं। आत्मा अविनाशी तत्व। करता है, माया धूर्तता (जालसाजी) मैत्री को नष्ट करती है और है। शरीर विनाशी-विनष्ट होने वाला तत्व है। इसीलिए इसे ' लोभ सब कुछ नष्ट कर देता है। पुद्गल कहा गया है। आत्मा को कैसे जाना जा सकता है? भगवान महावीर ने कहा कि संसार के प्राणियों के लिए इसका उत्तर आचार्य कुंदकुंद ने 'समयसार की गाथा' २९६ में चार बातें बहुत दुर्लभ हैंदिया है। वहाँ पर कहा गया है कि आत्मा को आत्मप्रज्ञा अर्थात् "चत्तारि परमंगाणि, दुल्लहाणीह जंतुणो। भेदविज्ञान रूप बुद्धि द्वारा ही जाना जा सकता है। माणुसत्तं सुई सद्धा, संजममि य वीरियं।।" आत्मा के बारे में महावीर ने कहा अर्थात् संसार के प्राणियों को चार परम अंग-उत्तम "अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण य। संयोग-अत्यंत दुर्लभ हैं-(१) मनुष्य-भव, (२) धर्म-श्रुति (धर्म अप्पा मित्तममित्तं च, दुप्पट्ठिय-सुपट्टिओ।" का सुनना) धर्म में श्रद्धा और (४) संयम में (धर्म में) वीर्य -उत्तराध्ययन सूत्र २०/३ पराक्रम। ० अष्टदशी / 2080 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "माणुसत्तामि आयाओ, जो धम्मं सोच्चासद्दहे । तवस्सी वीरियं लधुं संबुडे निगुणे रवं ।। - उत्तराध्ययन सूत्र ३ / ११ अर्थात् मनुष्य जन्म पाकर जो धर्म को सुनता और उसमें श्रद्धा करता हुआ उसके अनुसार पुरुषार्थ आचरण करता है, वह तपस्वी आगामी कर्मों को रोकता हुआ संचित कर्म रूपी रज को धुन डालता है। मनुष्य जीवन के उत्थान का जो मार्ग है, उसे रत्न- त्रय (त्रिरत्न) कहा गया है। तत्वार्थ सूत्र में कहा है "सम्यग्दर्शनज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्ग: " - तत्त्वार्थ सूत्र १/१ अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र- इन तीनों का समन्वित रूप (ये तीनों मिलकर) मोक्ष का साधन हैं। पंचास्तिकाय सूत्र सं० १६० में कहा गया है- धर्मास्तिकाय आदि (छह द्रव्य) तथा तत्वार्थ आदि में श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। अंगों और पूर्वो का ज्ञान सम्यक् ज्ञान है तप में प्रत्ययशीलता सम्यक् चारित्र है। यह व्यवहार-आचार मोक्षमार्ग है। सम्यग्दर्शन के बिना ज्ञान नहीं होता । ज्ञान के बिना चारित्र नहीं सधता । जीवन के उत्थान के लिए ज्ञान और क्रिया का समन्वय होना आवश्यक है। यह बात 'आचारांग नियुक्ति' में बड़े ही सुन्दर ढंग से स्पष्ट की गई है "हयं नाणं किया हीणं, हया अण्णाणओ किया । पासंतो पंगुलो दढो, धावमाणो व अंधओ।।" - आचारांग नियुक्ति १०१ अर्थात् क्रियाहीन का ज्ञान व्यर्थ है और अज्ञानी की क्रिया व्यर्थ है। जैसे एक पंगु वन में लगी हुई आग को देखते हुए भी भागने में असमर्थ होने से जल मरता है और अंधा व्यक्ति दौड़ते हुए भी देखने में असमर्थ होने से जल मरता है। भगवान महावीर को धर्म-क्रांति की मुख्य उपलब्धि हैउन्होंने ईश्वर की जगह कर्म को प्रतिष्ठा दी। उन्होंने भक्ति के स्थान पर सत्कर्म व सदाचार का सूत्र दिया। उन्होंने कहा"सुचिण्णा कम्मा सुचिष्णफला भवन्ति । दुनिया कम्मा दुचिष्णफला भवन्ति ।।" - औपपातिक