Book Title: Aadhyatmik Aalok Part 03 and 04
Author(s): Hastimal Maharaj, Shashikant Jha
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal

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Page 12
________________ २] उसमें जल निरन्तर श्राता ही रहता है। उम जन को उलीचने का जितना ही प्रयत्न क्यों न किया जाय, सरोवर रिक्त नहीं हो सकता, क्योंकि नया-नया जल उसमें आता रहता है । यही स्थिति प्रात्मा की है । प्रतिक्षण, निरन्तर, निर्जरा का क्रम चालू है-पल भर के लिए भी निर्जरा का प्रवाह यंद नहीं होता और अनादिकाल से यह क्रम बराबर चल रहा है, फिर भी आत्मा निष्कर्म नहीं बन सका। इसका एक मात्र कारण यही है कि प्रतिक्षण, निस्तर नूतन कर्म वर्गणाओं का आत्मा में प्रवेश होता रहता है । इस प्रकार अन्धे पीसें कुत्तं खाएं' वाली कहावत चरितार्थ हो रही है। एक ओर निर्जरा के द्वारा कुछ कर्म पृथक् हुए तो दूसरी ओर यात्रव के द्वारा नवीन कमों का प्रागमन हो गया ! आत्मा वहीं का वहीं, जैसा का तैसा ! आत्मा को अनादि कालीन मलिनता का यही रहस्य है। तो फिर किस प्रकार कर्म मुक्ति प्राप्त की जाय ? साधक के समक्ष यह महत्वपूर्ण प्रश्न है। ज्ञानियों ने इस प्रश्न का बड़ा ही सुन्दर और युक्तिसंगत उत्तर दिया है । सरोवर के जलागमन स्रोत निरुद्ध कर दिये जाए', नया पानी आने से रोक दिया जाय तो पूर्वसंचित जल उलीचने आदि से बाहर निकल जाने पर सोवर रिक्त हो जाएगा । कर्मों के अगामन स्रोत-प्रास्रव को रोक दिया जाय और निर्जरा का क्रम चालू रखा जाय तो आत्मा अन्ततः निष्कर्म स्थिति, जिसे मुक्ति भी कहते हैं, प्राप्त कर लेगा। यहां एक बात ध्यान रखने योग्य है । तालाब में जो जल आता है वह ऊपर से दिखलाई देने वाले स्थूल स्रोतों से ही नहीं किन्तु भूमि के भीतर जो अदृश्य सूक्ष्म स्रोत हैं, उन से भी आता है । कचरा निकालते समय हवा की दिशा देखकर कचरा निकाला जाता है। ऐसा न किया जाय तो वह कचरा उड़ कर फिर घर में चला जाता है । किन्तु घर के द्वार बन्द कर देने पर भी बारीक रजकरण तो प्रवेश करते ही रहते हैं। इसी प्रकार साधना की प्राथमिक और माध्यमिक स्थिति में कर्मों के स्थूल स्रोत बन्द हो जाने पर भी सूक्ष्म स्रोत चालू रहते हैं और उनसे कर्म-रज आता रहता है । किन्तु जब

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