Book Title: Aagam 15 PRAGNAPANA Moolam evam Vrutti
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Deepratnasagar
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आगम
(१५)
“प्रज्ञापना" - उपांगसूत्र-४ (मूलं वृत्ति:) पदं [१]. ---...-. -- उद्देशक:-1, ---------------- दारं [-, . . -- मूलं [१] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [१५], उपांग सूत्र - [४] "प्रज्ञापना" मूलं एवं मलयगिरि-प्रणीत वृत्ति:
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प्रत
सूत्राक
||१||
से किं तं पभषणा, पनवणा दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-जीवपन्नवणा य अजीवपत्रवणा य॥ (मू०१) अथास्य सूत्रस्य का प्रस्तावः१, उच्यते, प्रश्नसूत्रमिदम् , एतवादावुपन्यस्तमिदं ज्ञापयति-पृच्छतो मध्यस्थबुद्धिमतोऽर्थिनो भगवदहेदुपदिष्टतत्त्वप्ररूपणा कायों, न शेषस्य, तथा चोक्तम्-'मध्यस्थो बुद्धिमानर्थी, श्रोता पात्रमिति | स्मृतः', तत्र सेशब्दो मागधदेशीप्रसिद्धो निपातः तत्रशब्दार्थे, अथवा अथशब्दार्थे, स च वाक्योपन्यासार्थः, किमिति परप्रश्ने, 'तंति तापदिति द्रष्टव्यम् , तच क्रमोद्योतने, तत एष समुदायार्थ:-तिष्ठन्तु स्थानादीनि पदानि प्रष्टव्यानि, वाचः क्रमवर्तित्वात् प्रज्ञापनाऽनन्तरं च तेषामुपन्यस्तत्वात् , तत्रैतावदेव तावत् पृच्छामि-किं प्रज्ञापनेति, अथवा प्राकृतशैल्या 'अभिधेयवलिङ्गवचनानि योजनीयानि' इति न्यायादेवं द्रष्टव्यम्, तत्र का तावत् प्रज्ञापनेति १, एवं सा-2 मान्येन केनचित्प्रश्ने कृते सति भगवान् गुरुः शिष्यवचनानुरोधेनादरार्थ किश्चित् शिष्योक्तं प्रत्युच्चार्याह-पन्नवणा दुविहा पत्नत्ता' इति, अनेन चागृहीतशिष्याभिधानेन निर्वाचनसूत्रेणैतदाचष्टे न सर्वमेव सूत्रं गणधरप्रश्नतीर्थकरनिर्वचनरूपम् , किन्तु किञ्चिदन्यथाऽपि, बाहुल्येन तु तथारूपम् , यत उक्तम्-'अत्थं भासद अरिहा सुत्तं गन्थन्ति गणहरा निउण'मित्यादि, तत्र प्रज्ञापनेति पूर्ववत् , 'द्विविधा' द्विप्रकारा 'प्रजप्ता' प्ररूपिता, यदा तीर्थकरा एव निर्वक्तार-15 स्तदाऽयमर्थोऽबसेयः-अन्यैरपि तीर्थकरैः, यदा पुनरन्यः कश्चिदाचार्यस्तन्मतानुसारी तदा तीर्थकरगणधरैरिति, द्वैवि-1||
१ अर्थ भाषतेऽहन सूत्र प्रश्नन्ति गणधरा निपुणम् ।
दीप अनुक्रम
[१०]
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अथ पद (०१) "प्रज्ञापना" आरभ्यते मूल-सूत्रस्य आरम्भः, प्रश्नसूत्रम् एवं तस्योत्तरे विशद् विवरणं
~ 17~

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