Book Title: Aagam 30 V GACHCHHAACHAAR Moolam evam Vrutti Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar Publisher: Deepratnasagar View full book textPage 4
________________ ['गच्छाचार - मूलं एवं विजयविमलगणि विवृत्ता वृत्ति:] इस प्रकाशन की विकास-गाथा यह प्रत "श्रीमद् गच्छाचारप्रकीर्णकम् नामसे प्रकाशित हुई, इस प्रतमे (आगम-३०) 'गच्छाचार नामक प्रकीर्णक-७ एवं वानर्षि विवृत्ता वृत्ति: सम्मिलित है इसके आद्य संपादक-महोदय थे पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी (सागरानंदसूरिजी) महाराज साहेब | इस प्रत को पूज्य आचार्यदेव श्री सागरानन्दसूरीश्वरजी ने सन १९२३ मे अर्थात् विक्रम संवत १९८० मे आगमोदय समिति द्वारा प्रकाशीत करवाई थी | हमारा ये प्रयास क्यों? आगम की सेवा करने के हमें तो बहोत अवसर मिले, ४५-आगम सटीक भी हमने ३० भागोमे १२५०० से ज्यादा पृष्ठोमें प्रकाशित करवाए है किन्तु लोगो की पूज्य श्री सागरानंदसूरीश्वरजी के प्रति श्रद्धा तथा प्रत स्वरुप प्राचीन प्रथा का आदर देखकर हमने इसी प्रत को स्केन करवाई, उसके बाद एक स्पेशियल फोरमेट बनवाया, जिसमे बीचमे पूज्यश्री संपादित प्रत ज्यों की त्यों रख दी, ऊपर शीर्षस्थानमे आगम का नाम, फिर मूलसूत्र या गाथा के क्रमांक लिख दिए, ताँकि पढ़नेवाले को प्रत्येक पेज पर कौनसा सूत्र या गाथा चल रहे है उसका सरलता से ज्ञान हो शके, बायीं तरफ आगम का क्रम और इसी प्रत का सूत्रक्रम दिया है, उसके साथ वहाँ 'दीप अनुक्रम' भी दिया है, जिससे हमारे प्राकृत, संस्कृत, हिंदी गुजराती आदि सभी आगम प्रकाशनोमें प्रवेश कर शके | हमारे अनुक्रम तो प्रत्येक प्रकाशनोमें एक सामान और क्रमशः आगे बढते हए ही है, इसीलिए सिर्फ क्रम नंबर दिए है, मगर प्रत में गाथा और सूत्रो के नंबर अलग-अलग होने से हमने जहां सूत्र है वहाँ कौंस दिए है और जहां गाथा है वहाँ ||-|| ऐसी दो लाइन खींची है या फिर गाथा शब्द लिख दिया है। हमने एक अनुक्रमणिका भी बनायी है, जिसमे प्रत्येक विषय-आदि लिख दिये है और साथमें इस सम्पादन के पृष्ठांक भी दे दिए है, जिससे अभ्यासक व्यक्ति अपने चहिते विषय तक आसानी से पहुँच शकता है | कई-कई पृष्ठो के नीचे विशिष्ठ फूटनोट भी लिखी है, जहां उस पृष्ठ पर चल रहे खास विषयवस्तु की, मूल प्रतमें रही हुई कोई-कोई मुद्रण-भूल की या क्रमांकन-भूल सम्बन्धी जानकारी प्राप्त होती है | अभी तो ये jain_e_library.org का 'इंटरनेट पब्लिकेशन' है, क्योंकि विश्वभरमें अनेक लोगो तक पहुँचने का यहीं सरल, सस्ता और आधुनिक रास्ता है, आगे जाकर ईसि को मुद्रण करवाने की हमारी मनीषा है। ......मुनि दीपरत्नसागर..... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[३०-वृ], प्रकीर्णकसूत्र-[७] “गच्छाचार" मुलं एवं वानर्षिगणि विहिता वृत्ति: ~3~Page Navigation
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