सूत्र ७१ अर्थात् अच्छे कर्म अच्छे फल देनेवाले होते हैं और बुरे कर्म बुरे फल देने वाले होते हैं। मनुष्य अपने संचित कर्मों के अनुसार ही सुख-दुख प्राप्त करता है "जमिणं जगई पुढ़ो जगा, कम्मेहिं लुप्पंति पाणिणो । सयमेव कडेहिं गाइ, नो तस्स मुच्चेज्जपुट्ठयं ।। " - सूत्रकृतांग सूत्र १, २ / १४ अर्थात् इस जगत् में जो प्राणी हैं, वे अपने-अपने संचित कर्मों से ही संसार भ्रमण करते हैं और किये हुए कर्मों के अनुसार ही भिन्न-भिन्न योनियों में जन्म लेते हैं। फल भोगे बिना उपार्जित कर्मों से प्राणी का छुटकारा नहीं होता। कर्म-बंध का मूल कारण राग-द्वेष की प्रवृत्ति है"रागो य दोसो वि य कम्मबीयं, कम्म च मोहप्पभवं वयंति । कम्मं च जाई मरणस्स मूलं, दुक्खं च जाई मरणं वयंति।।" - उत्तराध्ययन सूत्र ३२:७ जन्म-मरण अर्थात् राग और द्वेष कर्म के बीज (मूल कारण) हैं। कर्म मोह से उत्पन्न होता है। वह जन्म-मरण का मूल है, को दुःख का मूल कहा गया है। साधक के लिए यह आवश्यक है कि वह अपने मन पर नियंत्रण करे। भगवान ने कहा "पहावंतं निगिण्हामि सुयरसस्सी-समाहियं । न मे गच्छइ उम्मग्गं, मग्गं च पडिवज्जई ।। " - उत्तराध्ययन सूत्र २३ / ५६ अर्थात् भागते हुए दुष्ट अश्व को मैं ज्ञान रूपी लगाम के द्वारा अच्छी तरह निगृहीत करता हूँ। इससे मेरा अश्व उन्मार्ग में गलत रास्ते पर नहीं जाता। वह ठीक मार्ग को ग्रहण करता हुआ चलता है। मन के बारे में कहा गया है "मणो साहस्सिओ भीमो, दुसो परिधावई । तं सम्मं तुनिगण्डामि, धम्मसिक्खाइ कन्थगं ।। " - उत्तराध्ययन सूत्र २३ / ५८ अर्थात् मन ही वह साहसिक (दुःसाहसी), रौद्र (भयावह) और दुष्ट अश्व है, जो चारों ओर दौड़ता है। मैं उसे कन्थक उच्च जाति सम्पन्न, सुधरे हुए अश्व की भांति धर्मशिक्षा द्वारा अच्छी तरह निगृहीत, नियंत्रित करता हूँ। आज का मानव समझता है कि संसार के भौतिक साधनों द्वारा ही सुख मिल सकता है अतः वह उनकी प्राप्ति व अभिवृद्धि में अपनी पूर्ण शक्ति लगा देता है। इच्छाओं को बढ़ाते जाना, उनकी पूर्ति के लिए उत्पादन के साधनों की वृद्धि करते जाना तथा उनके द्वारा इच्छाओं के तृप्त करते जाना यही भोगवादी मनुष्य का जीवन-क्रम है। भगवान महावीर ने कहा कि सभी भौतिक साधन मनुष्य को सुख देने में असमर्थ है " सव्वं जगं जइ तुहं, सव्वं वा वि धणं भवे । सव्वं पि ते अपज्जत्तं, नेव ताणाय तं वे ।।" - उत्तराध्ययन सूत्र १४ / ३९ अर्थात् यह सारा जगत और यह सारा धन भी तुम्हारा हो जाय तो भी वे सब अपर्याप्त ही होंगे और न ही ये सब तुम्हारा रक्षण करने में ही समर्थ होंगे। छ अष्टदशी / 209 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेकिन इस विवेचन का यह अर्थ यह नही लेना चाहिये कि इस प्रकार जैन धर्म कर्तव्य-पालन से विमुख रहने की जैनधर्म के सिद्धान्त अव्यावहारिक तथा आधुनिक जीवन से मेल शिक्षा नहीं देता। जैनधर्म कहता है कि अहिंसा शूरवीरों का धर्म नहीं खाते। यह एक अत्यंत भ्रांत धारणा है, जिसका निराकरण है, कायरों का नहीं। होना आवश्यक है। जैनधर्म पुरुषार्थवादी धर्म है। यह प्रत्येक