Book Title: Aagam Manjusha 38B Chheyasuttam 05 B Panchkapp Bhasya
Author(s): Anandsagarsuri, Sagaranandsuri
Publisher: Deepratnasagar
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दुपडिजग्गो उठाइसु भणिओ वचइ वच्चत्ति य ठाइ वामो सो ॥ १ ॥ जबादिमादिएहिं करेति गवं तु परिभवति अन्नं । नाणादीया मग्गो परूवणा अन्नहा तेसिं ॥ २ ॥ नाणादिसु सीदंतो न सुद्धमग्गं तु जो परूवेति। एसो मग्मच्छादो वढयती दीहसंसारं ॥ ३ ॥ एतेसिं तु विवेगो मग्गधरा खलु कुलादिया थेरा। तेहिं उबलद्वाणं उचट्ठियाणं गुरू चउरो (मासा) ॥ ४ ॥ बालाणं बुड्ढाणं भिक्खुमाईण चैव सीसिं। संखेवेण महत्यो उवएसो कीरई इणमो ॥ ५ ॥ कप्पे मुत्तत्थविसारएण थामावहारविजद्वेण । भत्तादिलंभऽलंभे सकारजद्वेण होयचं ॥ १४४॥६॥ कप्पैति थेरकप्पे सुत्तत्थविसारएण साहूण । सङ्घत्येसू सबलंण गृहियज्ञं समत्येण ॥ ७॥ आहारमादिएहिं दतुं धीयारमादि पुर्ज्जते। साहू अपुजमाणे ण एवं मणसा विचितेज्जा ॥ ८ ॥ पूइजंती अजया वयं तु सहष्णुमग्गमोइण्णा हा कह णुन पुजामो ? न करे मणदुक्कडं एवं ॥ ९ ॥ सकारपुरकारे परीसहे उ अहियासऊ एवं जूरंते णऽहियासिओ तम्हा सुमणेण होयचं ॥ २१६० ॥ वीसइविहकप्पो ऊ एसो खलु वष्णिओ समासेणं । बायलकप्पमहुणा गुरुवएसेण वोच्छामि ॥ १ ॥ दवे भावे तदुभय करणे वेरमणमेव साहारी । निवेस अंतर णयंतरे य ठिय अडिए १० चेव ॥ १४५ ॥ २ ॥ ठाण जिण र पजुसणमेव सुत्ते चरित्तमज्झयणे उद्देस वायण परिच्छणा य २० परियहऽणुप्पेहा ॥ १४६ ॥ ३ ॥ जायजा चिण्णमचिणे संधा (ठा)णमेव चयणे य उववाय णिसीहे या ३० ववहारे खेत्तकाले य ॥ १४७॥ ४ ॥ उवही संभोगे लिंगकप्प पडिसेवणा य अणुवासे । अणुपालणा अणुष्णा ४० ठवणा कप्पे ४२ य बोदते ॥ १४८॥५॥ एतेसिं तु पयाणं पत्तेय परूवणं पवक्खामि। तहियं तु दवकप्पो इणमो उ समासओ होति ॥ ६ ॥ पंचन्हं असणादीण पणुवीसति हि भवे विसोहीओ | अहवावि उ चउदसया एनो तिगवदिया सोही ||७|| असणं पाणं वत्थं पायं सिला य पंच एतेसिं सुद्धी पणवीसइया उग्गम तह एसणाए य ॥ ८ ॥ सुयणाणपमाणेण उ गहिय असुदेऽवि होइ खुदो उ। अहह्वावि उ छदसया सोलस उप्पायणादोसा ॥ ९ ॥ एएसि सङ्केसि हणपयणकिणादिणवहिं कोडीहिं । कयकारियाणुमोदित एसा तिगवढिया सोही ॥ २१७० ॥ दंसणनाणचरिने नवपवयणसञ्च (च) समिति तिहिं गुत्तो । हतरागदोसनिम्ममखमदमनियम डिओ निचं ॥ १॥ तदुभयकप्पो अहुणा एते चिय दवभावकप्पा उ । दोणिवि मिलिया एते तदुभयकप्पो इमो सो य ॥ २॥ आहारे अद्भुविहे से जोवहि पंच पंचग विसोही दंसणचरितगुत्तो तवसमितिगुणेहिं सोहे (हो) नि ॥३॥ असणादीओ चउहा उवकारि विहोय तस्सेव । एसऽविहाहारो परूवणा तस्सिमा होइ ॥ लः १४५ ॥ ४ ॥ असणं तु ओदणादी तदुबकारी उ खीरकुसणादी पाणं तु पाणमेव उ कप्पूरादी उ उवकारी ॥ २० १४६ ॥ ५ ॥ खाइम फलाइयं तू सुत्ता (ण्ठा) दी होति तदुबकारी उ साइम तंबोलादी चुण्णादी तदुवकारी उ । ल० १४७ ॥ ६ ॥ एवं आहारादी उग्गम उप्पायणेसणासुद्धे । उप्पाए दंसणादीहिं जुत्तो अहवा तदट्टाए ॥ ७॥ विरती य अविरती या विरयाविरती य तिविह करणं तु एकेक होइ दुहा आहे य अभिग्गहे चैव ॥ १४९ ॥ ८ ॥ विरनीकरणं आहे पंचेव महश्या भवती उ। होति अभिग्गहकरणं पिंडविसुद्वादि णेगविहं ॥ ९ ॥ अहवा आहे संजमों विभागओ होइ सत्तरसभेदो। अविरति असंजमोहे अट्ठारस अभिग्राहे इणमी ॥२१८॥ पाणइवाए मोसे अदन मेहुण परिग्गहे चैव। कोहमाण (मय) मायलोभे पेज्जे दोसे तहा कलहे ॥ १ ॥ अब्भक्रखाणे पेयुन्न अरति रई चेव मायमोसे य मिच्छादंसणस अद्धारस अभि हे एस ॥ २ ॥ विस्तारितीए पुण आहेण अणुवया भवे पंच उत्तरगुणा अभिग्गह हवंति सिक्खायता सत्त ॥ ३ ॥ एत्यं पुण अहियारो विश्तीकरणेण होइ दुविहेणं । जह तेसु अतीयारो न होति तह ऊ पयतियत्रं ॥ ४ ॥ उज्जामरक्खियाणं महवयाणं कओ हवति पीला ? भन्नति आहारादिहिं तिहिं पीडा होतऽसुदेहिं ॥ १५० ॥ ल० १४८ ॥ ५॥ उज्जम उजोओ खलु एतेणं रक्खियाण उ वयाणं पीला उवधाओं खलु भवति कहं पृच्छती सीसो ॥ ६ ॥ भणति आहारोबहिसेजा एतेहिं तिहि जसुद्धेहिं । उग्गमदोसादीहि उपीला संजय वया ॥ ७॥ तम्हा उ उग्गमादीहिं विमुद्धाऽऽहारमादिया कला वेरमणकप्प एसो एतो साहारणं वोच्छं ॥ ८॥ सेज्जुबहिज्झाय आहारमेव साहार तह य अणुकंपा आदिपणगं तु तु भइयं अणुसासणाए उ ॥ १५१ ॥ ९ ॥ सेज्जुबहिझायआहार पसिद्धा एते होंति चत्तारि साहारणकप्पो पुण मूलगुणा उत्तरगुणा य ॥ २१९० ॥ साहारणति किं पुण से जादुष्पादगाण ससि । सामण्णगुणा ते ऊ तम्हा साहारणं जाण ॥ १॥ आदिपणगं तु तुर्हति जान सेजाति जाब साहारे ठियमट्ठियाण दोन्हवि एए खलु होंति तुला उ ॥ २ ॥ अहवा तिपणग मूलगुण पंचेते होंति दोह तुहा उ समणाण व समणीण व तम्हा साहारणं जाणे ॥ ३ ॥ भइयमणुसासणंती अणुकंपऽणुसासणन्ति एगट्ठा। कोइ कदाइ अणिउणो ण तरति अणुसासणं काउं ॥ ४ ॥ सुभारियत्तणेणं होति विसुद्धो य अंतरप्पा से तस्सवि होंति बताई पंचवि साहारणाई तु ॥ ५ ॥ आणा तित्थगराणं सामण्णा संजयाण सङ्केसि सुहुमेवि तप्पमाए अणुसासणयं कुणइ जो उ ॥ ६ ॥ तेण अणुकंपिया णिच्छएण जम्हाणुस ( उ उ )ट्ठिता होंति । तेणऽणुकंपऽणुसडी (सऽणुसहऽणुकंपा ) एगट्ठा होंति नायवा ॥ ७ ॥ साहारकप्प एसो अहुणा वोच्छामि णिविसणरूपं जह निधिसंति समणा सम्मं तु गुरूवएसेणं ॥ ८ ॥ नाणं च दंसणं वा तहा चरितं च समितिगुसीओ एकासीतिपदेहिं निविस निवेसणाकप्पो ११०५ पञ्चकल्पभाष्यं
मुनि दीपरत्नसागर
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