Book Title: Aagam Manjusha 38B Chheyasuttam 05 B Panchkapp Bhasya
Author(s): Anandsagarsuri, Sagaranandsuri
Publisher: Deepratnasagar
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विभत्ता अच्भुट्टावि छट्टाणा ॥ ८ ॥ सुत्तायाम सिरो णय मुद्धाणं सुत्तवज्जियं चैव। संजोगविहिविभत्ता कितिकम्मे होंति छट्टाणा ॥ ९ ॥ आहारउवहिमत्तग अहिगरणविओसणा य सु(य) सहाए। संजोगविहिविभत्ता बेयावच्चेऽवि छट्टाणा ॥ १५००॥ वास उडु अहालंदे पुहुत्तसाहारणोग्गहित्तिरिए। वुड्ढावासोसरणे छट्टाणा होति पविभत्ता ॥ १ ॥ परियहणाऽणुओगे चागरणे परिच्छणा य आ (पुच्छ परिच्छणा) लोए। संजोगविहिविभत्ता सन्निसेजाए छट्टाणा ॥ २ ॥ वादो जप्प वितंडा पइष्णियाऽणिच्छिया कहा होति । संजोगविहिविभत्ता कहापबंधेऽवि छट्टाणा ॥ ३ ॥ रागेणं दोसेणं अन्नाणाविरईय मिच्छत्ते । कोमामालोआसवदारेहिं तु राइउडेहिं ॥ ४ ॥ अविरयस्स बावत्तरिविहो. एसा वावत्तरी दोहिं गुणिया रागदोसेहिं चोयालं सयं अण्णाणातीहिं २१६ कोहादीहि २८८ आसवदारेहिं ३६० राइमोयणउडेहिं ४३२ । 'बारस य चउडीसा छत्तीसा अडयालमेव सट्टी य बाबत्तरी उ एसो संजोगविही मुणेयव्वो ॥ ५॥ बारस य चउडीसा छत्तीसऽडयालमेव सट्टी य बावन्तरी त्रिगुणिया चोयालसयं तु संजोगा ॥ ६ ॥ चारसय चउडीसा छत्तीसऽडयाल चेव सट्टी य बावन्तरि उग्गुणिया चनारि सया उ बन्नीसा ॥ ७ ॥ जस्सेने संजोगा उबलदा अस्थतो य विष्णाया। सो जाणती विसोहिं उवघायं चैव संभोगे ॥ ८ ॥ जस्सेते संजोगा उवलद्वा अत्थतो य विनाता। णिजूहिउं समन्यो णिज्जूढे यात्रि परिहरिउं ॥ ९ ॥ सरिकप्पे सरिछंदे तुछचरिने विसितरए वा आयत्ति भत्तप्पाणं सएण लाभेण वा तुस्से ॥ १५१०॥ सरिकप्पे सरिच्छंदे तु चरिते विसितरए वा । साहहिं संभव कुज णाणीहिं चरित्तगुत्तेहिं ॥ १ ॥ ठितकप्पम्मि दसविहे ठेवणाकप्पे य दुविहह्मण्णयरे। उत्तरगुणकप्पम्मिय जो सरिकप्पो स संभोगो ॥ २ ॥ सत्नविहकप्प एसो समासओ वण्णिओ सविभवेणं एतो दस बिहकप्पं समासओ मे निसामेह ॥ ३ ॥ कप्प पकप्प विकप्पे संकप्पवकप्प तह य अणुकप्पे उकप्पे य अकप्पे तहा दुकप्पे कप्पे य ॥ ९६ ॥ ४ ॥ गच्छाओं निम्गयाणं जिणकप्पियमादियाण कप्पो उ। तं च समासेण अहं उलिंगेहामि इणमो उ ॥५॥ पिंडेसण पाणेसण उग्गह उद्दिट्ट भावणा चैव। बारस य भिक्खुपडिमा एवमादी भवे कप्पो ॥ ९७६ ॥ पिंडेसण पाणेसण पंचुवरिमया सभिग्गहेगा य। सेसासु य अग्गहणं सेज्जोग्गह उवरिमा दोसु ॥ ७ ॥ उद्दिट्टित्ती हेडा जिणकप्पविही उ जो समक्खाओ। खेत्ते कालचरिते इच्चाइ तहेव इहइंपि ॥ ८ ॥ पणुवीस भावणाओ महवयाणं तु हाँति पंचन्हं बारस अणिच्चयादी तवसुत्तादी य पंचेव ॥ ९ ॥ एयाहिं भावणाहिं भावंती ते उ निश्चमपाणं । सोऽवि गच्छनिग्गय वेरग्गपरायणा धीरा ॥ १५२०॥ बारस भिक्खुपडिमा आदिग्गहणेण लंदिया चैव तह सुद्धपारिहारी सवोऽवेसो भवे कप्पो ॥ १ ॥ निच्छय निरास निम्मम निरहंकार परमट्ट दढजोगी । चत्तसरीरकसायो इंदियगामा य निग्गहिया ॥ ९९८ ॥ २ ॥ जं चण्ण एवमादी सव्वणयविहाणमागमविसुद्धं । कप्पोत्ति नाणदंसणचरित्तगुणमावहं जाणे ॥ ९९ ॥३॥ निच्छ्रयमतिणो णिच्छयणयडिया उडिता तु वबहारे। अहह्वावि णिच्छओ तू णाणादीयं भवे तितयं ॥ ४ ॥ णासंसद इहलोयं परलोयं वावि एस उ निरासो। निम्ममता तु ममत्तं ण करती अविय देहेऽवि ॥ ५ ॥ ण करेइ अहंकारं एरिसओ अहंति उत्तमगुणोघो। णिवाणं परमट्टो तस्साहणता उ दढजोगी ॥ ६ ॥ णिप्पडिकम्मसरीरो चतसरीरो उ होइ णायो। णऽचणेतऽच्छिमलादिवि खंतिखमो उज्झियकसातो ॥ ७ ॥ सोइंदियमादीसु य विसयपयारेसु सद्दमादीसु। ण उवेइ रागदोसे इंदियगामा य निग्गहिया ॥ ८ ॥ सङ्घणयावी दुविहा नाणे करणे य हाँति चोदवा । सवणयाणंऽपेयं मतं तु जं (जो ) सुट्टितो चरणे ॥ ९ ॥ कप्पो णामं भण्णति जो आवहती उ नाणमादीणि वुढि बावि करती सवो सो होइ कप्पो उ ।। १५३०॥ कप्पो उ एस मणिओ अडणा एत्तो पकप्ण वोच्छामि। उस्सारकप्पमादी जहकमं आणुपुत्रीए ॥ १ ॥ उस्सारकप्प लोगाणुओग पढमाणुओग संगहणी संभोग सिंगणाइय एवमादी पकप्पो उ ॥ १०० ॥ २ ॥ आयारदिट्टिवादन्थजाणए पुरिसकारणविहष्णू । संविग्गम परितंते अरिहति उस्सारणं काउं॥ ३ ॥ कारणे- अभिग्गते पडिबद्धे, संविग्गे य सलद्धिए। अवट्टिए य पडिबुज्झी, गुरुअमुई जोगकारए ॥ ४ ॥ गच्छो य अलद्धीओ ओमाणं चेव अणहियासो य। गिहिणो य मंदधम्मा सुद्धं च गवेसए उवहिं ॥ ५ ॥ एएहिं कारणेहिं उस्सारायारिहो उ बोद्धवो । उस्सारो दिट्टिवादे धम्मका गंडियनिमित्तं ॥ ६ ॥ उस्सारकप्प एसो समासओ वण्णिओ मए एवं लोगाणुओगमित्तो वोच्छामि अहं समासेणं ॥ ७ ॥ मेहावी सीसम्मी ओहमिए कालगज थेराणं । सज्झतिएण अह सो खिसंतेणं इमं भणिओ ॥ ८ ॥ अनिवहुतं तेऽधीतं ण य णातो तारिंसो मुहत्तो उ। जन्थ थिरो" होइ सेहो निक्खतो अहो हु बोदव (नं)॥ ९ ॥ तो एव समच्छं भणिओ अह गंतु सो पतिद्वाणं आजीवितगासम्मी सिक्खति ताहे निमित्तत्थं ॥। १५४० ॥ अह तम्मि अहीयम्मी बडहेड निविट्ट अन्नय कया (कण्णया का ) ति । सालाहणो गरिदो पुच्छतिमा तिष्णि पुच्छाओ ॥ १ ॥ पसलिंडि पढमयाए बितिय समुद्दे व केत्तियं उदयं ? ततियाए पृच्छाए महुरा य पंडिज व ण वत्ति १ ॥ २ ॥ पढमाए बामकडगं देइ तहिं सयसहस्समुद्धं तु। चितियाए कुंडलं तू ततियाएँवि कुंडलं चितियं ॥ ३ ॥ आजीविता उवट्टित गुरुदक्खिण्णं तु एय अम्हंति । तेहिं तयं तु गहिनं इयरोचित कालक तु ॥ ४ ॥ णट्टम्मि उ सुत्तम्मी अत्थम्मि अणट्टे ताहे सो कुणइ । लोगणुजोगं च तहा पढमणुओगं च दोऽवेए ॥ ५ ॥ बहुहा निमित्त तहियं पढमणुओगे य होंति चरियाई । जिणच - १०९४ पञ्चकल्पभाष्यं
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मुनि दीपरत्नसागर
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