क्षेत्र में विवेकपूर्वक भगवान महावीर ने धर्म-प्रचारार्थ चतुर्विध संघ की स्थापना कार्य करने का निर्देश देता है। जो विवेक पूर्वक कार्य करता की। श्रमण-श्रमणी, श्रावक और श्राविका। उन्होंने श्रमण-श्रमणियों है, वह कर्मबंध नहीं करता। दशवैकालिक सूत्र में कहा हैके लिए पंच महाव्रतों का पालन करना अनिवार्य बतलाया तथा "जयं चरे, जयं चिढ़े, जयमासे, जयं सए। काफी कठिन चर्या का निर्धारण किया। इसका कारण था श्रमण जयं भुजुतो भासंतो, पावकम न बंधई।।" श्रमणियों को आत्म-साधना के कठिन मार्ग में जीवन व्यतीत -दशवैकालिक सूत्र 4/8 करना था। वे किसी एक स्थान पर (चातुर्मास के काल के अर्थात् साधक विवेकपूर्वक चले, विवेकपूर्व खड़ा हो, अतिरिक्त) नहीं रह सकते थे तथा पैदल विहार करते थे। अपने विवेकपूर्वक सोये। इस प्रकार विवेकपूर्वक सब क्रियाओं को साथ में संयम-साधना के लिए आवश्यक उपकरणों के अतिरिक्त करता हुआ विवेकपूर्वक भोजन करता हुआ व संभाषण करता कुछ नहीं रख सकते थे। हुआ वह पाप कर्म का बंध नहीं करता। लेकिन गृहस्थों के लिए उनके नियम अपेक्षाकृत सरल थे। भगवान महावीर के उपदेश मानव को मैत्रीपूर्ण, नैतिक एवं श्रावक से उनकी अपेक्षा थी कि वह पाँच अणव्रतों का पालन प्रामाणिक जीवन जीने की प्रेरणा देते हैं। अहिंसा, समता, करे। प्राणी वध (हिंसा), असत्य, चोरी, अब्रह्मचर्य व अपरिमित सरलता एवं अपरिग्रह के सिद्धांतों का पालन करने से करना (परिग्रह) इन पाँच पापों से सापवाद अपने सामर्थ्य के व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक एवं राष्ट्रीय जीवन का अनुसार विरत होना अणुव्रत है। इसी प्रकार उससे तीन गुण-व्रतों / शांतिपूर्ण ढंग से विकास हो सकता है तथा विश्व में शान्ति की एवं चार शिक्षाव्रतों का पालन करने की अपेक्षा की जाती है। श्रावक का जीवन पूर्णत: सदाचारयुक्त होना चाहिये। वह स्थापना हो सकती है। प्रामाणिकता सच्चरित्रता से जीवन बिताये यह अपेक्षित है। विशेषत: उसके लिए सात प्रकार के दुर्व्यसनों से विरत रहना आवश्यक है। ये व्यसन हैं "जूयं मज्जं मंसं वसा, पारद्धि चोर परयार। दुग्गइ-गमणस्सेदाणि, हेड भूणाणि पावाणि।।" -वसुनन्दि श्रावकाचार, 59 अर्थात् जुआ, मांस-भक्षण, वैश्यागमन, मद्यपान, शिकार, चोरी और परस्त्री सेवन-ये सात व्यसन हैं। मांसाहार से दर्पउन्माद बढ़ता है। दर्प से मनुष्य में मद्यपान की अभिलाषा जगती है और तब जुआ खेलता है। इस प्रकार एक मांसाहार से ही मनुष्य उपर्युक्त अनेक दोषों को प्राप्त हो जाता है। आज भारतवर्ष में लगभग एक करोड़ व्यक्ति जैन धर्म का पालन करते हैं। यह विश्व का सबसे बड़ा शाकाहारी संगठन है। प्राचीनकाल में अनेक राजा, महाराजा एवं व्यवसायियों ने इस धर्म का पालन किया तथा सफलतापूर्वक अपना जीवन बिताया था और सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त की थी। मौर्यकाल, नन्दवंश एवं गुजरात तथा कलिंग के अनेक शासक महावीर के अनुयायी थे एवं उन्होंने अनेक युद्धों में भाग लिया था। महान योद्धा चामुण्डराय 17 युद्धों में लड़े थे तथा विजेता बने थे। * अष्टदशी/2100